History of Rajasthan ~ महाराणा कुम्भा के उत्तराधिकारी ~ Ancient India

History of Rajasthan ~ महाराणा कुम्भा के उत्तराधिकारी

महाराणा कुम्भा के दो पुत्र थे उदयसिंह प्रथम/उदा तथा रायमल । ऐसा कहा जाता है कि महाराणा कुम्भा अपने अंतिम समय में उन्माद रोग (मानसिक रोग) से ग्रसित हो गए थे, इसलिए उनका ज्यादातर समय कुम्भलगढ़ दुर्ग में स्थित मामलगढ़ कुंड में व्यतीत होता था । राजा बनने की लालसा में उनके बड़े पुत्र उदा ने महाराणा कुम्भा की हत्या कर दी । महाराणा कुम्भा की हत्या करते ही उसने अपने आप को मेवाड़ का शासक घोषित कर दिया ।

उदयसिंह प्रथम / उदा/ उदयकरण (1468 ई. - 1473)

उदयसिंह प्रथम को उदयकरण अथवा उदा आदि नामों से भी जाना जाता है । उसका शासनकाल 1468 ई. से 1473 ई. के मध्य था । राज्य की जनता व सामंत उसके व्यवहार से नाखुश थे । जिस तरह उसने अपने पिता की हत्या की उससे यह लगता भी है कि वह एक क्रूर और अत्याचारी शासक रहा होगा । नाखुश सामंतों ने महाराणा कुम्भा के दूसरे पुत्र रायमल को मेवाड़ पर आक्रमण करने के लिए प्रेरित किया ।
रायमल व उदा के मध्य तीन वर्षों तक संघर्ष चलता रहा । 1473 ई. में दाड़भी गांव के पास हुए संघर्ष में उदा की सेना पराजित हुई । रायमल ने चितौड़ व जावर जैसे महत्वपूर्ण क्षेत्रों पर अधिकार कर लिया । कुम्भलगढ़ की तरफ बढ़ता देख उदा अपने दोनों पुत्रों सूरजमल व सैंसमल सहित मांडू सुल्तान गयासुद्दीन खिलजी की शरण में जा पहुंचा तथा उससे रायमल के विरुद्ध मदद भी मांगी । इस मदद के बदले उदा ने अपनी बेटी का विवाह गयासुद्दीन खिलजी से करने का वादा किया । गयासुद्दीन की सहमति के बाद जब उदा वापिस लौट रहा तो रास्ते में आकाशीय बिजली गिरने से उसकी मौत हो गई ।

राणा रायमल (1473 ई.- 1509 ई.)

राणा रायमल महाराणा कुम्भा के पुत्र तथा उदा के भाई थे । उनका शासनकाल 1473 ई. से 1509 ई. के मध्य था । रायमल ने मेवाड़ को एक शक्तिशाली राज्य बनाया । राणा कुम्भा के समय राठौड़ों व सिसोदियों के मध्य गहरी शत्रुता थी, जो राव जोधा की बेटी श्रृंगारदेवी के साथ रायमल का विवाह होने के बाद समाप्त हो गई । रायमल ने रायसिंह टोडा और अजमेर पर पुनः अधिकार कर लिया ।

रायमल ने चित्तौड़ के एकनाथ जी मंदिर का पुनर्निर्माण करवाया था । उन्होंने मेवाड़ में खेती को प्रोत्साहन देने के लिए तथा सिंचाई हेतु जल एकत्रित करने के लिए राम तालाब, शंकर तालाब तथा समय संकट तालाब नामक 3 जलाशयों का निर्माण करवाया । राणा रायमल की रानी श्रृंगार देवी द्वारा चितौड़ में घोसुंडी बावड़ी का निर्माण करवाया गया ।

रायमल के शासन काल की कुछ प्रमुख घटनाएं

पितृहन्ता होने के कारण उदा जनता में अप्रिय हो गया था । सामंतों के सहयोग से राणा रायमल ने उदा को पराजित कर मेवाड़ की गद्दी से हटा दिया । उदा अपनी मदद के लिए मांडू (मालवा,म.प्र.) के शासक गियासुद्दीन खिलजी का आस्वासन लेकर जब वापिस लौट रहा था तो रास्ते में बिजली गिरने से उसकी मृत्यु हो गई ।

