History of Gupta Dynasty ~ गुप्तवंश का इतिहास (भाग-3) ~ Ancient India

History of Gupta Dynasty ~ गुप्तवंश का इतिहास (भाग-3)

दोस्तों गुप्त वंश का इतिहास के भाग-2 में आपने पढ़ा चंद्रगुप्त द्वितीय यानी विक्रमादित्य के बारे में । इसी श्रंखला के भाग-3 में अगले शासक कुमारगुप्त प्रथम यानी महेन्द्रादित्य के बारे में जानकारी दी जायेगी । यदि आपने पिछले भागों को नहीं पढ़ा है तो आप नीचे दिए गए लिंक से उस पेज पर जा सकते हैं ।

कुमारगुप्त-। 'महेन्द्रादित्य':415-455 ई.

चन्द्रगुप्त-।। के पश्चात कौन गुप्त वंश का शासक बना था -यह एक विवादास्पद प्रश्न है । कुछ इतिहासकार बसाढ़(वैशाली) मुहर और मंदसौर अभिलेख के आधार पर गोविन्दगुप्त को चन्द्रगुप्त-।। का उत्तराधिकारी मानते हैं । परन्तु प्रमुख वंशावलियों के आधार पर कुछ इतिहासकारों का मानना है कि कुमारगुप्त-। , चन्द्रगुप्त-।। का उत्तराधिकारी बना । चन्द्रगुप्त-।। का कनिष्ठ पुत्र गोविंदगुप्त वैशाली का स्थानीय शासक था जहाँ से उसकी माँ ध्रुवदेवी की मिट्टी की बनी मुहरों पर गोविंदगुप्त का नाम अंकित मिला है ।

सामान्य तौर पर यह माना जाता है कि चन्द्रगुप्त-।। के बाद उसका ज्येष्ठ पुत्र कुमारगुप्त-। गुप्त राज्य का उत्तराधिकारी बना । कुमारगुप्त-। ने कुल 40 वर्षों तक शासन किया । हालांकि उसके द्वारा किसी महत्वपूर्ण विजय का उल्लेख नहीं मिलता है तथापि उसके शासन काल का महत्त्व इस बात से अधिक है कि उसने पिता द्वारा प्राप्त विशाल साम्राज्य को अक्षुण्ण बनाये रखा तथा राज्य में शांति व्यवस्था को कायम रखा । कुमारगुप्त-। द्वारा स्थापित सुव्यवस्थित शासन का वर्णन मंदसौर अभिलेख में काव्यात्मक शब्दों में मिलता है' कुमारगुप्त एक ऐसी पृथ्वी पर शासन करता था जो चारों ओर समुन्द्रों से घिरी थी, सुमेरु एवं कैलाश पर्वत जिसके वृहत पयोधर के समान थे ,सुन्दर वाटिकाओं में खिले पुष्प जिसकी हंसी के समान थे ।'

कुमारगुप्त-। के अभिलेख

अब तक कुमारगुप्त-। के कुल 18 अभिलेख प्राप्त हुए हैं । इतने अभिलेख किसी ओर गुप्त शासक के प्राप्त नहीं हुए हैं । हालांकि इन अभिलेखों से देश के राजनीतिक इतिहास जानकारी की अधिक जानकारी नहीं मिलती है । कुमारगुप्त-। के प्रमुख अभिलेख निम्नलिखित हैं-

1.बिलसद अभिलेख (415 ई.) - यह अभिलेख एटा जिला ,उत्तर प्रदेश से प्राप्त हुआ है । यह अभिलेख कुमारगुप्त-। का पहला अभिलेख है जिसमें गुप्तों की वंशावली का उल्लेख मिलता है ।

2. गढ़वा शिलालेख (417 ई.)-उत्तर प्रदेश के इलाहाबाद जिले से दो शिलालेख प्राप्त हुए हैं जिनमें दानगृहों को क्रमशः 10 और 12 दीनारें दान दिये जाने का वर्णन मिलता है ।

