नमस्कार दोस्तों,स्वागत है आपका इतिहास के हिंदी ब्लॉग पर । इस ब्लॉग पर आपको इतिहास की क्रमवार जानकारी मिलेगी । दोस्तों लगभग 1000 ई. के आस-पास चोल साम्राज्य की समाप्ति के पश्चात प्राचीन युग समाप्त होता है और मध्यकालीन युग की शुरुआत होती है ।लेकिन भारत में अरबों के आक्रमणों के साथ ही लगभग 600 ई. से मध्यकाल की अवधारणाएं बननी शुरू हो गयी थी ।इस समय भारत में अरबों तथा तुर्कों ने आक्रमण किया जिनका मुख्य उद्देश्य लूटपाट करना था न कि शासन करना।ये मुस्लिम आक्रांता भारत से अपार धन-सम्पदा लूट कर ले गए ।दोस्तों आज में आपको जानकारी दूंगा इस्लाम धर्म के उदय की ।मध्यकालीन भारत के इतिहास की बेहतर जानकारी के लिए आपको ये जानना बहुत जरुरी है की ये मुस्लमान कौन थे जिन्होंने भारतवर्ष पर आक्रमण किया तथा 'सोने की चिड़िया' कहे जाने वाले इस देश को लूट लिया ।
इस्लाम धर्म का उदय(The rise of Islam religion)
इस्लाम का उदय 7 वीं शताब्दी में अरब प्रायद्वीप में हुआ ।इस्लाम का अर्थ होता है-विनम्रता / पवित्रता / शक्ति में प्रवेश करना तथा इस्लाम धर्म के अनुयायियों को मुसलमान कहा जाता है ।मुसलमान दो शब्दों से मिलकर बनता है मुसल्लम +ईमान= मुसलमान जिसका मतलब होता है जो ईमान का पुख्ता होना ।
पैगंबर मोहम्मद अब्दुला
इस्लाम धर्म के प्रवर्तक पैगंबर मोहम्मद अब्दुला थे ।पैगम्बर का जन्म 8 जून,570 ई. में अरब क्षेत्र के मक्का नामक स्थान पर हुआ जो यहूदियों तथा ईसाईयों का व्यापारिक केंद्र था ।वे कुरैश जनजाति तथा बानू हाशिम वंश से सम्बन्ध रखते थे ।मोहम्मद साहब के पिता का नाम अब्दुल्ला, माता का नाम अमिना,चाचा का नाम अबुतालिब,दादा का नाम अलमुत्तल्लिब ,पत्नी का नाम खादिजा बेगम ,पुत्री का नाम फातिमा तथा दामाद का नाम हजरत अली था ।अपने चाचा के कहने पर पैगम्बर मोहम्मद ने खादिजा नामक एक विधवा स्त्री के यहाँ नौकरी कर ली तथा बाद में इस औरत के साथ उन्होंने शादी कर ली ।इन दोनों से एक पुत्री होती है जिसका नाम फ़ातिमा रखा गया तथा जिसकी शादी अली से कर दी जाती है ।
मक्का में रहते हुए ही उन्होंने यहूदियों तथा ईसाईयों के धर्म के बारे में जानकारी प्राप्त की और एक वैकल्पिक धर्म का विचार किया ।इसके पश्चात उन्होंने हिरा पहाड़ी की गुफा में एकांतवास शुरू कर दिया और आध्यात्मिक चिंतन में लीन हो गए । 610 ई. में यहीं इसी गुफा में मोहम्मद को एक देवदूत अनुभूति हुई जो यह सन्देश लेकर आया था कि उन्हें ईश्वर ने अपने दूत के रूप में चुना है ।इस अनुभूति का संकलन (देवदूत की वाणी) कुरान में मिलता है । 610 ई. में ज्ञान प्राप्ति के बाद उन्होंने उपदेश देना प्रारम्भ किया जिन्हें हदीस कहा जाता है ।उन्होंने मूर्ति पूजा तथा धर्म से जुड़ी कुरीतियों का विरोध किया ।