Magadha empire ~ मगध साम्राज्य (भाग-5) ~ Ancient India

Magadha empire ~ मगध साम्राज्य (भाग-5)

मगध साम्राज्य के पिछले भाग में आपने पढ़ा कण्व वंश को । इसी श्रंखला अंतिम भाग में आप पढ़ेंगे सातवाहन वंश को । यदि आपने मगध साम्राज्य के पिछले लेखों को नहीं पढ़ा है तो आप इसी पेज पर नीचे दिए गए लिंक पर जाकर उन लेखों को पढ़ सकते हैं । 

कौन थे सातवाहन

पुराणों में सातवाहनों को आंध्र,आंध्रजातीय अथवा आन्ध्रभृत्य कहा गया है जबकि अभिलेखों में इन्हें सातवाहन कहा गया है ।इस प्रकार इन दोनों नामों को मिलाकर हमारे इतिहास के विद्वानों ने इस वंश को आंध्र+सातवाहन=आन्ध्रसातवाहन कहा है ।महाभारत के अनुसार सातवाहन मलेच्छ थे अर्थात वे निम्न कुल से थे ।जबकि इसी प्रकार का उल्लेख मनुसमृति में भी मिलता है जिसमे सातवाहनों को वर्ण शंकर बताया गया है अर्थात उनमे कई जातियों का मिश्रण बताया है । इसके विपरीत गौतमी पुत्र शातकर्णी के नासिक प्रशस्ति में एकब्राह्मण (अदिवितीय ब्राह्मण) शब्द का उल्लेख है जो यह साबित करता है कि यह ब्राह्मण वंश की एक शाखा थी ।अन्ततः हमारे भारतीय इतिहासकार भीे इस मत से सहमत हुए है कि सातवाहन वंश एक ब्राह्मण वंश था । पुराणों के अनुसार सातवाहन वंश के कुल 30 शासकों ने लगभग 280 वर्षों तक शासन किया । आंध्र वंश की सबसे अधिक जानकारी हमें मत्स्य पुराण तथा वायु पुराण से प्राप्त होती है ।

सातवाहनों का मूल निवास

सातवाहनों का मूल निवास महाराष्ट्र के वर्तमान औरंगाबाद से 30 कि.मी. दूर प्रतिष्ठान(पैठण) का क्षेत्र था जो सातवाहन शासकों की राजधानी भी थी ।प्रतिष्ठान को अलग अलग विद्वानों ने अलग अलग नामों से सम्बोधित किया है जैसे वैथन,प्लीयान,पैथान या पीथान ।पुराणों में ऐसी मान्यता भी है कि प्रतिष्ठान को ब्रह्माजी ने बसाया था ।आंध्र शासकों का साम्राज्य महाराष्ट्र से आंध्रप्रदेश तक फैला हुआ था ।लेकिन हमें इनके ज्यादातर साक्ष्य महाराष्ट्र के क्षेत्रों से मिले हैं जो यह उल्लेख इनके उत्तर में विंध्याचल की पहाड़ियां तथा नर्मदा नदी थी और दक्षिण में कृष्णा नदी थी, पूर्व में कलिंग का शासन था तथा पश्चिम में शकों का शासन था ।

सातवाहनों की जानकारी के स्त्रोत

मत्स्य पुराण तथा वायु पुराण सातवाहनों की जानकारी का मुख्य स्रोत है ।पुराणों में सातवाहनों को आन्ध्रभृत्य अथवा आंध्रजातीय कहा गया है ।इसके अलावा अलग-अलग स्थानों से बहुत से शिलालेख व गुहा लेख प्राप्त हुए हैं जो सातवाहनों के बारे में हमें जानकारी प्रदान करते हैं ।जैसे:-