3.उदयगिरि गुहालेख (425 ई.)-यह अभिलेख जिला विदिशा, मध्य प्रदेश से प्राप्त हुआ है जिसमें शंकर द्वारा उदयगिरि पर्वत में पार्श्र्वनाथ की प्रतिमा स्थापित किये जाने का उल्लेख मिलता है ।

4.तुमैन अभिलेख (435 ई.)-यह अभिलेख मध्यप्रदेश के ग्वालियर जिले से प्राप्त हुआ है । इस अभिलेख में कुमारगुप्त को 'शरदकालीन सूर्य की भांति ' बताया गया है ।

5.करमदंडा अभिलेख (436 ई.)-उत्तर प्रदेश के फैजाबाद में एक प्राचीन शिव की प्रतिमा प्राप्त हुई है । इस प्रतिमा के अधिभाग पर एक लेख उत्कीर्ण है । इस प्रतिमा का निर्माण कुमारगुप्त के मंत्री पृथिवीषेन(पृथवीसेन) ने करवाया था ।

6.मनकुँवर अभिलेख (448 ई.)-यह अभिलेख इलाहाबाद जिले से प्राप्त हुआ है । यह अभिलेख बुद्ध की प्रतिमा के निचले भाग में उत्कीर्ण है ।

7.साँची अभिलेख (450 ई.)-यह अभिलेख रायसेन जिला, मध्यप्रदेश से प्राप्त हुआ है । इस अभिलेख में हरिस्वामी द्वारा साँची के आर्य संघ को धन दीये जाने का उल्लेख है ।

8.मथुरा अभिलेख (454 ई.)-यह अभिलेख मथुरा जिले से प्राप्त हुआ है । यह अभिलेख बुद्ध की प्रतिमा के निचले भाग पर अंकित है ,इस पर धर्मचक्र भी अंकित मिला है ।

9.मंदसौर अभिलेख (472 ई.)-यह अभिलेख मंदसौर(दशपुर),मध्यप्रदेश से प्राप्त हुआ है । इस अभिलेख को प्रशस्तिपरक अभिलेख के नाम से भी जाना जाता है । इस अभिलेख की रचना वत्सभट्टि ने की थी । इस अभिलेख में बन्धुवर्मा द्वारा सूर्य मंदिर के निर्माण का उल्लेख मिलता है जो कुमारगुप्त के मालवा क्षेत्र का राज्यपाल था ।

10.धनदेह ताम्रपत्र (432 ई.)-यह अभिलेख राजशाही जिला,बांग्लादेश से प्राप्त हुआ है । इस अभिलेख में कुमारगुप्त को ' परमभट्टारक महाराजाधिराज परमदैवत ' कहा गया है तथा वाराहस्वामिन नामक ब्राह्मण को भूमि दान दिए जाने का उल्लेख मिलता है ।

11.दामोदरपुर ताम्रपत्र (443 ई.-448 ई.)-बांग्लादेश के दीनाजपुर में दो ताम्रपत्र प्राप्त हुए हैं जिनमें कुमारगुप्त की शासन व्यवस्था पर प्रकाश डाला गया है ।

12.वैग्राम ताम्रपत्र (447 ई.)-यह अभिलेख बोगरा जिला,बांग्लादेश से प्राप्त हुआ है । इस अभिलेख में गोविन्दस्वामिन के मंदिर के निर्वाह के लिए भूमि दान दिये जाने का उल्लेख मिलता है ।

कुमारगुप्त-। की मुद्रा

कुमारगुप्त-। ने सोने,चांदी व तांबे के सिक्के चलवाये । उसकी स्वर्ण मुद्राएं खड़गधारी, गजारोहि, सिंहनिहंता, खंग(गैंडा) निहंता,कार्तिकेय व अप्रतिघ(अजेय) प्रकार की थीं । कार्तिकेय प्रकार की मुद्राओं के मुख भाग पर मयूर को खिलाते हुए राजा की आकृति तथा पृष्ठ भाग पर मोर पर आसीन कार्तिकेय का चित्र अंकित है । कुमारगुप्त की मुद्राओं पर उसकी उपाधियां अंकित है जैसे- महेन्द्रादित्य, श्रीमहेंन्द्र, महेन्द्रसिंह तथा अश्वमेधमहेन्द्र आदि ।