ऐसा माना जाता है कि यहीं से इस्लाम धर्म की नीवं रखी गयी । परन्तु अपने उपदेशों और शिक्षाओं के कारण मक्का के समृद्ध व्यक्ति और कुरैश जनजाति के लोग इनके दुश्मन बन गए फलस्वरूप इन्हें मक्का छोड़कर सौर पर्वत की शरण लेनी पड़ी तथा खतरा अधिक बढ़ते देख 622 ई. में वे मदीना चले गए जहां मोहम्मद साहब के अनुयायी(अंसार) रहते थे। मक्का से मदीना तक के इस स्थानांतरण को हिजरत कहा जाता है इस प्रकार उन्होंने 623 ई. में हिजरी(हिज्र)संवत की स्थापना की ।पैगम्बर मोहम्मद के अनुयायियों तथा कुरैश जनजाति के बीच 623 ई. में बद्र का युद्ध 627 ई. में उहूद का युद्ध होता है जिसमे कुरैश जनजाति की पराजय होती है और उन्हें पैगम्बर की अधीनता स्वीकार करनी पड़ती है ।इसके पश्चात् 630 ई. में पैगम्बर मोहम्मद पुनः मक्का लौट आते हैं यहाँ वे इस्लाम के पहले व्यक्ति तथा रसूल (देवदूत ) के रूप में स्थापित होते हैं ।
यहाँ आकर पैगम्बर मोहम्मद ने मक्का में स्थापित 360 मूर्तियों की पूजा बंद करवा दी तथा पुरानी धार्मिक परम्पराओं को बंद करवा दिया ।इसके पश्चात उन्होंने काबा(मक्का में स्थित एक स्थान)की तरफ मुख करके नमाज पढ़ने,उम्माह (आस्थावान मुसलमान) तथा जिहाद (धर्म की रक्षा के लिए युद्ध करना) आदि परम्पराओं की शुरुआत की।यहीं से अरब राष्ट्रवाद की शुरुआत होती है जो इस्लाम धर्म पर आधारित था ।हालांकि शुरुआत में यह एक धार्मिक विचारधारा धर्म के रूप में था लेकिन धीरे-धीरे इसने एक धर्म का रूप ले लिया । शीघ ही इस धर्म का उत्तरी अफ्रीका से लेकर अरब प्रायद्वीप तक तथा ईरान से लेकर भारत तक विस्तार हो गया ।जुन 632 ई. में पैगम्बर मोहम्मद की मृत्यु हो गयी ।
इस्लाम धर्म के आधार तथा मान्यताएं
इस्लाम एक ही ईश्वर की उपासना पर जोर देता है-अल्लाह,तथा उनकी पवित्र पुस्तक कुरान है ।प्रत्येक मुसलमान को दिन में पांच बार मक्का की तरफ मुख करके नमाज पढ़ना चाहिए ।रमजान माह में रोजे रखना,दान करना(जकात) और यदि मुमकिन हो तो जीवन में एक बार मक्का(सऊदी अरब) की यात्रा करें ।
ख़लीफ़ाओं का काल
खलीफा जिन्हें मोहम्मद साहब का उत्तराधिकारी कहा जाता था इस्लाम का एक राजनैतिक और धार्मिक पद था । खलीफा की नियुक्ति पूर्व खलीफा द्वारा घोषित या एक समिति द्वारा की जाती थी ।सुन्नी मुसलमान खलीफाओं को राशिदून अथवा अल-खालिफ उर्र राशिदून (सही दिशा में चलने वाला) कहते हैं ।उनके अनुसार खलीफा चार थे -अबू बक्र,उमर बिन अल खतब,उस्मान बिन अफ़्फ़ान,अली बिन अबी तालिब।ये चारों पैगम्बर मोहम्मद के साथ हमेशा रहते थे ।सुन्नी मुसलमान हुसैन को चौथा खलीफा मानते थे ।इसके विपरीत शिया मुसलमान हजरत अली को पहला खलीफा मानते हैं। उनका कहना था हजरत अली पैगम्बर मोहम्मद के परिवार से थे,वे मोहम्मद साहब के दामाद थे तथा खलीफा पद के असली हकदार हजरत अली थे,पहले के तीन खलीफाओं का शासन जायज नहीं था ।उनका मानना था कि खलीफा जैसी पाक पदवी पैगम्बर के घराने से बाहर किसी आम मुसलमान को नहीं दी जानी चाहिए ।
अबू बक्र(632 ई.-634 ई.)