  1. नायनिका का नानाघाट अभिलेख-नायनिका शातकर्णी प्रथम की पत्नी थीं ।नायनिका का यह अभिलेख पूना में है जो सातवाहनों की जानकारी का मुख्य स्रोत है।
  2. गौतमी पुत्र शातकर्णी के गुहालेख-गौतमी पुत्र शातकर्णी के तीन गुहालेख प्राप्त हुए हैं। दो गुहालेख नासिक से तथा एक गुहालेख कार्ले से प्राप्त हुआ है जो सातवाहन वंश के बारे में काफी जानकारी प्रदान करता है ।
  3. गौतमी बलश्री- गौतमी बलश्री गौतमीपुत्र शातकर्णी की माँ थीं ।गौतमी बलश्री का नासिक से एक गुहालेख प्राप्त हुआ है इसके द्वारा भी सातवाहनों के बारे में जानकारी मिलती है ।
  4. वाशिष्ठी पुत्र पुलुमावी- पुलुमावी के दो गुहालेख नासिक से प्राप्त हुए है यह भी सातवाहनों की जानकारी का एक स्त्रोत है। पुलुमावी के पिता गौतमी पुत्र शातकर्णी थे तथा माता का नाम वाशिष्ठी था ।
  5. यज्ञश्री शातकर्णी- यज्ञश्री शातकर्णी का नासिक से एक गुहालेख प्राप्त हुआ है ।
  6. नहपान के सिक्के- नासिक के पास जोगल्थम्भी नामक स्थान से बड़ी संख्या में नहपान के सिक्के प्राप्त हुए हैं ।नहपान क्षेरात वंश का शक शासक था ।शकों की उस समय चार शाखाएं थीं ।मथुरा के शक शासक, तक्षशिला के शक शासक,क्षेरात के शक शासक तथा कार्द्धमक के शक शासक आदी ।

सातवाहन वंश की स्थापना

हालांकि दोस्तों सातवाहनों के शासनकाल को लेकर विवाद है । ऐतरेय ब्राह्मण ग्रन्थ से यह प्रमाणित होता है कि आंध्रों का 500 ई. पू.में उदय हो चुका था ।ऐतरेय ब्राह्मण के अनुसार वे विश्वामित्र के वंशज थे ।स्मिथ पुराणों को आधार मानकर सातवाहनों का 460 वर्षों का शासनकाल बताते हैं ।डॉ. गोपालाचारी 235 ई. पू. से 255 ई. तक सातवाहनों का शासनकाल मानते हैं ।मत्स्यपुराण के अनुसार 460 वर्ष,ब्राह्मणपुराण के अनुसार 456 वर्ष,वायुपुराण में 411 वर्ष तथा विष्णुपुराण के अनुसार 300 वर्ष मानी गयी है ।दूसरी ओर डॉ. आर.जी. भंडारकर वायुपुराण की एक उक्ति का हवाला देते हुए कहते हैं की सातवाहनों का उदय 72 ई.से 73 ई. में हुआ था ।इनका मानना था कि कण्व शुंग शासकों के सेवक थे तथा पेशवाओं की भाँती दोनो ने साथ-साथ शासन किया था ।लेकिन भंडारकर का यह मंतव्य गलत था क्योंकि यह सर्वविदित की कण्व वंश के संस्थापक वासुदेव ने अंतीम शुंग शासक देवभूति की हत्या करके कण्व वंश की स्थापना की थी तथा सीमुक ने सुश्रमन की हत्या करके कण्व वंश का अंत किया था । डॉ. राय चौधरी ने भंडारकर द्वारा वायुपुराण के उस व्यक्तव्य की दी गयी परिभाषा को सही ढंग से परिभाषित करते हुए कहा कि सिमुक ने कण्व वंश का अंत करने के साथ साथ शुंग उपशासकों को भी समाप्त कर दिया था जो वासुदेव द्वारा पराजित होने से रह गए थे । ये कण्वों के समकालीन शुंग उपशासक थे ।सिमुक ने 29 ई.पू. में कण्व वंश के शासक सुश्रमन की हत्या करके कण्व वंश का अंत किया और सातवाहन वंश की स्थापना की ।

