History of Gupta Dynasty ~ गुप्त वंश का इतिहास (भाग-1) ~ Ancient India

History of Gupta Dynasty ~ गुप्त वंश का इतिहास (भाग-1)

मौर्य साम्राज्य के पतन के पश्चात भारत की राजनैतिक एकता समाप्त हो गई थी । हालांकि इसके बाद कुषाणों और सातवाहन शासकों ने क्रमशः उत्तर तथा दक्षिण भारत में राजनैतिक स्थिरता लाने का प्रयत्न किया परन्तु वे सफल नहीं हुए । क्योंकि ये राज्य अपने ही क्षेत्रों में सीमित रहे । चौथी शताब्दी में प्रारम्भ में एक नए राजवंश का उदय हुआ जिसे गुप्तवंश के नाम से जाना जाता है ।

मौर्य साम्राज्य के पतन के पश्चात भारत की राजनैतिक एकता समाप्त हो गई थी । हालांकि इसके बाद कुषाणों और सातवाहन शासकों ने क्रमशः उत्तर तथा दक्षिण भारत में राजनैतिक स्थिरता लाने का प्रयत्न किया परन्तु वे सफल नहीं हुए । क्योंकि ये राज्य अपने ही क्षेत्रों में सीमित रहे । देश मे राजनीतिक विघटन का दौर आरम्भ हो गया । इस राजनीतिक विघटन का सामना करने के लिए तीसरी शताब्दी ई. में भारत मे तीनों कोनों से तीन नये राजवंशो का उदय हुआ - पूर्वी उत्तर प्रदेश (पूर्वी भारत) में गुप्त वंश, मध्य भारत के पश्चिमी भाग में नाग वंश तथा दक्कन में वाकाटक वंश । इसके अलावा राजस्थान, हरियाणा,पंजाब तथा हिमाचल आदि क्षेत्रों में मालव,यौधेय तथा अर्जुनायन आदि गणराज्यों का उदय हुआ ।

गुप्तवंश की उत्पत्ति

गुप्तों की उत्पत्ति व उनके मूल निवास स्थान का प्रश्न विवादास्पद है । ये सम्भवतः कुषाणों के सामन्त थे । वज्जिका द्वारा लिखित नाटक कीर्तिकौमुदी चंद्रगुप्त-प्रथम को कारस्कर कहा गया है ।

चंद्रगोमिन के व्याकरण में इन्हें जाट(जर्ट) कहा गया है । गुप्तों की उत्पत्ति के संबंध में विभिन्न विद्वानों ने अपने-अपने मत व्यक्त किए हैं ।

  • शुद्र - काशी प्रसाद जायसवाल का मानना है कि गुप्त वंश के लोग शुद्र जाती के थे ।
  • वैश्य - एलन, अनन्त सदाशिव अल्तेकर, एस. के.आयंगर, रोमिला थापर, राम शरण शर्मा आदि इतिहासकारों ने इन्हें वैश्य जाती का बताया है ।
  • क्षत्रिय - गौरीशंकर हीराचन्द ओझा ,रमेश चन्द्र मजूमदार तथा सुधाकर चट्टोपाध्याय आदि विद्वानों का मत है कि गुप्त वंश के लोग क्षत्रिय थे ।
  • ब्राह्मण - हेमचंद्र राय चौधरी तथा श्री राम गोयल ने इन्हें ब्राह्मण जाति का बताया है ।

चंद्रगुप्त द्वितीय की पुत्री प्रभावती गुप्ता द्वारा पूना ताम्रपत्र में अपने धारण गौत्र का उल्लेख किया है । यह गौत्र संभवतः उसके पिता था क्योंकि उसके पति वाकाटक नरेश रूद्रसेन द्वितीय विष्णु वृद्धि गौत्र के ब्राह्मण थे ।

इसी प्रकार इनके मूल निवास स्थान का प्रश्न भी विवादस्पद है । फिर भी अधिकांश विद्वानों का अनुमान है कि गुप्तों का मूल निवास क्षेत्र पूर्वी उत्तर प्रदेश (उपरी गंगा घाटी) था ।

  • पंजाब - काशी प्रसाद जयसवाल ने गुप्तों का मूल निवास स्थान पंजाब में बताया है ।
  • बंगाल - एच. सी.रायचौधरी ने इनका मूल निवास स्थान वरेन्द्री(रंगपुर व राजशाही, बांग्लादेश) बताया है वहीं धीरेन्द्र चन्द्र गांगुली का मानना है कि गुप्तों का मूल निवास स्थान मुर्शिदाबाद ,पश्चिम बंगाल था ।
  • मगध - वी. ए. स्मिथ तथा ए. एस. अल्तेकर का अनुमान है कि गुप्तों का मगध से थे ।
  • पूर्वी उत्तर प्रदेश - बिंदेश्वरी प्रसाद सिन्हा तथा जगन्नाथ अग्रवाल ने गुप्तों का मूल निवास सारनाथ तथा श्री राम गोयल ने प्रयाग बताया है ।

इस प्रकार उपर्युक्त मतों को देखते हुए किसी एक निष्कर्ष पर पहुंचना मुश्किल है । फिर भी अनेक इतिहासकारों का विश्वास है कि गुप्त मूल रूप से वैश्य थे लेकिन उन्हें क्षत्रिय माना जाने लगा तथा इनका मूल निवास स्थान पूर्वी उत्तर प्रदेश की गंगा घाटी में था ।

श्रीगुप्त को गुप्तों का आदि पुरुष माना जाता है । घटोत्कच इसका पुत्र था । स्कन्दगुप्त के सुपिया (रीवा) स्तम्भलेख में गुप्तवंश को घटोत्कच वंश भी कहा गया है ।

गुप्त वंश के शासक

श्रीगुप्त (275 ई.- 300 ई.)