मोहम्मद साहब की मृत्यु के पश्चात मदीना के मुहाजिरों तथा अंसरों ने मुस्लिमों को राजनीतिक और धार्मिक नेतृत्व प्रदान करने की लिए 632 ई. अबू बक्र को ख़लीफ़ा नियुक्त किया क्योंकि मोहम्मद साहब ने अपनी मृत्यु से पहले किसी को भी अपना उत्तराधिकारी घोषित नहीं किया था ।लेकिन इस बात को लेकर पैगम्बर के कुछ अनुयायी तथा पैगम्बर के हाशिमी कबीले के कुछ सदस्य इनसे अलग हो गए ,जिनका मानना था कि मोहम्मद साहब ने अपने दामाद अली को अपना उत्तराधिकारी नियुक्त किया था ।इस प्रकार जो अली के समर्थक थे वो शिया तथा जो अबू बक्र के समर्थक थे वो सुन्नी मुसलमान कहलाए ।
उमर बिन अल खतब(634 ई.-644ई.)
अबू बक्र ने उमर अल-खत्तब को अपना उत्तराधिकारी चुना । इनके शासन काल में सीरिया,फिलिस्तीन,मिस्र, व बेंजेटाइन क्षेत्र तथा ईराक के कुछ क्षेत्र इस ख़लीफ़ा के आधीन हो गए । उस समय अरबों ने इस्लाम फैलाने के लिए ईरान पर हमला कर दिया जिससे क्रोधित होकर कुछ ईरानियों ने उमर को सत्ता लेने के लगभग 10 वर्षों बाद 7 नवम्बर 644 ई. में उमर की हत्या कर दी ।उम्र ने अपनी हत्या से पहले छह लोगों का एक गुट बनाया था जिनमे से मुख्य थे अली और उस्मान ।आपसी सहमति द्वारा उस्मान को अगला खलीफा चुना गया ।
उस्मान बिन अफ़्फ़ान(644 ई.-656 ई.)
उमर की हत्या के पश्चात् इस्लाम के वरिष्ठ सहयोगियों ने उस्मान को ख़लीफ़ा बना दिया ।उस्मान के शासन में शुरू के 6 वर्षों तक शांति बनी रही,परन्तु शासनकाल के अंतिम समय आते-आते इनमें गृह युद्ध छिड़ गया और लगभग 12 वर्षों बाद 17 जुलाई 656 ईसवी को विद्रोहियों ने उस्मान की भी हत्या कर दी ।इस गृह युद्ध के फलस्वरूप इस समुदाय के पतन को रोकने के लिए अली चौथे ख़लीफ़ा के रूप में नियुक्त हुए ।
अली बिन अबी तालिब(656 ई.-661 ई.)
