What is Yoga ~ योग क्या है (नियम व महत्व) ~ Ancient India

What is Yoga ~ योग क्या है (नियम व महत्व)

आजकल की भागती-दौड़ती व पर्तिस्पर्धा की इस दुनिया में एक दूसरे से आगे निकलने की हौड़ में इंसान मानसिक तनाव, चिंता, अवसाद व अनिद्रा का शिकार हो रहा है वहीं खराब जीवन शैली व अनियमित खान-पान के कारण मोटापा, मधुमेह, हृदयरोग जैसी कई बीमारियों की चपेट में आ रहा है । योग (Yoga) इन सभी रोगों से निपटने में कारगर सिद्ध हो रहा है । योग को अपनाने से व्यक्ति न केवल शारीरिक व मानसिक रूप से स्वस्थ होता है बल्कि उसमें नैतिक व आध्यात्मिक गुणों का भी विकास होता है ।

योग क्या है (What is Yoga)

योग (Yoga) मात्र एक शारीरिक व्यायाम ही नहीं है बल्कि यह जीवन जीने की एक कला है । योग से आदमी का मानसिक व आध्यात्मिक विकास होता है । योग का वास्तविक अर्थ जोड़ना होता है । मन, शरीर व आत्मा को आपस में जोड़ना ही योग कहलाता है । आजकल दुनियाभर में योग का अर्थ शारीरिक व्यायाम समझा जाता है जबकि योग एक व्यापक तत्व है । योग शरीर, मन व समस्त इन्द्रियों पर नियंत्रण रखने की एक कला है । शारीरिक व्यायाम के साथ-साथ योग मानव जीवन के सभी विकारों को दूर कर का उसका सम्पूर्ण विकास होता है । योग मनुष्य की चेतना को जाग्रत कर उसे मानसिक, शारीरिक, आध्यात्मिक, नैतिक व सामाजिक रूप से स्वस्थ बनाता है ।

कहते हैं मन चंचल होता है । यह कभी रुकता नहीं कभी थकता नहीं । यह कभी खाली नहीं बैठता बल्कि कुछ ना कुछ सोचता ही रहता है । आदमी उन्हीं कार्यों को करता है जो वह सोचता है। सभी सद्कर्मों व दुष्कर्मों का कारक मन होता है । योग आदमी की मानसिक व बौद्धिक विचारधारा को बदलने में सक्षम है ।

योग के सबसे महत्वपूर्ण अंगों में से एक है अष्ठांग यानी आठ अंग । ये आठ अंग यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान तथा समाधि हैं । योग की अंतिम अवस्था तक पहुंचने के लिए इन आठों अंगों को अपनाना आवश्यक है तभी मनुष्य सही मायने में अपना शारीरिक, मानसिक और आध्यात्मिक विकास कर पाता है ।

योग का जन्मदाता भारत है। वैसे तो योग सदियों से ही चला आ रहा है । योग की शुरुआत मानव सभ्यता के शुरू होने के साथ ही मानी जाती है । लेकिन इसे एक सूत्र में पिरोने का काम किया महर्षि पतंजलि ने । पतंजलि का जन्म 220 ई.पू. गोंदरमऊ (मध्य प्रदेश,भारत) मे हुआ । उस समय इस स्थान का नाम गोनारद्य था । पतंजलि ने योग को एक सरल भाषा में पेश किया। उनकी रचनाओं ने आज पूरी दुनिया तक योग को पहुंचाने का काम किया है । योग की व्यापकता को देखते हुए भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के आग्रह पर संयुक्त राष्ट्र महासभा ने 21 जून 2015 को विश्व योग दिवस (International Day of Yoga) घोषित कर दिया । तब से निरंतर प्रतिवर्ष 21 जून को विश्व योग दिवस के रूप में मनाया जाता है ।

योग के प्रकार (Types of Yoga)

[योग 6 प्रकार के हैं]