दोस्तों ये भी संभव है कि इन्होंने 500 ई.पू. से 60 ई.पू. तक अधीन शासन किया हो(जैसे एक काबिले के रूप में,बस्ती ,गांव या एक क्षेत्र विशेष के प्रधान के रूप में) और 60 ई.पू. के पश्चात जब इन्होंने मगध पर अधिकार कर लिया था तब इन्होंने अपने आप को स्वतंत्र शासक घोषित कर दिया हो और एक नए वंश के रूप में अपने आप को पेश किया हो ।क्योंकि उस समय भारत में जो सबसे बड़ी ताकत और सत्ता थी वह थी मगध की गद्दी ।मगर दोस्तों ये एक मान्य तथ्य नहीं है कि सातवाहनों का उस समय उदय हो चुका था क्योंकि यदि उस समय ये एक स्वतंत्र सत्ता के रूप में होते तो उस समय के जो मगध के शासक थे जैसे हर्यंक वंश,नन्द वंश अथवा मौर्य वंश इनमें कहीं न कहीं थोड़ा बहुत जिक्र जरूर आता जैसे इन वंशो के साथ सातवाहनों के युद्ध की घटनाएं ।इसलिए ये संभव है कि ये उस समय अधीन शासक रहें हों लेकिन स्वतंत्र सत्ता रही हो यह संभव नहीं है ।

यह भी संभव है कि कण्वों की हत्या से पहले ही इन्होंने अपने आप को स्वतंत्र घोषित कर सातवाहन वंश की स्थापना का दी हो और सुश्रमन की हत्या 29 ई. पू. में किसी और सिमुक ने की हो क्योंकि यहाँ सिमुक के कई नामों का उल्लेख है उन नामों का कोई और सातवाहन शासक हो ।क्योंकि यहाँ पर की चीजें मेल नहीं खा रहीं है जैसे ये बताया जा रहा है कि 60 ई.पू. में अन्तिम कण्व शासक सुश्रमन की हत्या करके सिमुक ने सातवाहन वंश की स्थापना की दूसरी ओर जब हम कण्वों के बारे में जानते हैं तो यह उल्लेख मिलता है कि सुश्रमन ने 29 ई.पू.तक शासन किया था जबकि सिमुक की स्वंय की 37 ई.पू. में हत्या हो जाती है ।बहरहाल दोस्तों इतिहासकारों ने जिस मत पर अधिक बल दिया है वो ये है कि 60 ई.पू. में सिमुक ने शासन संभाला ।

सिमुक(60 ई.पू.-37 ई.पू.)

सिमुक इस वंश का संस्थापक था ।सिमुक ने अन्तिम कण्व वंश शासक सुश्रमन की हत्या करके 60 ई.पू. में आंध्र में (कृष्णा और गोदावरी नदी की घाटियों में)आंध्र वंश अथवा सातवाहन वंश अथवा आंध्र सातवाहन वंश की स्थापना की ।पुराणों में सिमुक के कई नामों का उल्लेख मिला जैसे शिशुक,सिन्धुक तथा शिप्रक ।जैन अनुश्रुतियों के अनुसार सिमुक सभी धर्मों का सम्मान करता था तथा उसने अपने जीवनकाल में अनेकों जैन और बौद्ध मन्दिरों का निर्माण करवाया था ।सिमुक का मूल निवास स्थान बेल्लारी जिले में माना जाता है जहाँ सातवाहनों की बस्ती थी ।अपने शासनकाल के अंतिम वर्षों में वह पथभ्र्ष्ट तथा क्रूर और अत्याचारी हो जाता है ।जिस कारण उसके भाई कान्हा(कृष्ण) ने 37 ई. पू. में उसकी हत्या कर दी और शासन पर कब्ज़ा कर लिया ।

कान्हा (37 ई. पू.-20 ई. पू.)