शिया अनुयायिओं का मानना था कि पहले तीन ख़लीफ़ाओं का शासन नाजायज़ था तथा अली को शुरू से ही खलीफा होना चाहिए था क्योंकि अली मोहम्मद साहब के रिश्तेदार थे ,उनके दामाद थे जिन्होंने मोहम्मद की बेटी फातिमा से शादी की हुई थी ।सीरिया के शासक मुआविया (उमय्यद ख़लीफ़ा वंश) ने अली की अधीनता करना स्वीकार कर लिया ।मुआविया उस्मान का रिश्तेदार था तथा इसकी बहिन से पैगम्बर मोहम्मद ने विवाह किया था ।मुआविया का आरोप था कि अली उनके सम्बन्धी उस्मान के कातिलों को पकड़ने की कोशिश नहीं कर रहे है ।इसी विवाद को लेकर मुआविया और अली की सेनाओं के बीच फुरात नदी के किनारे सिफ़िन का अनिर्णायक युद्ध होता है परन्तु और अधिक खून-खराबे से बचने के लिए अली मुआविया से बातचीत करने के लिए तैयार हो जाता है ।
दोस्तों आपकी जानकारी के लिए बता दे की अली की फ़ौज में 4000 ऐसे कट्टरपंथी लोगों का एक गुट था जिन्हे 'खारिजी' कहा जाता था ।इन लोगों का मानना था की हार और जीत का फैसला ईश्वर के हांथों में छोड़कर इंसान को मरते दम तक युद्ध करते रहना चाहिए उनका आरोप था कि अली अपने मार्ग से भटक गया है और इस कारण वे अली से अलग हो जाते है ।लगभग दो साल बाद ख़ारिजियों और अली के मध्य नहरवान का युद्ध होता है जिसमे अली विजय होते है ।एक बार अली 'कूफ़ा मस्जिद' में नमाज पढ़ रहे थे इसी दौरान इब्न मुल्जम नामक एक खारिजी जहरीली तलवार से उनकी हत्या कर देता है ।
हसन
अली की मृत्यु के बाद उनके बेटे हसन को खलीफा बनाया गया क्योंकि अली का निर्देश था कि उनकी मृत्यु के बाद उनके दोनों बेटों हसन और हुसैन में से किसी एक को खलीफा बनाया जाए ।क्योंकि पैगम्बर मोहम्मद दोनों के नाना थे,तथा अली की मृत्यु के पश्चात शियाओं की परम्परा के अनुसार पैगम्बर के घराने का ही सदस्य खलीफा बनाया गया ।हसन के खलीफा बनते ही मुआविया ने हसन की फौजों को उसके विरुद्ध भड़काना शुरू कर दिया जिसके कारण हसन और मुआविया के बीच युद्ध जैसी स्थिति बन गयी ।युद्ध से बचने के लिए तथा मुस्लिम समुदाय को टूटने से बचाने के लिए हसन ने मुआविया से समझौता किया वह खलीफा पद त्याग देगा तथा मुआविया को खलीफा स्वीकार करेगा बशर्ते मुआवियाह की मृत्यु के बाद खलीफा का पद वापिस उसे या उसके किसी उत्तराधिकारी को दिया जाये ।ऐसा कहा जाता है कि हसन की पत्नी ने उसे जहर दे दिया था जिससे उसकी मृत्यु हो गयी ।
मुआविया
खलीफा तो बन गया परन्तु उसकी इच्छा थी की उसके बाद उसका बेटा याजिद खलीफा बने । मुआविया उस्मान का सम्बन्धी तथा पैगम्बर मोहम्मद का साला था । परन्तु मुआविया को डर था की यदि वह याजिद को उत्तराधिकारी घोषित करता है तो उसे हसन के विद्रोह का सामना करना पड़ेगा ।इसलिए उसने कूटनीति से काम लेते हुए हसन की पत्नी को हसन के विरुद्ध उकसाकर धोखे से जहर पिलवा दिया जिससे उसकी मृत्यु हो गयी । 680 ई. में मुआविया की मृत्यु हो गयी ।
याजिद
मुआविया की मृत्यु के पश्चात् उसका बेटा याजिद खलीफा बना ।अली के दूसरे बेटे हुसैन ने उसके खलीफा बनने का विरोध किया ।खलीफा पद को लेकर 10 अक्टूबर 680 को हुसैन तथा याजिद की सेनाओं के मध्य करबला का युद्ध होता है जिसमे हुसैन की गर्दन काटकर हत्या कर दी जाती है ।इसके पश्चात् हुसैन के 6 माह के बेटे की भी हत्या कर दी जाती है तथा हुसैन के परिवार की स्त्रियों का अपमान किया जाता है ।शिया मुसलमान हर वर्ष मुहर्रम के दिन इस घटना का मातम भी मानते हैं ।
उमय्यद खिलाफत ख़लीफ़ा वंश(661 ई.-750 ई.)