  • 1.हठयोग (Hatha Yoga)
  • 2.राजयोग/अष्ठांग (Rajyog or Ashtanga Yoga)
  • 3.कर्मयोग (Karma Yoga )
  • 4.भक्ति योग (Bhakti yoga)
  • 5.ज्ञान योग (Gyan Yoga)
  • 6.तंत्र योग (Tantra Yoga)

मित्रों, आज हम आपको योग के शुरुआती 4 अंगों (हठयोग, राजयोग, कर्मयोग व भक्ति योग) के बारे में जानकारी देंगे । ज्ञानयोग व तंत्र योग की जानकारी हम भविष्य में प्रकाशित होने वाले लेख में देंगे ।

हठयोग क्या है (What is Hatha Yoga)

हठ का सामान्य अर्थ जिद होता है । हठयोग शब्द दो शब्दों को मिलाकर बना है  व ठ । जिसमें ह सूर्य का व  चंद्रमा का पर्याय है।

हठयोग के अंग (Types of Hatha Yoga)

हठयोग के सात अंग हैं- षट्कर्म, आसन, मुद्रा, प्रत्याहार, प्राणायाम, ध्यानासन, समाधि ।

षट्कर्म / षटक्रिया (Shatkarmas Yoga/Shatkriyas Yoga)

षट्कर्म से तात्पर्य शरीर के शुद्धिकरण से है । इसकी 6 क्रियाऐं होती हैं । ये छः क्रियाएँ हैं नेति, धोती, नौली, कपाल भाती, त्राटक तथा बस्ती ।

षट्कर्म की क्रियाओं द्वारा शरीर को शुद्ध किया जाता है । काम, क्रोध, लोभ, मोह, भय, अहंकार व दुख शरीर में कई विकारों व विषैले तत्वों को जन्म देते हैं । षट्कर्म योग शरीर , मस्तिष्क व चेतना पर नियंत्रण प्रदान करता है । इसके अभ्यास से मानसिक शांति आती है व शरीर में एक नई ऊर्जा का विकास होता है । षट्कर्म योग की दिशा में पहला कदम होता । इसके बिना योग की सफलता सम्भव नहीं है ।

आसन (Asana Yoga)

आसन से शरीर के सभी रोग दूर होकर स्वर्ग के समान सुख की अनुभूति होती है ।

मुद्रा (Mudra Yoga)

प्राणायाम की तरह इसका प्रयोग भी कुंडली को जाग्रत करने में किया जाता है । इसका प्रयोग मन को आत्मा से जोड़ने में सहायक है । इसके लिए घेरण्ड संहिता तथा हठयोग प्रदीपिका में कई मुद्रओं का वर्णन है । इनमें से कुछ मुद्राएं हैं- चिन मुद्रा, चिन्मय मुद्रा, ब्रह्म मुद्रा, आदि मुद्रा, प्राण मुद्रा, अभय मुद्रा, भूमिस्पर्श मुद्रा, धर्मचक्र मुद्रा, ध्यान मुद्रा, वरद मुद्रा, वज्र मुद्रा, वितर्क मुद्रा, ज्ञान मुद्रा, करण मुद्रा तथा शुन्य मुद्रा आदि ।

प्रत्याहार (Pratyahara Yoga)

प्रत्याहार में इंद्रियों को साधा जाता है । सभी इंद्रियां हमारे नियंत्रण में होती हैं । हम पूर्ण एकाग्रता से ध्यान लगा सकते हैं । हम जब चाहें जैसा चाहें अपनी आवश्यकता के अनुसार इंद्रियों का उपयोग कर सकते हैं ।

प्राणायाम (Pranayama Yoga)

प्राणायाम से तात्पर्य है प्राणों पर नियंत्रण यानी सांसो पर नियंत्रण करना । सांस लेने की क्रिया पर आधारित व्यायाम ही प्राणायाम कहलाता है । इसके प्रयोग से कुंडली सिद्धि को जाग्रत किया जाता है ।