गुप्त वंश की वंशावली का परिचय देने वाले तीन अभिलेख समुद्र गुप्त का प्रयाग प्रशस्ति अभिलेख, कुमारगुप्त का विलसड स्तम्भलेख तथा स्कन्दगुप्त का भितरी स्तम्भलेख में प्राप्त जानकारी के आधार पर गुप्तों का आदि पुरुष (गुप्त राजवंश के प्रथम पुरूष) श्रीगुप्त को माना जाता है ।

कुषाण साम्राज्य के पतन के पश्चातउत्तरी भारत में अराजकता उत्पन्न हो गयी थी इसी स्थिति का लाभ उठाकर वहां के प्रांतीय शासक व सामंतों ने स्वयं को स्वतंत्र घोषित कर दिया । श्रीगुप्त भी उन्हीं में से एक था । 275 ई. में श्रीगुप्त ने गुप्त राजवंश की स्थापना की थी । यह आवश्यक नहीं कि उसका नाम श्रीगुप्त ही हो ,हो सकता है की उसका नाम केवक 'गुप्त' हो तथा उसके नाम के आगे 'श्री' उसके सम्मानार्थ लगाया गया हो ।

चीनी यात्री इत्सिंग के अनुसार चे ली की तो (श्रीगुप्त) ने नालंदा से 40 योजन पूर्व में तथा मगध से कुछ दुरी पर पूर्व की तरफ अपने राज्य का विस्तार किया । उसने अपनी शक्ति को स्थापित कर 'महाराज' की उपाधि धारण की । बौद्ध तीर्थस्थलों के दर्शन करने के लिए बड़ी संख्या में चीनी यात्री भारत आने लगे थे । हालांकि महाराज श्रीगुप्त स्वयं बौद्ध नहीं था फिर भी इनके आराम के लिए उसने मृगशिखावन के पास के विहार का निर्माण करवाया तथा उनका खर्च वहन करने के लिए उन्हें 24 गाँव दान दिए ।

श्रीगुप्त की दो मुहरें मिली हैं जिनके बारे में यह कहा जाता है कि ये प्रथम शासक श्रीगुप्त द्वारा प्रवर्तित हैं । इन पर एक मुहर पर 'गुप्तस्य' तथा दूसरी मुहर जो मिट्टी की बनी है पर 'श्री-र-गुप्तस्य' अंकित है । इसके अलावा श्रीगुप्त का कोई अभिलेख तथा मुद्रा नहीं मिली है ।

घटोत्कच (300 ई.-310 ई.)

श्रीगुप्त के पश्चात उसका पुत्र घटोत्कच गुप्त वंश का उत्तराधिकारी शासक बनता है । स्कन्दगुप्त के सुपिया (रीवा,मध्यप्रदेश) अभिलेख में गुप्तवंश का प्रथम शासक घटोत्कच को बताया गया है न कि उसके पिता श्रीगुप्त को । रानी प्रभावती गुप्त की वंशावली का उल्लेख करने वाले दो वाकाटक अभिलेखों पूना ताम्रपत्र एवं रिद्धपुर ताम्रपत्र में भी गुप्त वंश का प्रथम शासक घटोत्कच को ही बताया गया है । परन्तु, चूंकि ये अभिलेख गुप्तों के आधिकारिक अभिलेख नहीं है इसीलिए श्रीगुप्त के नाम के विलोपन को अधिक महत्त्व नहीं दिया गया है ।

ऐसा प्रतीत होता है कि यद्दपि इस राजवंश की स्थापना श्रीगुप्त ने की थी परन्तु उसके समय में यह वंश महत्वपूर्ण स्थिति में नहीं था । घटोत्कच के समय में यह वंश महत्वपूर्ण स्थिति में आ गया । क्योंकि गंगा घाटी के क्षेत्रों में इनकी राजनीतिक महत्ता बढ़ गई थी तथा इसी काल मे गुप्तों और लिच्छवियों में मध्य वैवाहिक संबंध स्थापित हो गए थे । इतिहासकार श्री राम गोयल के अनुसार नागवंशी नरेश भवनाग तथा वाकाटक नरेश प्रवरसेन-प्रथम के गठबंधन से गुप्त नरेश घटोत्कच के समक्ष विकट स्थिति उत्पन्न हो गयी थी । इसी संकट से सफलतापूर्वक निपट के लिए घटोत्कच ने लिच्छवियों के साथ वैवाहिक संबंध स्थापित किये । गुप्त नरेश घटोत्कच ने अपने पुत्र चंद्रगुप्त-प्रथम का विवाह लिच्छवि राजकुमारी कुमारदेवी से 305 ई. में किया । इस प्रकार गुप्त और लिच्छवि विवाह सूत्र में बंध गए । सम्भवतः इसीलिए उपर्युक्त अभिलेखों में घटोत्कच को ही गुप्तों का आदि पुरुष बताया गया है ।

घटोत्कच का कोई अभिलेख अथवा मुद्रा नहीं मिली है । घटोत्कच ने महाराज की उपाधि धारण की थी । हालांकि गुप्त काल में इस उपाधि का क्या तात्पर्य क्या था यह कहना कठिन है । क्योंकि गुप्तकाल में यह उपाधि छोटे राजाओं व सामंतों के लिए प्रयोग होने लगी थी । इससे इस बात का इशारा मिलता है कि श्रीगुप्त व घटोत्कच छोटे राजा या सामन्त थे ।

चंद्रगुप्त-प्रथम (319 ई.-350 ई.)