उदा के पुत्र अभी भी गयासुद्दीन से मदद चाहते थे । इसी क्रम में गियासुद्दीन खिलजी ने चित्तौड़ पर पहला आक्रमण किया लेकिन उसे सफलता नहीं मिली । राणा रायमल के नेतृत्व वाली मेवाड़ की सेना से पराजित होकर उसे वापिस लौटना पड़ा । इसके शीघ्र बाद अपनी दूसरी कोशिश में गियासुद्दीन ने अपने सेनापति जफर खान को मेवाड़ पर आक्रमण करने के लिए भेजा किन्तु वह भी माण्डलगढ़ (भीलवाड़ा) और खैराबाद में पराजित हुआ । हालांकि कई वर्षों बाद गयासुद्दीन की मृत्यु के पश्चात 1503 ई. में गयासुद्दीन के पुत्र नासिरशाह/ नासिरुद्दीन के नेतृत्व में मांडू की सेना ने मेवाड़ की सेना को पराजित कर दिया था तथा दंडस्वरूप जुर्माना भी वसूल किया था । मेवाड़ की इस शर्मनाक हार का कारण मेवाड़ में आंतरिक कलह व फूट था ।

राणा रायमल का शासनकाल रायमल से अधिक उसके पुत्रों के उत्तराधिकार संघर्ष के कारण चर्चित रहा है । मेवाड़ में उत्तराधिकार को लेकर विवाद व गुटबाजियां शुरू हो गई थीं । दरअसल इसका कारण था महाराणा रायमल द्वारा अपने किसी उत्तराधिकारी की घोषणा न करना । महाराणा रायमल के 11 रानियां थीं । इन रानियों में दो प्रमुख रानियों के नाम हैं रत्न कंवर (संग्राम सिंह की माता) तथा श्रृंगार देवी (राव जोधा की पुत्री) । इन 11 रानियों से उन्हें 13 पुत्र व 2 पुत्रियां प्राप्त हुईं । रायमल के सभी पुत्र मेवाड़ का उत्तराधिकारी बनने की चाह रखते थे । लेकिन इन सभी पुत्रों में 3 पुत्र मुख्य थे जो महत्वकांक्षी होने के साथ-साथ उत्तराधिकारी बनने की पूरी क्षमता रखते थे । ये तीन राजकुमार थे कुंवर पृथ्वीराज ( जिन्हें उड़ाणा पृथ्वीराज अथवा उड़ाणा राजकुमार भी कहा जाता है ), जयमल व संग्राम सिंह ।

पृथ्वीराज सभी पुत्रों में सबसे बड़े थे इसीलिए वह खुद को मेवाड़ का उत्तराधिकारी समझते थे । पृथ्वीराज एक वीर व ओजस्वी व्यक्ति थे तथा एक अच्छे धावक भी थे । पृथ्वीराज युद्धों के शौकीन थे । उन्होंने अनेकों छोटे बड़े युद्धों में भाग लिया । वह बड़ी तीव्रता से दुश्मन पर आक्रमण करते थे । उनके इन्हीं गुणों के कारण उन्हें उडाणा राजकुमार के नाम से भी जाना जाता था । पृथ्वीराज में शासक बनने के सभी गुण थे । संग्राम सिंह इन सभी से छोटे थे । संग्राम सिंह को ही राणा सांगा के नाम से जाना जाता है । पृथ्वीराज की तरह संग्राम सिंह भी मेवाड़ का उत्तराधिकारी बनने की सभी योग्यता रखते थे जबकि इन सबके विपरीत जयमल एक अनुभवहीन व आलसी व्यक्ति थे । उत्तराधिकार का मुख्य संघर्ष पृथ्वीराज व संग्राम सिंह के मध्य था ।

एक बार ये तीनों राजकुमार अपने चाचा सारंग देव के साथ अपना भविष्य जानने के लिए एक ज्योतिषी के पास पहुंचे । ज्योतिष ने सभी की कुंडलियां देखीं जिसमें यह निष्कर्ष निकला कि संग्राम सिंह मेवाड़ के उत्तराधिकारी होंगे । ज्योतिष की बात सुनकर पृथ्वीराज आग बबूला हो गया तथा अपनी तलवार निकालकर संग्राम सिंह पर टूट पड़े । लेकिन चाचा सारंगदेव ने बीच-बचाव कर मामला ठंडा किया । इसके पश्चात ये सभी राजकुमार भीमल गांव में पहुंचे जहां चारण जाती की पुजारिन थी । ऐसा कहा जाता था कि यह पुजारिन जो भविष्यवाणी करती थी वह बिल्कुल सटीक होती थी । पुजारिन ने भी वही बात कही जो उस ज्योतिषी ने कही थी । अब तीनों राजकुमार संग्राम सिंह पर एक साथ टूट पड़े । सारंगदेव एक बार फिर बीच बचाव में कूद पड़ा लेकिन वह बुरी तरह जख्मी हो गया वहीं इस हमले में पृथ्वीराज की तलवार की नौक संग्राम सिंह की आंख पर लग गई जिससे उसकी आंख फूट गई । संग्राम सिंह को अपनी जान बचाकर वहां से भागना पड़ा । संग्राम सिंह वहां से भागकर सेवंत्रि गाँव पहुंचे । कुछ समय पश्चात उन्हें वहां से भागकर अजमेर जाना पड़ा । अजमेर के पास श्रीनगर में उन्होंने कर्मचंद पंवार के यहां शरण ली ।