ध्यानासन (Dhyanasana Yoga)

ध्यान लगाने के लिए किए गए आसान को ध्यानासन कहा जाता है । इस आसन से शरीर में शक्तियों का समावेश होता है । इससे शक्तियों में सामंजस्य स्थापित होता है तथा मन की शांति व अलौकिक आनंद की प्राप्ति होती है ।

समाधि (Samadhi Yoga)

समाधि हठयोग का आखरी अंग है । हमारे ऋषियों व मुनीओं द्वारा खोजी गई इस आध्यात्म विद्या से व्यक्ति को सुख व शांति की चरम सीमा प्राप्त होती है ।

राजयोग क्या है/ अष्ठांग क्या है (What is Rajyoga / Ashtanga Yoga)

राजयोग को सभी योगों का राजा कहा जाता है । राजयोग के आठ अंगों के कारण इसे अष्ठांग योग भी कहा जाता है । महर्षि पतंजलि की रचना योगसूत्र में इस योग का विस्तारपूर्वक वर्णन है । इस योग में सभी योगों की कुछ न कुछ सामग्री अवश्य मिली है इसलिए इसे राजयोग कहा जाता है ।

राजयोग के अंग (Types of Rajyoga)

राजयोग के प्रमुख आठ अंग हैं-यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान तथा समाधि ।

यम योग (नैतिकता) / Yama Yoga

यम से तात्पर्य है नैतिकता । इसके पांच प्रकार सत्य, अहिंसा, अस्तेय, ब्रह्मचर्य व अपरिग्रह हैं ।

सत्य- आमतौर पर यही कहा जाता है कि झूठ नहीं बोलना ही सत्य है । जैसा सुना-देखा वैसा ही बोलना सत्य बोलना मान लिया जाता है । लेकिन सही मायने में सत्य की परिभाषा अपूर्ण व असाधारण है । सत्य एक बहुत ही विस्तृत व व्यापक तत्व है । सत्य बोलने से पहले सत्य की व्यापकता व गहराई को जान लेना चाहिए । कुछ सत्य ऐसे होते हैं जो आम आदमी की समझ से परे होते हैं । कुछ झूठ दिखने वाली चीजें भी सत्य होती हैं जबकि कुछ सच दिखने वाली चीजें भी झूठ होती हैं । सच में भी कई झूठ होते हैं और झूठ में भी कई सच । झूठ क्या है, सच क्या है इसका विश्लेषण करना आवश्यक है ।

जैसे- किसी व्यक्ति को रास्ते में पड़ी एक रस्सी को देखकर साँप का बहम हुआ । अब यहां सांप तो था ही नहीं फिर सत्य क्या है, वह आदमी एक रस्सी से क्यों घबरा गया । यहां वह एक रस्सी थी यह सत्य है, जबकि वह एक सांप था यह भी झूठ नहीं है । क्योंकि वहां उस व्यक्ति को वह रस्सी सांप ही दिखी थी । वह आदमी रस्सी को सांप समझ कर घबरा गया था । इसकी वजह थी वहम जो उस रस्सी को देखने पर आदमी के मन में उत्त्पन्न हुआ था ।

दूसरे उदाहरण में डॉक्टर एक बच्चे के फोड़ों पर पट्टी बांधता है तो रोते हुए बच्चे को डॉक्टर यह वहम देता है की तुम्हें दर्द नहीं होगा लेकिन बच्चे को दर्द होता है । बच्चों को गणित पढ़ाते समय अध्यापक न जाने कितने झूठे उदाहरण देता है माना की वह राम है, कल्पना करो वह श्याम है । गाय को ढूंढ रहे कसाई को गाय का गलत पता बताना ।