जैसा कि आपको विदित होगा हमने आपको बताया मुआवियाह के बारे में जो कि तीसरे खलीफा उस्मान बिन अफ़्फ़ान के भतीजे थे तथा वह खलीफा उमर बिन अल खतब के शासनकाल से लेकर खलीफा अली बिन अबी तालिब के शासनकाल तक सीरिया के गवर्नर थे ।उन्होंने खलीफा अली की मृत्यु के पश्चात 28 जुलाई 661 ई. में सीरिया की राजधानी दमिश्क में उमय्यद ख़लीफ़ा वंश की स्थापना की ।इनके शासनकाल मे इस्लामिक सेना को सैनिक सफलता बहुत अधिक प्राप्त हुई और वे उत्तरी अफ्रीका से होते हुए स्पेन तक पहुँच गए ।इसी काल में मुसलमानों ने 712 ई. में मध्य एशिया सहित सिन्ध पर कब्ज़ा कर लिया इस तरह निरंतर उम्मयद खलीफाओं का ये वंश 750 ई. तक सत्ता में बना रहा ।लेकिन 750 ई. में चले एक परिवर्तन आंदोलन में अब्बासी खलीफाओं ने उम्मयद खलीफाओं को हरा दिया और सत्ता अपने कब्जे में कर ली ।उम्मयद वंश के कुल 14 खलीफाओं ने 25 जनवरी 750 तक शासन किया ।उम्मयद ख़िलाफ़त वंश का आखरी खलीफा मरवान द्वितीय इब्न मुहम्मद था ।
कहा जाता है कि इस गृह युद्ध से उम्मयद ख़िलाफ़त वंश का अब्द उर रहमान (प्रथम) तथा एक यूनानी दास बचकर भाग गए थे जो अफ्रीका होते हुए स्पेन चले गए थे जहाँ उन्होंने कार्बोडा के खलीफा की स्थापना की जो 1031 ई. तक चला ।
धार्मिक पुस्तक कुरान
कुरान इस्लाम धर्म की पवित्रतम पुस्तक है और इस्लाम की नीवं है ।मान्यता है कि कुरान को ईश्वर(अल्लाह) के देवदूत जिब्रील द्वारा हजरत मोहम्मद को 610 ई. से 632 ई. तक उनकी मौत तक सुनाया गया था ।कहा जाता है कि देवदूत जिब्रील को जब कभी अल्लाह हुक्म देते वो पैगम्बर के पास कुरान की आयतें लेकर आते ।इस प्रकार लगभग 22 सालों तक देवदूत जिब्रील पैगम्बर के पास आते अलग अलग मौकों पर थोड़ी-थोड़ी आयतों में क़ुरान फ़रमाया ।जिब्रील पैगम्बर के पास समय-समय पर आते रहते ,उन्हें आयतें याद करवाते फिर पूरे साल में जो भी पैगंबर मोहम्मद सीखते देवदूत उनसे बार-बार सुनते ताकि उन्हें अच्छी तरह याद हो जाये ।हालाँकि पहले कुरान का मौखिक रूप से प्रसार हुआ लेकिन हजरत मोहम्मद की मौत के पश्चात् 633 ई. में इसे पहली बार लिखा गया और मानवीकृत रूप से कुरान की प्रतियां 653 ई. में मिस्लिम साम्राज्यों में बाँट दी गयी । मुसलमानों का मानना है की ईश्वर द्वारा भेजे गए पवित्र संदेशों के सबसे आखरी संदेश कुरान में है ।मान्यताओं के अनुसार इन संदेशों की शुरुआत आदम से हुई ।आदम नबी(पैगम्बर) को कहा जाता है जिसकी तुलना हिन्दू धर्म के मनु से की जा सकती है ।जिस प्रकार हिन्दू धर्म में मनु की संतानों को मनुष्य कहा जाता है उसी प्रकार मुस्लिम धर्म में आदम की संतानों को आदमी कहा जाता है ।