चंद्रगुप्त-प्रथम घटोत्कच का पुत्र तथा गुप्त वंश का वास्तविक शासक था । इसके समय में गुप्तों की शक्ति तथा प्रतिष्ठा में वृद्धि हुई ।

लिच्छवियों के साथ वैवाहिक संबंध

लिच्छवी राजकुमारी कुमारदेवी के साथ विवाह चंद्रगुप्त प्रथम के जीवन की सबसे महत्वपूर्ण घटना थी । गुप्तों व लिच्छवियों के मध्य वैवाहिक संबंधों की पुष्टि दो प्रमाणों से होती है-प्रथम चंद्रगुप्त-कुमारदेवी प्रकार के स्वर्ण सिक्के तथा दूसरा प्रयाग प्रशस्ति में समुद्रगुप्त के लिए प्रयुक्त शब्द 'लिच्छवि दोहित्र' (जिसका तात्पर्य है लिच्छवि दुहिता का पुत्र यानी लिच्छवि पुत्री का पुत्र) ।

चंद्रगुप्त-कुमारदेवी प्रकार के सिक्कों को राजा-रानी प्रकार,विवाह प्रकार, लिच्छवि प्रकार आदि नामों से भी जाना जाता है । यह गुप्त काल के सबसे प्राचीनतम स्वर्ण सिक्कों में से एक है जिसे चंद्रगुप्त प्रथम ने जारी किया था ।
इस विवाह से गुप्तों को राजनीतिक तथा आर्थिक सहायता मिली ।इस विवाह के परिणामस्वरूप गुप्त और लिच्छवि राज्य का एकीकरण हो गया । कुमारदेवी वैशाली के लिच्छवि राज्य की एकमात्र वारिस थी क्योंकि उसके पिता के कोई पुत्र नहीं था । इसीलिए कुमारदेवी के पिता की मृत्यु के पश्चात चंद्रगुप्त प्रथम नें लिच्छवि पर वास्तविक रूप से नियंत्रण स्थापित कर लिया था । कालान्तर में मगध तथा उसके आस-पास के क्षेत्रों चंद्रगुप्त ने अपना प्रभुत्व स्थापित कर लिया था ।
मगध पर अधिकार करने के पश्चात चंद्रगुप्त प्रथम ने वर्त्तमान झारखंड की बहुमूल्य स्वर्ण खानों पर अधिकार कर लिया था ।

इस प्रकार लिच्छवियों के साथ वैवाहिक संबंध बनाकर चंद्रगुप्त प्रथम ने अपने राज्य को राजनीतिक और आर्थिक दृष्टि से सुदृढ़ बना लिया था ।

गुप्त संवत का आरम्भ

चंद्रगुप्त प्रथम को इतिहास में गुप्त संवत के प्रवर्तक के रूप में माना जाता है । उसने अपने राज्यारोहण उपलक्ष में गुप्त संवत का प्रवर्तन किया । स्कंदगुप्त के जूनागढ़ अभिलेख में इसे 'गुप्त प्रकाल' कहा गया है । जे.एफ. फ्लीट के अनुसार गुप्त संवत का प्रचलन 319-320 ई. में हुआ था । अलबरूनी के कथनानुसार शक संवत और गुप्त संवत के मध्य 241 वर्षों का फासला है ( चूँकि शक संवत की शुरुआत 78 ई. में हुई थी इस प्रकार 78 ई.+ 241 वर्ष का अंतर=319 ई.) । इस प्रकार यह माना जाता है कि गुप्त संवत की शुरुआत 319 ई. में हुई थी ।

चंद्रगुप्त प्रथम का साम्राज्य विस्तार

चन्द्रगुप्त प्रथम इस वंश का पहला महान शासक था । चन्द्रगुप्त प्रथम ने 'महाराजाधिराज' की उपाधि धारण की थी जिससे यह प्रमाणित होता है की वह श्रीगुप्त तथा घटोत्चक से भी शक्तिशाली शासक था क्योंकि इन दोनों शासकों ने 'महाराज ' की उपधि धारण की थी जबकि चन्द्रगुप्त प्रथम ने इनसे भी बड़ी उपाधि  'महाराजाधिराज'  धारण की । चन्द्रगुप्त प्रथम ने अपने राज्य की सीमा का विस्तार किया,हालाँकि उसके विजय अभियान का कोई स्पष्ट उल्लेख नहीं मिलता है । वायुपुराण में कहा गया है की ''गुप्तवंश के लोग गंगा किनारे प्रयाग तक तथा साकेत एवं मगध के प्रदेशों में शासन करेंगे'' । अतः यह कहा जा सकता है की चंद्रगुप्त प्रथम का साम्राज्य विस्तार बिहार और उत्तर प्रदेश (प्रयाग तथा साकेत) के क्षेत्रों में फैला था । अपने जीवन के अंतिम समय में उसने अपने पुत्र (चन्द्रगुप्त प्रथम -कुमारदेवी से उत्पन्न पुत्र) को गुप्त साम्राज्य का उत्तराधिकारी नियुक्त किया तथा स्वंय संन्यास ले । इस घटना की जानकारी हमें प्रयाग प्रशस्ति ,एरण अभिलेख तथा रिद्धपुर अभिलेख से मिलती है ।

समुद्रगुप्त (350 ई.-375 ई.)