हालांकि यहां कुछ भी सत्य नहीं था लेकिन फिर भी यह झूठ की श्रेणी में नहीं आता । जैसा मैंने बताया सत्य बोलना ही सत्य नहीं होता, वह सत्य निष्पाप भी होना चाहिए । ऐसे वहम व झूठ जिससे किसी का भला हो सके वह भी सत्य है । ऐसा करने से मन को शांति मिलती है जीवन का उद्ददेश भी सिद्ध होता है ।

अहिंसा- मन, कर्म व वचन की हिंसा करना अपराध है । इसके अलावा क्रोध, लोभ, मोह व स्वयं के साथ अन्याय करना, अपने शरीर को कष्ट देना आदि हिंसा का एक रूप है जिसे त्यागकर अहिंसा की ओर अग्रसर होना चाहिए । इससे मन को शांति व आनंद की अनुभूति होती है । अहिंसा के इस रूप को ग्रहण करने में ही योग की सार्थकता है ।

अस्तेय- अस्तेय से तात्पर्य है चोरी न करना । दूसरों की वस्तु को बिना उसके मालिक की आज्ञा के चुराना या बलपूर्वक अधिकार कर लेना स्तेय कहलाता है । दूसरों की वस्तु पर अधिकार करने का विचार मन में लाना भी पाप है । किसी की लाचारी का फायदा उठाकर उसकी वस्तु पर अधिकार करना, दुकानदार द्वारा तोल में हेर-फेर करना आदि अस्तेय के विपरीत है । जैसा मैंने शुरुआत में कहा योग का तात्पर्य मात्र एक शारीरिक व्यायाम ही नहीं है बल्कि यह मनुष्य को मानसिक व आत्मिक रूप से भी स्वस्थ बनाता है ।

ब्रह्मचर्य- आमतौर पर गुप्तेद्रियों को नियंत्रित रखना ब्रह्मचर्य माना जाता है । जबकि गुप्तेद्रियों पर नियंत्रण रखना ब्रह्मचर्य का एक हिस्सा है । शाब्दिक रूप से ब्रह्मचर्य का भी एक व्यापक अर्थ है । इसका शाब्दिक अर्थ ब्रह्म अर्थात परमात्मा व चर्य यानी कार्य करना है । अर्थात परमात्मा में आचरण करना,परमात्मा में रम जाना, परमात्मा का ध्यान करना, अपनी आत्मा को परमात्मा में रमा लेना । ऐसा तब तक सम्भव नहीं है जब तक कि अपनी समस्त इन्द्रियों पर नियंत्रण न रख लेवें ।

अपरिग्रह- अपरिग्रह से तात्पर्य है अपनी किसी वस्तु या व्यक्ति के प्रति मोह त्यागना । इससे मन में विचलन पैदा होता है ।

नियम (आत्म शुद्धिकरण और अध्ययन) / Niyama Yoga

नियम के पांच अंग हैं- शौच, संतोष, तप, स्वाध्याय तथा ईश्वर प्रणिधान ।

शौच- शौच से तात्पर्य शुद्धता से है । आदमी के लिए न केवल बाह्य शुद्धता आवश्यक है बल्कि आंतरिक शुद्धता का होना भी आवश्यक है । जिस तरह हम अपने शरीर पर नए वस्त्र व वेशभूषा धारण करते हैं उसी प्रकार मनुष्य में शुद्ध भावना व विचार होने चाहिए ।

संतोष- सबसे श्रेष्ठ धन संतोष है । सांसारिक वस्तुऐं चाहे कितनी भी संचय कर लें चाहे एक व्यक्ति सोने व हीरे की खानों के मालिक ही क्यों न बन जाएं लेकिन वह अंदर से असंतोष से भरा रहेंगा । तब इंसान आंतरिक संतोष की तलाश करता है । इसलिए याद रखें सांसारिक वस्तुएं आदमी को आत्मिक शांति नहीं दे सकती ।