कुंवर पृथ्वीराज / पृथ्वीराज सिसोदिया

संग्राम सिंह के अजमेर भाग जाने के बाद पृथ्वीराज के लिए मेवाड़ पर शासन का रास्ता बिल्कुल साफ हो गया था । हालांकि जब पिता रायमल को यह बात पता चली तो वह पृथ्वीराज पर बहुत क्रोधित हुए जिससे रुष्ठ होकर पृथ्वीराज चितौड़ से कुंभलगढ़ चले गए । पृथ्वीराज वीरता के धनी थे । उन्होंने अनेकों छोटे व बड़े युद्धों में भाग लिया जिससे उन्हें काफी अच्छा युद्धाभ्यास हो गया था । वे अक्सर अपने खुद के सैन्य खर्च पर सैना एकत्रित करते तथा दुश्मनों पर टूट पड़ते और उन्हें पराजित कर वहां लूटपाट करते । राजधानी में ना होने के बावजूद भी वह अक्सर मेवाड़ पर आने वाले संकट से आप ही निपट लेते थे । इसके लिए सैना पर आने वाले खर्चे की वह भी कभी मांग नहीं करते थे ।
पृथ्वीराज के चाचा सारंगदेव जो उत्तराधिकार को लेकर छिड़े गृह युद्ध में सबसे बड़ा भागीदार था,भी मेवाड़ का शासक बनने की महत्वकांक्षा रखता था । उसने मालवा (मांडू) के शासक नासीरुद्दीन के साथ मिलकर मेवाड़ पर आक्रमण कर दिया । इस युद्ध में रायमल घायल हो गए थे । नासीरुद्दीन इस युद्ध को जीतने ही वाला था कि कुंवर पृथ्वीराज ने अपने 1000 राजपूत सैनिकों के साथ अचानक युद्ध भूमि में पहुंचकर युद्ध की दिशा ही बदल दी । पृथ्वीराज ने नासीरुद्दीन की सेना का डटकर मुकाबला किया तथा नासीरुद्दीन को पराजित कर दिया ।

पृथ्वीराज का विवाह ताराबाई से हुआ था जो टोड़ा के सोलंकी शासक राव सुरतान की पुत्री थी । अफगान हमलावर लालखाँ ने टोड़ा पर आक्रमण कर राव सुरतान को वहां से खदेड़ दिया । राव सुरतान अपनी पुत्री व अपने परिवार सहित राणा रायमल की शरण में मेवाड़ आ गया । राणा रायमल ने उसे बदनोर की जागीर प्रदान की । हालांकि राव सुरतान को बदनोर की जागीर प्राप्त हो गई थी लेकिन उसकी पुत्री ताराबाई को अपने पैतृक राज्य टोड़ा को स्वतंत्र कराने के लिए दृढ़ थी । वह निरंतर घुड़सवारी व तलवारबाजी का अभ्यास करती थी ।

ताराबाई अत्यंत खूबसूरत थी । उसकी खूबसूरती के चर्चे मेवाड़ तक पहुंचे । राव सुरतान ने यह संकल्प किया था कि जो भी व्यक्ति तोड़ा को स्वतंत्र कराके उसे लौटा देगा उसी से वह ताराबाई का विवाह करवा देगा । जब जयमल को यह बात पता चली तो वह राव सुरतान के पास पहुंच गया तथा राव सुरतान से ताराबाई का हाथ मांग लिया । राव सुरतान ने जयमल को बार-बार समझाने का प्रयत्न किया कि वह अपनी शर्त से कभी पीछे नहीं हटेगा , जो व्यक्ति तोड़ा को स्वतंत्र कराके मुझे सौंपेगा मैं उसी से ताराबाई का विवाह करवाऊंगा । लेकिन जब जयमल दुर्व्यवहार पर उतर आया तो राव सुरतान ने अपनी तलवार से जयमल को मौत के घाट उतार दिया ।