समुद्रगुप्त गुप्त वंश का सबसे महान शासक था । भारतीय इतिहास में समुद्रगुप्त एक महान विजेता और साम्राज्य निर्माता के रूप में प्रसिद्ध है । उसने गुप्त राज्य की शक्ति और प्रतिष्ठा में वृद्धि की तथा इसे एक साम्राज्य के रूप में परिणत किया । वह कवि, संगीतज्ञ तथा विद्या का संरक्षक था । उसके समय मे गुप्त राज्य की राजनैतिक तथा सांस्कृतिक उन्नति हुई ।

समुद्रगुप्त का राज्यारोहण

प्रयाग प्रशस्ति के चौथे श्लोक में राजसिंहासन के लिए चंद्रगुप्त प्रथम द्वारा समुद्रगुप्त के मनोनयन का विवरण मिलता है । प्रयाग प्रशस्ति के अनुसार चंद्रगुप्त-प्रथम ने अपना उत्तराधिकारी चुनने के लिए मंत्रियों की एक सभा बुलाई । वह समुद्रगुप्त के गुणों से अत्यधिक प्रभावित था तथा उसने भरी सभा मे ही समुद्रगुप्त को गले लगाते हुए यह घोषणा की ''आर्य ! तुम योग्य हो, पृथ्वी का पालन करो ।'' इस घोषणा से सभा मे सभी प्रसन्न हुए परंतु अन्य राजकुमारों को यह बात अच्छी नहीं लगी । हालांकि 'प्रयाग प्रशस्ति', 'आर्य मंजुश्री मूल कल्प', 'सी-यू-की' तथा उत्तर प्रदेश से प्राप्त 'काच' नामक गुप्त शासक के सिक्कों के आधार पर कुछ विद्वानों का मत है कि समुद्रगुप्त को उत्तराधिकारी घोषित पर उसके अन्य भाई उससे नाराज हो गए थे तथा उसे अपने भाइयों के साथ उत्तराधिकार युद्ध भी लड़ना पड़ा था ।

प्रयाग प्रशस्ति

प्रयाग प्रशस्ति नामक लेख का रचियता हरिषेण था जो समुद्रगुप्त का दरबारी कवि था । यह लेख गुप्त शासन की घटनाओं का दर्पण है । गुप्त सम्राट समुद्रगुप्त द्वारा कौशाम्बी से प्रयाग लाये गए अशोक स्तंभ पर इस लेख को खुदवाया गया ।

आर्य मंजुश्री मूल कल्प
यह एक बौद्ध ग्रंथ है । इस ग्रंथ में गुप्तकालीन शासन का विवरण मिलता है ।
सी-यू-की
यह बौद्ध धर्मावलम्बी तथा चीनी यात्री ह्वेनत्सांग का यात्रा विवरण है ।
काच का समीकरण

काच नामक राजा के समीकरण के विषय में विद्वानों में मतभेद है । एलन, स्मिथ तथा फ्लीट आदि विद्वानों का मत है कि काच समुद्रगुप्त का मूल नाम था । एलन का कहना है कि ''काच वस्तुतः समुद्रगुप्त का मौलिक नाम था परंतु बाद में जब उसने अपना अधिकार क्षेत्र समुद्र तक विस्तृत कर लिया तो उसने अपना नाम समुद्रगुप्त रख लिया ।'' ऐसा इसीलिए भी कहा जा सकता है क्योंकि काच व समुद्रगुप्त के सिक्कों तथा उस पर खुदे मुद्रलेखों में गहरी समानता है । सिक्कों पर अंकित उपाधियां तथा आकृतियां समान है । विशेष रुप से दोनों के सिक्कों पर अंकित सर्वराजोच्छेता की उपाधि एक समान है इस उपाधि का तातपर्य है सभी राजाओं का उच्छेदन {विनाश} करने वाला ।

वहीं दूसरी ओर रैप्सन तथा हेरार आदि विद्वानों का मानना है कि काच चंद्रगुप्त प्रथम का बड़ा पुत्र था । बड़ा पुत्र होने के नाते वह गुप्त राज्य का उत्तराधिकारी होता है अतः उसने अपने पिता चंद्रगुप्त प्रथम से सिंहासन प्राप्त कर लिया । परन्तु चंद्रगुप्त प्रथम का झुकाव समुद्रगुप्त की तरफ था अतः उसने भरी सभा में समुद्रगुप्त को अपना उत्तराधिकारी घोषित कर दिया । सम्भवः काच ने इसका विरोध किया हो और दोनों में उत्तराधिकार युद्ध हुआ होगा जिसमें समुद्रगुप्त ने काच को पराजित कर उसकी हत्या कर होगी । तब तक संभवतः काच ने अपने आप को एक संपूर्ण सम्राट कहलवाने के लिए अपने सिक्के मुद्रित करवा लिए हों ।

जो भी हो काच के बारे में कुछ भी अंतिम रूप से कहना मुश्किल है की वह समुद्रगुप्त का बड़ा भाई था या स्वंय समुद्रगुप्त ही काच था । वास्तविकता जो भी हो,परंतु इतना निश्चित है कि यदि उत्तराधिकार युद्ध हुआ भी था तो उसमें समुद्रगुप्त विजय रहा उसने अपने पराक्रम के बल पर अपने विद्रोहियों को शांत करके अपनी स्थिति को सुदृढ़ कर लिया था ।