तप- तप से तात्पर्य आत्म अनुशासन, आत्म विश्वास व दृढ निश्चय से है । जीवन में कई बार ऐसी मुश्किलें आ जाती हैं जो इंसान को हताश कर देती हैं । ऐसे में इंसान को तप का उपयोग करना चाहिए । दृढ़ निश्चय व आत्म विश्वास के साथ निरंतर बढ़ते रहना चाहिए ।

स्वाध्याय- स्वाध्याय से तात्पर्य है आत्म चिंतन करना । भगवद् गीता, महाभारत व उपनिषद जैसे महत्वपूर्ण ग्रन्थों व किताबों को पढ़ना चाहिए । आत्म चिंतन करने से व्यक्तित्व में निखार आता है व ज्ञान में वृद्धि होती है ।
ईश्वर प्रणिधान- ईश्वर प्रणिधान से तात्पर्य है ईश्वर की शरण में जाना, ईश्वर के प्रति पूरी श्रद्धा, फल की इच्छा किये बिना ईश्वर के प्रति पूर्ण समर्पण । ऐसा करने से इंसान सभी चिंताओं से मुक्त हो जाएगा तथा जीवन के मायने सिद्ध हो जाएंगे ।

आसन (मुद्रा) / Asana Yoga

योग का यह अंग आजकल सबसे अधिक प्रचलन में है । जिसे हम शारीरिक व्यायाम भी कह सकते हैं ।

‘स्थिरसुखमासनम्’ अर्थात ऐसी स्थिति जिसमें आप स्थिर होकर सुखपूर्वक बैठ सकें । शस्त्रों के अनुसार आसन के 84 लाख प्रकार हैं जो जीव-जंतुओं के नाम पर आधारित हैं । गोरक्ष शतक व शिव संहिता के अनुसार आसन 84 प्रकार के हैं । इनमें से भी 32 आसान आजकल अधिक प्रचलित हैं । विभिन्न ग्रंथों में आसनों की संख्या भी अलग-अलग है । हठयोग संहिता में 15 आसनों का वर्णन है ।

इन आसनों को दो भागों में बांटा गया है ।

  • गतिशील आसन- ऐसे आसन जिनमे शरीर शक्ति के साथ गतिशील रहता है।
  • स्थिर आसन- वे आसन जिनमे अभ्यास को शरीर में बहुत ही कम या बिना गति के किया जाता है।

योग आसन (Asana Yoga) के कुछ प्रमुख प्रकार निम्न है-
  1. स्वस्तिकासन (Svastikasana Yoga)
  2. गोमुखासन (Gomukhasana Yoga)
  3. गोरक्षासन (Gorakshasana Yoga)
  4. अर्द्धमत्स्येन्द्रासन (Ardha Matsyendrasana Yoga)
  5. योगमुद्रासन (Yoga Mudrasana Yoga)
  6. उदाराकर्षण या शंखासन (Udarakarshanasana Yoga)
  7. सर्वांगासन (Sarvangasana Yoga)
  8. गरुड़ासन (Garudasana Yoga)
  9. मयूरासन (Myurasana Yoga)
  10. सिंहासन (Simhasana Yoga)
  11. मत्स्यासन (Matsyasana Yoga)
  12. चक्रासन (Chakrasana Yoga)
  13. मकरासन (Makarasana Yoga)
  14. वज्रासन (Vajrasana Yoga)
  15. चंद्रासन (Chandrasana Yoga)
  16. अर्ध चंद्रासन (Ardha Chandrasana Yoga)
  17. हलासन (Halasana Yoga)
  18. शवासन (Shavasana Yoga)
  19. पादचक्रासन (Pada Chakrasana Yoga)
  20. ब्रह्ममुद्रासन (Brahma Mudrasana Yoga)
  21. नटराजासन (Natarajasana Yoga)