शिया और सुन्नी विवाद
दोस्तों,मुस्लिम समुदाय दो भागों में बंटा हुआ है शिया और सुन्नी ।दोस्तों सिया और सुन्नी मुसलमानों की ये लड़ाई सबसे पुरानी और सबसे घातक है जो पैगम्बर हजरत मोहम्मद की मृत्यु के समय से शुरू हुई थी और आज तक चली आ रही है ।ऐसा नहीं है कि दोनों में से कोई मोहम्मद साहब का अनुयायी नहीं है,दोनों समुदाय मोहम्मद साहब के अनुयायी है ।लड़ाई है तो बस विचारधारा की,एक सोच की ।यह लड़ाई शुरू होती है मोहम्मद साहब की मृत्यु के बाद खलीफा पद को लेकर । उस समय चार ऐसे व्यक्ति थे जो खलीफा पद के दावेदार थे । अबू बक्र, उमर, उस्मान तथा मोहम्मद साहब के दामाद हजरत अली ये चारों हमेशा मोहम्मद साहब के साथ रहते थे ।मोहम्मद साहब की मृत्यु के बाद अबू बक्र को मोहम्मद साहब के उत्तराधिकारी(खलीफा) के रूप में नियुक्त किया जाता है ।बस इसी बात को लेकर इस समुदाय के कुछ लोग नाराज हो गए क्योंकि वो चाहते थे कि खलीफा की इस पवित्र गद्दी पर मोहम्मद साहब के परिवार का ही कोई व्यक्ति बैठे जो हजरत अली थे ।उनकी मान्यता थी कि खलीफा जैसा पवित्र पद किसी आम आदमी के लिए नहीं है ,हजरत मोहम्मद खुदा के बन्दे थे इसलिए उत्तराधिकारी भी खुदा के परिवार का ही कोई सदस्य हो ।मोहम्मद साहब ने अपनी मृत्यु से पहले यदि अपने किसी उत्तराधिकारी की घोषणा कर दी होती तो शायद ये विवाद आगे नहीं बढ़ता ।सम्भवतः मोहम्मद साहब को यदि इस विवाद का अंदेशा होता तो वे उत्तराधिकारी की घोषणा जरूर करते ।
इस प्रकार जो अबू बक्र के पक्ष के मुसलमान थे वो सुन्नी कहलाये तथा जो अली को खलीफा बनाने के पक्ष में थे वो शिया कहलाये ।हालांकि बाद में चौथे ख़लीफ़ा के रूप में अली को खलीफा नियुक्त कर दिया था ।परंतु शिया अली को ही अपना पहला खलीफा मानते हैं ।अतःयहाँ पर यह स्पष्ट होता है कि शिया मुसलमान कुछ रूढ़िवादी थे ।खलीफा पद को लेकर दो पक्षों में कटुता आ गयी,एक के बाद एक ख़लीफ़ाओं की हत्या होती गयी,कभी सुन्निओं के खलीफा मारे जाते तो कभी शियाओं के ।इसके साथ ही शियाओं का आरोप था कि सुन्निओं ने हजरत अली के बेटे हुसैन और उसके परिवार की बड़ी ही बेरहमी से हत्या कर दी थी ।इसी घटना की याद में शिया मुसलमान मुहर्रम मनाते है ।दोनों पक्षों के बीच ये कटुता जो उस समय से चली आ रही है आज भी बरकरार है जो न केवल मुस्लिम समुदाय के लिए बल्कि पूरे विश्व के लिए अशांति का कारण बनी हुई है ।
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