समुद्रगुप्त का सैन्य अभियान

समुद्रगुप्त के सैन्य अभियानों का सर्वप्रथम विवरण प्रयाग प्रशस्ति में मिलता है । इसमें समुद्रगुप्त के राज्यभिषेक, दिग्विजय अभियान तथा व्यक्तित्व पर विशद प्रकाश डाला गया है । उत्तराधिकार युद्ध को सफलतापूर्वक समाप्त कर राजधानी में अपनी स्थिति को सुदृढ़ किया तथा अपने साम्राज्य का विस्तार करने के लिए उसने दिग्विजय अभियान प्रारम्भ किया ।

इसके अलावा समुद्रगुप्त के एरण पाषाण स्तम्भ अभिलेख, समुद्रगुप्त की मुद्राएं, बौद्ध ग्रंथ आर्य मंजुश्री मूल कल्प तथा कालिदास रचित रघुवंशम आदि स्त्रोतों भी समुद्रगुप्त के सैन्य अभियान की जानकारी मिलती है । प्रयाग प्रशस्ति के अनुसार समुद्रगुप्त के दिग्विजय अभियान का उद्देश्य सम्पूर्ण पृथ्वी को जीतना था । उसने आर्यावर्त(उत्तर प्रदेश) में दिग्विजय का कार्य किया तथा दक्षिणापथ (दक्षिण भारत) में धर्मविजय का कार्य किया । आर्यावर्त में दिग्विजय अभियान के फलस्वरूप समुद्रगुप्त की सत्ता गंगा-जमुना दोआब क्षेत्रों तक दृढ़तापूर्वक स्थापित हो गई थी । दक्षिणापथ में धर्मविजय के फलस्वरूप दक्षिण भारत के राज्यों ने समुद्रगुप्त की सार्वभौमिकता स्वीकार ली थी अतः ये राज्य समुद्रगुप्त के अधीन शासन करते रहे ।

आइए दोस्तों ,ऐतिहासिक स्त्रोतों से जो जानकारी प्राप्त होती है उसके आधार पर समुद्रगुप्त के सैन्य अभियानों के बारे में विस्तार से जानते हैं-

आर्यावर्त (उत्तर भारत) की विजय

समुद्रगुप्त ने आर्यवर्त (हिमालय से विंध्याचल तक तथा पूर्वी समुद्र से पश्चिमी समुद्र तक का भू-भाग) पर दो बार आक्रमण किये । प्रथम आक्रमण का उल्लेख प्रयाग प्रशस्ति की 13 वीं तथा 14वीं पंक्ति में मिलता है । इस युद्ध मे समुद्रगुप्त ने 4 शासकों को पराजित किया । ये चार शासक थे- 1. नागवंशी शासक अच्युत जो अहिच्छत्र (जिला बरेली,उत्तर प्रदेश) का शासक था, 2. पद्मावती शासक नागसेन (पदमपवैया, ग्वालियर मध्यप्रदेश), 3. गणपति नाग (मथुरा उत्तर प्रदेश) तथा 4. कोट राजवंश का शासक (दिल्ली व पूर्वी पंजाब) ।

द्वितीय आक्रमण का उल्लेख प्रयाग प्रशस्ति की 21वीं पंक्ति में मिलता है । इस युद्ध में समुद्रगुप्त ने कुल 9 शासकों को पराजित किया । ये 9 शासक थे- 1. कोशाम्बी के वाकाटक नरेश रुद्रदेव अथवा रुद्रसेन प्रथम, 2. मत्तिल (बुलंदशहर शासक), 3. नागदत्त(पुंड्रवर्धन,बंगाल का शासक), 4. चन्द्रवर्मन (जिला बांकुड़ा, पश्चिम बंगाल का क्षेत्रीय शासक), 5. गणपतिनाग (मथुरा ,उत्तर प्रदेश का शासक), 6. नागसेन (पद्मावती,उत्तर प्रदेश), 7. अच्युत(अहिच्छत्र, उत्तर प्रदेश) ,नन्दी व बलवर्मन ।

ऐसा प्रतीत होता है कि समुद्रगुप्त ने आर्यावर्त के प्रथम युद्ध में इन चार शासकों का उन्मूलन नहीं किया था बल्कि उन्हें पराजित कर अपने अधीन सामन्त के रूप में शासन करने की शर्त पर छोड़ दिया था । लेकिन कुछ समय पश्चात संभवतः नागसेन, अच्युत तथा अन्य दो शासकों ने विद्रोह कर दिया होगा तब समुद्रगुप्त ने आर्यावर्त के दूसरे युद्ध में इन राज्यों का समूल नाश कर दिया । इस नीति को प्रयाग प्रशस्ति में 'प्रसभोद्धरण ओदवृत' नीति यानी हिंसात्मक ढंग से मिटाने की नीति कहा गया है । इस प्रकार समुद्रगुप्त ने उत्तर भारत के सभी राजाओं का विनाश कर उनके राज्यों को अपने साम्राज्य में मिला लिया था ।