प्राणायाम / Pranayama Yoga

प्राणायाम का शाब्दिक तात्पर्य है प्राणों को यानी स्वास अथवा जीवन शक्ति को लम्बा करना । प्राणायाम के कई प्रकार हैं जिनमें प्रमुख प्राणायाम निम्न हैं-
1.नाड़ीशोधन प्राणायाम (Nadi Shodhana Pranayama)
2.भ्रस्त्रिका प्राणायाम (Bhastrika Pranayama)
3.उज्जाई प्राणायाम (Ujjayi Pranayama)
4.भ्रामरी प्राणायाम (Bhramari Pranayama)
5.अनुलोम-विलोम प्राणायाम (Anulom-Vilom Pranayama)
6.कपालभाती प्राणायाम (Kapalabhati Pranayama)
7.केवली प्राणायाम (Kevali Pranayama)
8.कुंभक प्राणायाम (Kumbhaka Pranayama)
9.दीर्घ प्राणायाम (Dirgha Pranayama)
10.शीतकारी प्राणायाम (Shitkari Pranayama)
11.शीतली प्राणायाम (Sheetali Pranayama)
12.मूर्छा प्राणायाम (Murcha Pranayama)
13.सूर्यभेदन प्राणायाम (Suryabhedan Pranayam)
14.चंद्रभेदन प्राणायाम (Chandra Bhedana Pranayam)
15.प्रणव प्राणायाम (Pranav Pranayama)
16.बाह्य प्राणायाम (Bahya Pranayama)
17.अग्निसार प्राणायाम (Agnisar Pranayama)
18.उद्गीथ प्राणायाम (Udgeeth Pranayama)
19.नासाग्र प्राणायाम (Nasagra Pranayama)
20.प्लावनी प्राणायाम (Plavini Pranayama)
21.शितायु प्राणायाम (Shitayu Pranayama)

प्रात्याहार (Pratyahara Yoga)

प्रात्याहार से तात्पर्य है बाहरी वस्तुओं से मन को हटाकर भीतरी वस्तुओं में लगाना । प्रत्याहार का शाब्दिक अर्थ है प्रति+आहार यानी इन्द्रियों को उनके विषय या आहार के विपरीत कर देना । यानी इन्द्रियों को अपने नियंत्रण में कर इच्छानुसार उन्हें आंतरिक व बाह्य दिशा में ले जाना । कई बार हम इन्द्रियों के वशीभूत होकर अपने वास्तविक उद्देश्य से भटक जाते हैं । इन्द्रियों से हमें ज्ञान प्राप्त होता है लेकिन जब यही भटक जाती हैं तो हमें प्रत्याहार की आवश्यकता पड़ती है ।

धारणा (एकाग्रता) / Dharana Yoga

धारणा से तात्पर्य है थामना या सहारा देना । धारणा का उद्ददेश अष्ठांग योग/राजयोग के उपर्युक्त पाँचों नियमों यम, नियम, आसन, प्राणायाम व प्रतिहार द्वारा इन्द्रियों को उनके विषयों से हटाकर चित में स्थिर रखना या उनकी एकाग्रता बनाये रखना है ।

ध्यान योग / Dhyana Yoga

ध्यान का प्रयोग भारत में प्राचीन काल से ही होता आ रहा है । ध्यान योग मानसिक शांति, दृढ़ मनोबल, एकाग्रता व मन पर काबू पाने के उद्देश्य से किया जाने वाला योग है । हमारे मन में असंख्य कल्पनाएं व विचार होते हैं जिनके कारण मन व मष्तिष्क में कोलाहल बना रहता है । निरंतर ऐसी अवस्था के कारण आदमी का मनोबल कमजोर जाता है । इसलिए ध्यान की आवश्यकता पड़ती है ।

समाधि (सार्वभौमिक में अवशोषण) / Samadhi Yoga

समाधि अष्ठांग योग का अंतिम रूप है । इस अवस्था को हिन्दू धर्म में मोक्ष भी कहा जाता है । जबकि जैन धर्म में केवल्य ज्ञान व बौद्ध धर्म में निर्वाण कहा जाता है ।