सिमुक की हत्या करके उसका भाई कृष्ण(कान्ह) गद्दी पर बैठता है ।कृष्ण के समय सातवाहन राज्य का विस्तार नासिक(महारष्ट्र ) की ओर हुआ ।

शातकर्णी प्रथम (20 ई. पू.- 2 ई.)

शातकर्णी प्रथम सातवाहन वंश का तीसरा राजा रहा तथा वह इस वंश का प्रथम राजा था जिसने शातकर्णी की उपाधि धारण की ।शातकर्णी प्रथम सिमुक के पुत्र थे ।उसने अपनी शक्ति को सुदृढ़ करने अंगीय(अमिय) कुल के महारथी (महारथी) त्रनकयीरो की पुत्री नायानिका(नागनिका) से विवाह किया था ।ये वही नायानिका जिसका नानाघाट अभिलेख हमें पूना से प्राप्त हुआ है ।शातकर्णी प्रथम सातवाहन वंश की शक्ति और सत्ता का वास्तविक संस्थापक था ।उसने गोदावरी नदी के उत्तरी तट पर स्थित प्रतिष्ठान को अपनी राजधानी बनाया ।नानाघाट अभिलेख में उल्लेख मिलता है की शातकर्णी प्रथम ने पश्चिमी मालवा,विदर्भ तथा अनूप प्रदेश(नर्मदा घाटी) पर अपना आधिपत्य स्थापित कर लिया था ।उसके साम्राज्य में उत्तरी कोंकण,काठियावाड़,दक्कन,मध्य एवं पश्चिमी भारत का कुछ भाग शामिल था ।हाथीगुम्फा अभिलेख में शातकर्णी प्रथम और कलिंग नरेश खारवेल के बीच युद्ध का भी उल्लेख मिलता है ।

नानाघाट अभिलेख में उल्लेख मिलता है की शातकर्णी प्रथम ने कई उपाधियों को धारण किया था जैसे दक्षिणापथपति (दक्षिणापथ का स्वामी-इस उपाधि से यह सपष्ट होता है की शातकर्णी प्रथम ने दक्षिण के राज्यों को जीतकर अपने अधिकार में कर लिया था) ,पश्चिमपति,अप्रतिहतचक्र आदि ।शातकर्णी प्रथम ने दो अश्वमेध यज्ञ तथा एक राजसूय यज्ञ करवाया था जो इस बात को प्रमाणित करता है की शातकर्णी प्रथम एक शक्तिशाली सम्राट था और एक बहुत बड़े साम्राज्य का स्वामी था ।ब्रह्मणों और बौद्धों को भूमि दान देने का पहला अभिलेखीय साक्ष्य सातवाहन शासकों का ही प्राप्त हुआ है ।नानाघाट अभिलेख से जानकारी मिलती है कि शातकर्णी प्रथम के दो पुत्र थे शक्तिश्री और वेदश्री जो अभी अल्पव्यस्क थे तथा शातकर्णी प्रथम मृत्यु के पश्चात उनकी माता नागनिका ने शासन संभाला ।

शातकर्णी प्रथम की मृत्यु के पश्चात उसकी रानी नागनिका ने शासन संभाला ।अभिलेखों द्वारा इसकी जानकारी मिलती है ।हाथीगुम्फा अभिलेख तथा भेलसा अभिलेख से शातकर्णी द्वितीय के शासन का भी उल्लेख मिलता है ।इसके अलावा राजशेखर कृत काव्यमीमांसा और वात्स्यायन रचित कामसूत्र में भी शातकर्णी द्वितीय का वर्णन मिलता है ।शातकर्णी प्रथम के पश्चात् पहले कई सातवाहन शासकों का उल्लेख मिलता है जैसे शातकर्णी द्वितीय,अपिलक,कुंतल (कामसूत्र में जिक्र है),हाल इत्यादि ।इनमें हाल को छोड़कर बाकी नाममात्र के शासक थे ।हाल से पहले के शासकों के बारे में पर्याप्त जानकारी उपलब्ध नहीं है ।

हाल (20 ई.-24 ई.)