दक्षिणापथ(दक्षिण भारत) अभियान

प्रयाग प्रशस्ति की 19वीं तथा 20वीं पंक्ति में समुद्रगुप्त के दक्षिणापथ(विंध्याचल पर्वत से कृष्णा-तुंगभद्रा नदियों के बीच का प्रदेश) अभियान का उल्लेख मिलता है । इस अभियान में समुद्रगुप्त ने दक्षिण भारत के 12 राज्यों के शासकों को पराजित किया था । ये 12 शासक थे- 1. महेंद्र (कोसल), 2. व्याघ्रराज (महाकालान्तर), 3. महेन्द्रगिरि (पिष्टपुर), 4. मन्तराज (कौराल), 5. स्वामीदत्त(कोट्टुर), 6. दमन (एरण्डपल्ल), 7. विष्णुगोप (कांची), 8. नीलराज(अवमुक्त), 9. हस्तिवर्मा(वेंगी), 10. उग्रसेन (पालक्क), 11. कुबेर (देवराष्ट्र), 12. धनंजय(कुस्थलपुर) ।

समुद्रगुप्त ने अपनी उत्तर भारत की प्रसभोद्धरण नीति के प्रतिकूल दक्षिण में ग्रहणमोक्षानुग्रह की नीति अपनाई । ग्रहणमोक्षानुग्रह का तात्पर्य है ग्रहण, मोक्ष और अनुग्रह की नीति । ग्रहण का तात्पर्य है शत्रु पर अधिकार करना, मोक्ष का तात्पर्य है शत्रु को मुक्त करना तथा अनुग्रह का तात्पर्य है शत्रु पर दया कर उसे राज्य वापिस लौटा देना । समुद्रगुप्त के दक्षिणापथ अभियान का तात्पर्य दक्षिण भारत के राज्यों को मात्र पराजित कर अपने यश को बढ़ाना था न कि साम्रज्य विस्तार । उसने सभी विजित राज्य वापिस लौटा दिए ।

आटविक विजय

प्रयाग प्रशस्ति की 21 वीं पंक्ति में समुद्रगुप्त द्वारा आटविक जाती या जंगली जाती के शासक को पराजित किये जाने का उल्लेख मिलता है जिसका राज्य मथुरा से नर्मदा तक के जंगलों में फैला था । समुद्रगुप्त ने इस राज्य के साथ 'परिचारकीकृत' नीति अपनाई जिसका तात्पर्य है परिचारक/भृत्य बनाने की नीति । उत्तर तथा दक्षिण भारत के आवागमन को सुरक्षित रखने के लिए आटविक राज्य पर नियंत्रण आवश्यक था । समुद्रगुप्त के दक्षिणापथ अभियान के दौरान इस राज्य ने रास्ते में काफी रुकावटें पैदा की थीं । अतः समुद्रगुप्त ने इस राज्य को जीतकर अपना सेवक बनाया ।

सीमावर्ती(प्रत्यन्त) राज्यों में विरुद्ध अभियान

समुद्रगुप्त का सीमावर्ती राज्यों के विरुद्ध अभियान का उल्लेख प्रयाग प्रशस्ति की 22वीं पंक्ति में मिलता है । प्रत्यन्त राज्य दो प्रकार के थे - राजतंत्र राज्य तथा गणतंत्र राज्य । राजतंत्र राज्यों के नाम - 1. समतट (समुद्रतटीय प्रदेश,बांग्लादेश), 2. डवाक(डबोक, नौगांव जिला,आसाम), 3. कर्तपुर (कार्त्तरपुर,जालंधर, पंजाब), 4. कामरूप(आसाम का केन्द्रीय भाग), 5. नेपाल थे ।

वहीँ गंणतंत्र राज्यों के नाम - 1. मालव (मंदसौर), 2. अर्जुनायन (आगरा-जयपुर का क्षेत्र), 3. यौधेय (सतलुज नदी का तटवर्ती भाग), 4. मद्रक (रावी-चेनाब नदी का दोआब), 5. प्रार्जुन(नरसिंहपुर जिला,मध्यप्रदेश),6. सनकानिक (भिलसा), 7. काक( काकपुर,भिलसा से 32 किमी. उत्तर में स्थित है), 8. खरपीरक(दमोह,मध्यप्रदेश) थे ।

समुद्रगुप्त ने प्रत्यन्त राज्यों के साथ सर्वकरदानाज्ञाकरण-प्रणामागमन नीति अपनाई । सर्वकरदान-सभी प्रकार के करों में दान की नीति, आज्ञाकरण-आज्ञा मानने की नीति तथा प्रणामागमन-विशिष्ट अवसरों पर सम्राट को प्रणाम करने के लिए दरबार में आने की नीति ।

विदेशी शासकों से संबंध

प्रयाग प्रशस्ति की 23वीं तथा 24वीं पंक्ति में समुद्रगुप्त का शासकों से संबंधों का उल्लेख मिलता है । समुद्रगुप्त की निरन्तर विजयों से भयभीत होकर विदेशी शासकों ने समुद्रगुप्त से मैत्री की याचना की । इन विदेशी शासकों में देवपुत्र शाहिशाहानुशाही( पेशावर का कुषाण नरेश किदार), शकमुरुण्ड( पश्चिमी मालवा, गुजरात व काठियावाड़ का शक नरेश रूद्रसिंह-तृतिय) व सिंहल(श्रीलंका शासक,मेघवर्मन) थे ।