कर्मयोग क्या है (What is Karmyoga)

कर्म से तात्पर्य है कार्य करना, क्रिया करना । यह आदमी का स्वभाव होता है कि वो कोई न कोई कार्य करता ही रहता है । कुछ अच्छे कार्य भी होते हैं कुछ बुरे भी । पाप-पुण्य के आधार पर ही इंसान को इंसान, पशु-पक्षी व जीव-जंतुओं की विभिन्न प्रकार की 84 लाख योनियों से गुजरना पड़ता है । इंसान के सभी कर्मों का फल या परिणाम निश्चित है जो उसके कर्मों में ही निहित होता है । भगवद्गीता में भी कहा गया है कि ‘हम जैसा कर्म करते हैं वैसा ही फल पाते हैं ।’

कर्म के दो प्रकार हैं- सकाम कर्म, निष्काम कर्म

सकाम कर्म

सकाम कर्म वह होते हैं जिनमें फल की इच्छा निहित अथवा अपना स्वार्थ निहित होता है । जैसे- धन कमाने के लिए किया गया कर्म, यश प्राप्ति के लिए किया गया कर्म व अन्य कार्य जो व्यक्ति अपनी दिनचर्या में अपने लाभ के लिए करता है । इन कर्मों में अच्छे व बुरे दोनों प्रकार के कर्म होते हैं । अपने स्वार्थ के लिए दूसरों का अहित न करने वाले कर्म अच्छे कर्म होते हैं जबकि अपने स्वार्थ के किसी का अहित करना पाप की श्रेणी में आता है । इन्हीं कर्मों के आधार पर मनुष्य के लिए 84 लाख योनियों का निर्धारण होता है ।

निष्काम कर्म

‘कर्म करो फल की चिंता मुझ पर छोड़ दो’ गीता में भगवान श्रीकृष्ण ने अर्जुन को जो उपदेश दिया था वह पूरी मानव जाति पर लागू होता है । निष्काम कर्म का अर्थ काम न करना नहीं है बल्कि अपने कर्मों में स्वार्थ की लिप्तता को त्यागना है । अपने कर्तव्य को निभाना के प्रति किया गया कर्म निष्काम कर्मयोग है । निस्वार्थ सेवा व परोपकार की भावना से किये गए कर्मों से इंसान के लिए मुक्ति के मार्ग खुल जाते हैं । जो इंसान कर्मफल के बंधनों से मुक्त हो गया व जन्म-मरण के बंधनों से भी मुक्त हो जाता है ।

भक्तियोग क्या है (What is Bhakti Yoga)

भक्ति से तात्पर्य है ईश्वर से प्रेम, ब्रह्मात्मा से प्रेम जबकि योग का तात्पर्य है जुड़ना अर्थात परमात्मा से मिलन का जो रास्ता है वह भक्ति है, परमात्मा के प्रेम में रम जाना ही भक्ति है ।

भक्ति के भाव रस

शांतभाव भक्ति- जब जीवन के वास्तविक मूल्यों को समझकर अपने अहम को त्यागकर सांसारिकता से विरक्त होकर मनुष्य ईश्वर की शरण में आ जाता है । तब वह आनंदमय, शांत व प्रसन्नचित्त होकर भगवान की भक्ति करता है ।

दास्यभाव भक्ति- जब मनुष्य उस अलौकिक शक्ति को जानकर उसके सामने नतमस्तक हो जाता है । तब वह परमात्मा की सेवा करना व उसके आदेश को मानना ही अपना परम् कर्तव्य समझता है । ऐसी भक्ति दास्य भक्ति कहलाती है । जैसे हनुमान जी ने भगवान राम को जानकर उनकी भक्ति की थी ।