अपने भाई की हत्या की खबर जब कुंवर पृथ्वीराज के पास पहुंची तो वह बहुत क्रोधित हुआ अतः उसने राव सुरतान व ताराबाई के घमंड तोड़ने का निश्चय किया । हालांकि कुंवर पृथ्वीराज ने ताराबाई की खूबसूरती व उसके टोड़ा उद्दार के संकल्प के बारे में पहले भी सुना था । पृथ्वीराज जब बदनौर पहुंचा तो वह ताराबाई के सौंदर्य को देखकर मोहित हो गया । राव सुरतान ने जयमल की हत्या के पूरे घटनाक्रम को कुंवर पृथ्वीराज को बताते हुए कहा कि किस तरह उसने ताराबाई के साथ दुर्व्यवहार किया तथा मारा गया । कुँवर पृथ्वीराज व ताराबाई ने योजनाबद्ध तरीके से लगभग 500 सैनिकों के साथ टोड़ा पर बड़ी तीव्रता से आक्रमण कर दिया । अचानक हुए इस हमले से अफगान सैनिक संभल नहीं पाए तथा तीतर- बितर होकर टोड़ा से भाग खड़े हुए । इस प्रकार पृथ्वीराज के सहयोग से टोड़ा पुनः राव सुरतान के हाथों में आ गया ।

राव सुरतान ने अपनी शर्त के अनुसार ताराबाई का विवाह कुँवर पृथ्वीराज से करवा दिया । अफगानों पर इस हमले की खबर जब अजमेर के नबाब मल्लूखाँ को मिली तो उसने टोड़ा पर आक्रमण करने की सोची । इससे पहले की मल्लूखाँ की सैना टोड़ा पहुँचती पृथ्वीराज ने आगे बढ़कर अजमेर पर आक्रमण कर दिया । जबरदस्त टकराव व रक्तपात के बाद पृथ्वीराज ने अजमेर के किले पर अधिकार कर लिया । पृथ्वीराज ने अजमेर के दुर्ग का नाम अजयमेरू दुर्ग से बदलकर अपनी पत्नी ताराबाई के नाम पर तारागढ़ रख दिया । अजमेर की पहाड़ियों को तारागढ़ की पहाड़ी के नाम से जाना जाने लगा ।

दोस्तों,पृथ्वीराज की बहिन आनंदीबाई का विवाह सिरोही के राजा जगमाल देवड़ा के साथ हुआ था । जगमाल आनंदीबाई पर बहुत ही अत्याचार करता था । जब भाई पृथ्वीराज को इस बात की खबर पहुंची तो वह जगमाल को दंडित करने के लिए सिरोही पहुंच गया । पृथ्वीराज के समझाने पर जगमाल द्वारा अपनी गलती स्वीकार करते हुए भविष्य में आनंदीबाई पर कभी अत्याचार न करने का आश्वासन दिया । इस आश्वासन के साथ पृथ्वीराज सिरोही से वापिस चल पड़ा । वापिस लौटने से पहले जगमाल ने पृथ्वीराज को रास्ते में भोजन के लिए कुछ लड्डू बांध दिए थे । जगमाल ने इन लड्डूओं में जहर मिलवा दिया था । इन जहरीले लड्डुओं का सेवन करने के कारण कुंभलगढ़ पहुंचने से पहले रास्ते में ही पृथ्वीराज सिसोदिया की मृत्यु हो गई ।

पृथ्वीराज सिसोदिया में वो सभी गुण थे जो एक राजा बनने के लिए होने चाहिए । पृथ्वीराज एक तेज गति का धावक था इसीलिए इसे उडाणा राजकुमार भी कहा जाता था । पृथ्वीराज सिसोदिया की बारह खम्भों की छतरी कुंभलगढ़ दुर्ग में है ।

पृथ्वीराज सिसोदिया की मृत्यु के बाद संग्राम सिंह के लिए मेवाड़ का राजा बनने के लिए रास्ता बिल्कुल साफ हो गया था जैसा की उस ज्योतिषी ने भविष्यवाणी की थी । राणा रायमल अब बिल्कुल वृद्ध हो चले थे । उन्होंने अजमेर के पास श्रीनगर में कर्मचंद पंवार के यहां रह रहे संग्राम सिंह को मेवाड़ वापिस लौट आने का संदेश भेजा । 1509 ई. में राणा रायमल की मृत्यु हो गई । तारीख स्पष्ट नहीं है लेकिन ऐसा माना जाता है कि 24 मई 1509 ई. को संग्राम सिंह का राज्याभिषेक किया गया । इस प्रकार एक लंबी खींचतान के बाद मेवाड़ को नया उत्तराधिकारी मिला । इतिहास में संग्राम सिंह को महाराणा सांगा के नाम से जाना जाता है ।

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