महाराष्ट्र के सतारा जिले के समन्द में कुमारगुप्त-। के 1395 चांदी के सिक्कों का भंडार मिला है ,इसी प्रकार बरार जिला अलिचपुर से 13 सिक्के प्राप्त हुए हैं । इन सिक्कों के आधार पर यह कहा जा सकता है कि ये क्षेत्र कुमारगुप्त-। के प्रभाव क्षेत्र में था । खंगनिहंता प्रकार के सिक्कों के आधार पर कुछ विद्वानों का मत है कि कुमारगुप्त-। ने आसाम पर विजय प्राप्त कर ली थी क्योंकि खंग यानी गैंडे आसाम में ही पाये जाते हैं । हालांकि ये मत प्रमाणक कम अनुमानक अधिक हैं इसलिए सामान्यतः इन मतों को स्वीकार नहीं किया जा सकता है ।

पुष्यमित्र जाती का आक्रमण

कुमारगुप्त-। का प्रारंभिक वर्षों का शासन शांतिपूर्ण रूप से चलता है परंतु अंतिम समय में गुप्त साम्राज्य पर संकट में बादल मंडराने लगे । इसका प्रमाण उसके पुत्र स्कंदगुप्त के भीतरी अभिलेख से मिलता है । इस अभिलेख में पुष्यमित्र के आक्रमण का वर्णन मिलता है । पुष्यमित्र का सामना करने के लिए कुमारगुप्त-। ने अपने योग्य पुत्र स्कंदगुप्त को भेजा था । युद्ध करते हुए स्कंदगुप्त को काफी कठिनाइयों का सामना करना पड़ा । यहां तक कि उसे पूरी रात खुली धरती पर गुजारनी पड़ी । परंतु अंत मे वह पुष्यमित्रों को पराजित करने में सफल रहा । 'वायुपुराण' तथा जैन साहित्यों के अनुसार पुष्यमित्र जाती नर्मदा नदी के मुहाने के समीप मेकल में शासन करती थी । पुष्यमित्र जाती पर स्कंदगुप्त की सफलता की सूचना मिलने से पहले ही वृद्ध सम्राट कुमारगुप्त-। का निधन हो गया ।

कुमारगुप्त-। का धर्म

कुमारगुप्त-। वैष्णव धर्मावलम्बी था । गढ़वा शिलालेख में उसे ' परमभागवत' कहा गया है । परंतु कुमारगुप्त-। अन्य धर्मों के प्रति भी सहिष्णु था । इसके शासनकाल में नालंदा में बौद्ध महाविहार की गई थी । ह्वैंनत्सांग के विवरण के अनुसार इस विहार का संस्थापक 'शक्रादित्य' (अर्थात कुमारगुप्त-।) था ।

इस प्रकार कहा जा सकता है कि कुमारगुप्त-। का शासन शांत एवं सुव्यवस्थित था । जो साम्राज्य उसने विरासत में पाया था उसे संगठित और सुव्यवस्थित बनाये रखा । हालांकि उसने कोई विजय प्राप्त नहीं कि परंतु उसने गुप्तों की सैन्य शक्ति को क्षीण भी नहीं होने दिया । उसने अपने शासन के अंतिम वर्षों में पुष्यमित्रों को बुरी तरह परास्त किया था । यह कुमारगुप्त-। के लिए बड़े ही गौरव की बात की इतना विशाल साम्राज्य (उत्तर में हिमालय से लेकर दक्षिण में नर्मदा तक तथा पूर्व में बंगाल की खाड़ी से लेकर अरब सागर तक विस्तृत साम्राज्य) होते हुए भी उसने गुप्त साम्राज्य तथा सैन्य शक्ति को कायम बनाए रखा ।

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