वात्सल्य भाव भक्ति- भक्ति के इस रूप में भक्त ईश्वर के बाल रूप पर मुग्ध होकर उनकी एक पिता की भांति परवरिश व सेवा करने लगता है । जैसे एक मां में अपने पुत्र के प्रति वात्सल्य जागता है ठीक उसी प्रकार भक्त में अपने आराध्य देव के प्रति वात्सल्य जागता है । भक्त अपने आराध्य देव के शिशु रूप की पूजा करता है । यही भक्ति वात्सल्य भाव भक्ति कहलाती है । जैसे यशोदा द्वारा कान्हा का पालन पोषण करना तथा आज के परिपेक्ष्य में लड्डू गोपाल की पूजा ।

सखाभाव भक्ति – जब मनुष्य अपने आराध्य देव को अपना मित्र समझकर पूजता है तो ऐसी भक्ति सखाभाव भक्ति कहलाती है । जैसे- भगवान कृष्ण के प्रति अर्जुन व सुदामा की भक्ति व राम के प्रति विभीषण की भक्ति ।

माधुर्य भाव भक्ति अथवा

कान्तभाव भक्ति- भक्ति का यह भाव सर्वश्रेष्ठ माना जाता है । इसमें भक्त अपने आराध्य को अपना प्रियतम समझकर पूजा करते हैं तथा उनसे प्रेम करते हैं । भगवान श्रीकृष्ण से राधा, मीरा व बृज की गोपियों ने जो प्यार व भक्ति की वह माधुर्य भाव भक्ति का ही एक उदाहरण है ।

गौणी भक्ति/नवविधा भक्ति

नवविधा भक्ति का तात्पर्य भक्ति की नौ विधियों व नियमों से है । भगवत गीता में भक्ति की 9 प्रकार बताए गए हैं-

श्रवण – ईश्वर की महिमा व उनकी लीलाओं को, ईश्वर के स्मरण, कथा, भजन व कीर्तन को पूरी श्रद्धा व लगन के साथ सुनना श्रवण भक्ति कहलाती है ।

कीर्तन – ईश्वर के नाम , गुण, चरित्र व शक्तियों की स्तुति करना कीर्तन कहलाता है ।

स्मरण – श्रद्धा भाव से ईश्वर को याद करना , निरंतर ईश्वर की महिमा व शक्ति का सुमरिन करना ।

पाद सेवन – ईश्वर को सर्वस्व न्योछावर कर ईश्वर को अपना सब कुछ मानकर उनके चरणों में आश्रय लेना ।

अर्चन – मन , कर्म ,वचन से पवित्र सामग्री ईश्वर के चरणों में अर्पित करना ।

वन्दन- ईश्वर से प्रार्थना करना व ईश्वर के समक्ष श्रद्धा भाव से नतमस्तक होना तथा अपने माता-पिता , गुरुजन , ब्राह्मण व आचार्य को परम् आदर के साथ नमस्कार करना ।

दास्य – ईश्वर को अपना स्वामी मानना तथा स्वयं को ईश्वर का दास समझकर सेवा करना ।

सख्य- ईश्वर को अपना सखा/मित्र मानकर अपना सर्वस्व ईश्वर पर न्यौछावर कर सच्ची लगन व श्रद्धा से ईश्वर की सेवा करना ।

आत्म निवेदन – स्वयं को पूरी तरह से बिना किसी कर्मफल की इच्छा व चिंता के ईश्वर को समर्पित कर देना । यह भक्ति की सबसे उत्तम व्यवस्था मानी जाती है ।

जैसा कि मैने शुरुआत में बताया की योग (Yoga) का तात्पर्य केवल शारीरिक व्यायाम ही नहीं है बल्कि व्यक्ति को शारीरिक, मानसिक, नैतिक व आध्यात्मिक रूप से भी स्वस्थ बनाना है । योग के इन सभी छह अंगों को अपने जीवन में उतारकर मनुष्य जीवन के वास्तविक मूल्यों को समझ पायेगा ।

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