समुद्रगुप्त ने इन विदेशी राज्यों के प्रति आत्मनिवेदनकन्यो-पायनगरूत्मदंकस्वविषयभुक्तिशासनयाचना की नीति अपनाई । आत्मनिवेदन-स्वंय को सम्राट की सेवा में उपस्थित रखने की नीति, कन्योपायन-अपनी पुत्रियों का गुप्त राजघराने में विवाह करने की नीति, गरूत्मदंकस्वविषयभुक्तिशासनयाचना- अपने विषय या भुक्ति के लिए गरुड़ मुद्रा में अंकित राजाज्ञा/शासनादेश प्राप्ति के लिए प्रार्थना करना । प्रयाग प्रशस्ति में ऐसा उल्लेख मिलता है कि सिंहल द्वीप के अतिरिक्त दक्षिण-पूर्वी एशिया के जावा, सुमात्रा तथा मलाया द्वीप के शासकों ने भी समुद्रगुप्त की अधीनता स्वीकार कर ली थी ।

समुद्रगुप्त का साम्राज्य विस्तार

अपनी विजयों द्वारा समुद्रगुप्त में एक विशाल साम्राज्य की स्थापना की थी । समुद्रगुप्त के सीधे शासन के अन्तर्गत उत्तर में हिमालय की तराई से लेकर दक्षिण में मध्यप्रदेश के सागर जिले के रण तक तथा पूर्व में पूर्वी बंगाल व आसाम से लेकर पश्चिम में पंजाब तक के क्षेत्र शामिल थे जो एक विस्तृत साम्राज्य था । दक्षिणापथ तथा पूर्वोत्तर भारत की विदेशी शक्तियों ने समुद्रगुप्त की अधीनता स्वीकार कर ली थी । इस प्रकार समुद्रगुप्त को जो राज्य अपने पिता चंद्रगुप्त- प्रथम से उत्तराधिकार में मिला था उसे एक विशाल साम्राज्य में परिणत कर दिया ।

प्रयाग प्रशस्ति के अनुसार गुप्तकाल के प्रशासनिक पद तथा पदाधिकारीयों के नाम-

  1. संधिविग्रहिक- यह संधि व युद्ध मंत्री का पद था । समुद्रगुप्त के समय इस पद पर हरिषेण आसीन था जो समुद्रगुप्त का दरबारी कवि और प्रयाग प्रशस्ति का रचियता था ।
  2. खाद्यटपाकिक - यह राजकीय भोजनशाला का प्रधान कहलाता था । समुद्रगुप्त के समय इस पद पर ध्रुवश्री था ।
  3. महादण्डनायक- यह पुलिस विभाग का प्रधान तथा फौजदारी का न्यायधीश था । इस पद का स्वामी भी हरिषेण ही था ।
  4. कुमारामात्य- इस पद के अंतर्गत उच्च श्रेणी के पदाधिकारी आते थे जो अपनी शिक्षा व योग्यता के बल पर इन पदों को प्राप्त करते थे जैसे-मंत्री, सेनापति व राज्यपाल आदि । यही कारण है कि गुप्त लेखों में सामान्य पदों में भी 'कुमारामात्य' शब्द का प्रयोग मिलता है ।

अश्वमेध यज्ञ

समुद्रगुप्त ने अपने विजय अभियान की समाप्ति के बाद अश्वमेध यज्ञ किया था । हालांकि प्रयाग प्रशस्ति में उल्लेख नहीं मिलता है क्योंकि ऐसा प्रतीत होता है कि समुद्रगुप्त के अश्वमेध यज्ञ करने से पहले प्रयाग प्रशस्ति लिखी जा चुकी थी । लेकिन समुद्रगुप्त के भीतरी लेखों में उसे चिरकाल से अश्वमेध यज्ञ करने वाला कहा गया है । इसके अलावा समुद्रगुप्त के अश्वमेध प्रकार के सिक्कों से भी इस बात की पुष्टि होती है कि उसने अश्वमेध किया था ।

समुद्रगुप्त का मूल्यांकन

लेखों व अभिलेखों के अलावा समुद्रगुप्त के अनेकों प्रकार के सिक्के प्राप्त हुए हैं जो उसकी उपलब्धियों का भली भांति बखान करती है । समुद्रगुप्त ने अनेकों उपलब्धियां हासिल कीं जिसके आधार पर यह कहा जा सकता है कि वह एक सफल सेनानायक, साम्राज्य निर्माता,दूरदर्शी राजनीतिज्ञ,भारत में राजनीतिक एकता स्थापित करने वाला, प्रजावत्सल ,धर्मसहिषणु,कवियों व विद्वानों का संरक्षक था । समुद्रगुप्त की समान्य उपाधि पराक्रम थी जो उसके शासन के अंतिम वर्षों में परिवर्तित होकर विक्रम हो गयी (जैसा की उसके सिक्कों पर अंकित श्रीविक्रम से स्पष्ट होता है) । इसके बाद के शासकों ने भी विक्रम व विक्रमादित्य की उपाधियां धारण की । शायद इसीलिए गुप्तकाल को 'विक्रमदित्यों का काल' भी कहा जाता है ।

समुद्रगुप्त की वीरता युद्ध कौशल को देखते हुए उसे 'भारत का नेपोलियन' भी कहा जाता है । समुद्रगुप्त के एरण स्तम्भलेख में समुद्रगुप्त की पत्नी का नाम दत्ता देवी मिलता है ।समुद्रगुप्त एक धर्मनिष्ठ शासक था तथा उसने हमेशा वैदिक धर्म के अनुसार शासन किया । वह गरुड़वाहन विष्णु का भक्त था । उसने ब्राह्मणों को अनेकों गायें व स्वर्ण दान दिये । उसने प्रसिद्ध बौद्ध विद्वान वसबन्धु को मंत्री बनाकर अपने दरबार में जगह दी । चीनी स्त्रोतों के अनुसार श्रीलंका के शासक मेघवर्मन/मेघवर्ण (352 ई.-379 ई.) ने श्रीलंका के तीर्थयात्रियों के लिए गया में एक विहार बनाने हेतु समुद्रगुप्त (सन-मओऊ-तो-लो-किउ-तो) से अनुमति प्राप्त करने के लिए एक दूत दरबार में भेजा था ।

रामगुप्त(375 ई.)

हालांकि समुद्रगुप्त के इतिहास को लेकर विद्वानों में मतभेद है । लेकिन सामान्यतः यह माना जाने लगा कि समुद्रगुप्त के बाद उसका ज्येष्ठ पुत्र रामगुप्त कुछ समय के लिए गुप्त राजगद्दी पर बैठा था । इस बात का उल्लेख विशाखदत्त के 'देवीचंद्रगुप्तम' नाटक में मिलता है । हालांकि यह नाटक मूल रूप से उपलब्ध नहीं है परन्तु इस नाटक के अंश रामचंद्र व गुणचंद्र की रचना 'नाट्य दर्पण' में मिलता है ।

देवीचंद्रगुप्तम की कहानी

विशाखदत्त के 'देवीचंद्रगुप्तम' नामक नाटक के अनुसार समुद्रगुप्त के दो पुत्र थे-रामगुप्त और समुद्रगुप्त । रामगुप्त ज्येष्ठ पुत्र था इसलिए वह गुप्त वंश का शासक बनता है । लेकिन वह एक कायर और क्लीव शासक था । उसके काल मे शकों ने गुप्त साम्राज्य पर आक्रमण कर दिया । इस युद्ध में रामगुप्त पराजित होता है ओर से शकों से एक अपमानजनक सन्धि करनी पड़ती है । सन्धि की शर्तों के अनुसार रामगुप्त को अपनी पत्नी ध्रुवदेवी(ध्रुवस्वामिनी) को शक राजा को सौंपनी होती है । जब कोई उपाय नहीं सूझता है तो रामगुप्त सन्धि की इस शर्त को स्वीकार कर लेता है । रामगुप्त का छोटा भाई चंद्रगुप्त स्वभाव से बड़ा ही वीर और स्वाभिमानी था । अपने कुल की मर्यादा के विपरीत चंद्रगुप्त को यह शर्त मंजूर नहीं थी । उसने यह प्रस्ताव रखा कि ध्रुवदेवी के भेष में उसे शकराज के शिविर में भेजा जाये । चंद्रगुप्त का प्रस्ताव मान लिया जाता है जिसके फलस्वरूप उसने छह्नवेश में जाकर शकपति की हत्या कर दी । इस कार्य से चंद्रगुप्त की लोकप्रियता बढ़ गई ओर रामगुप्त निंदा का पात्र बन गया । अपनी इस लोकप्रियता का लाभ उठाकर उसने अपने भाई रामगुप्त की हत्या कर दी तथा गुप्त साम्राज्य की गद्दी पर अधिकार कर लिया और ध्रुवदेवी से विवाह कर लिया ।

अनेक विद्वानों ने इस घटना को काल्पनिक माना है । हालांकि गुप्त लेखों में इस घटना का उल्लेख कहीं भी नहीं है । इसका कारण यह भी हो सकता है कि यह गुप्त वंश के लिए कोई गौरवमयी घटना नहीं थी । लेकिन इसका उल्लेख अनेकों परवर्ती स्त्रोतों में मिलता है जैसे बाणभट्ट की रचना हर्षचरित, राजशेखर की काव्यमीमांसा, भोज की रचना श्रृंगारप्रकाश, शंकराचार्य कृत हर्षचरित की टीका, अबुल हसन अली की मुजलम-उत-तवारीख , राष्ट्रकूट अमोघवर्ष का संजान ताम्रपत्र, रामगुप्त की एरण व भिलसा से प्राप्त ताम्र मुद्राएँ आदि।

इसीलिये प्राप्त साक्ष्यों के आधार पर यह कहा जा सकता है कि समुद्रगुप्त के बाद उसका पुत्र अल्पसमय के लिए गुप्त साम्राज्य का राजा बना था । बेसनगर(विदिशा) के पास स्थित दुर्जनपुर से प्राप्त जैन मूर्तिलेख के अनुुुसार ऐसा प्रतीत होता है कि रामगुप्त जैन धर्मावलंबी था ।

दोस्तों गुप्त वंश का इतिहास बहुत बड़ा है ।हमारे लिए यह बहुत मुश्किल है कि हम इस इतिहास को एक पेज में पूरा कर पाएं । जैसा की हमने ऊपर बताया कि रामगुप्त के बाद उसका बड़ा भाई चन्द्रगुप्त गुप्त साम्राज्य की गद्दी को संभालता है जिसे इतिहास में 'चंद्रगुप्त द्वित्य' अथवा 'विक्रमादित्य' के नाम से जाना जाता है ।हम जल्दी ही 'गुप्त वंश का इतिहास (भाग-2)' लेकर आएंगे जो इससे आगे के गुप्त वंश के इतिहास की जानकारी देगा यानी जो चन्द्रगुप्त द्वित्य से शुरू होगा ।

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