हाल सातवाहन वंश का 17वाँ शासक था ।गाथासप्तशती में हाल का वर्णन मिलता है ।वह एक विद्वान और कवि के रूप में प्रसिद्ध था तथा कवियों का आश्रय दाता था ।गाथासप्तशती(प्राकृत भाषा) की रचना हाल ने ही की थी जो एक काव्य संकलन है इसमें 700 श्लोक हैं।यह श्रंगारिक कविताओं का संकलन है जिसमें ग्राम्य जीवन की मनोहर झाँकी मिलती है ।बृहत्कथा (प्राकृत भाषा में रचित) के रचनाकार गुणाढ्य सातवाहन शासक हाल का समकालीन कवि था ।प्रकृत ग्रन्थ लीलवै में हाल की सैनिक उपलब्धियों पर प्रकाश डाला गया है।हाल के एक सेनापति विजयनंद ने लंका पर विजय प्राप्त की थी ।बाद में हाल ने लंका के शासक की पुत्री लीलावती से विवाह कर लिया ।हाल के शासनकाल के दौरान शक और सातवाहन में निरंतर संघर्ष चलता रहा ।

हाल के पश्चात् 24 ई. से 106 ई. तक सातवाहनों के किसी शासक के होने का उल्लेख नहीं मिलता है ।ऐसा लगता है शकों ने उनके शासन पर अधिकार कर लिया था और सातवाहन भागकर कहीं अन्यत्र चले गए थे या वे शकों के अधीन वहीं बसे रहे थे ।लेकिन गौतमीपुत्र शातकर्णी के समय सातवाहनों की शक्ति व प्रतिष्ठा पुनः लौट आती है ।

गौतमीपुत्र शातकर्णी (106 ई.-130 ई.)

गौतमीपुत्र शातकर्णी इस वंश का 23वां महान शासक था ।गौतमीपुत्र शातकर्णी ने पिछले 100 वर्षों से सातवाहनों की खोई हुई शक्ति एवं प्रतिष्ठा को पुनः स्थापित किया । गौतमीपुत्र शातकर्णी के पिता का नाम शिवस्वाति तथा माता का नाम गौतमी बलश्री था । गौतमीपुत्र शातकर्णी प्रथम मातृनामधारी सातवाहन शासक था । उसके समय में सातवाहन वंश के राजाओं ने अपने नाम के आगे माता का नाम लगाने की परम्परा चलाई । इससे यह स्पष्ट है कि उनके समय में स्त्रियों का बड़ा ही सम्मान होता था । गौतमीपुत्र शातकर्णी को आगमन निलय(वेदों का आश्रय) भी कहा गया है । गौतमीपुत्र शातकर्णी की पत्नी का नाम वशिष्ठी था ।

कहा जाता है की गौतमीपुत्र शातकर्णी के पिता शिवस्वाति भी बहादुर शासक थे परन्तु शकों के हाथों उन्हें पराजित होना पड़ा ।शकों द्वारा उन्हें अपमानित किया जाता है,उन्हें शकों के पैरों में अपनी तलवार रखनी पड़ती है और शकों के पैरों को धोना पड़ता है ।दोस्तों उस समय शकों की चार शाखाएं थी तक्षशिला में, मथुरा में तथा 2 शाखाएँ महाराष्ट्र में थीं क्षहरात वंश और कार्द्धमक वंश । नासिक का क्षहरात वंश जिसमें दो मुख्य शासक थे भूमक और नाहपान तथा कार्द्धमक वंश के मुख्य शासक चष्टन और रुद्रदामन थे । गौतमीपुत्र शातकर्णी उस समय का सबसे शक्तिशाली शासक था । एक बार गौतमीपुत्र शातकर्णी ने अपने आसपास के सभी राज्यों को ये सन्देश भिजवाया की वो अपनी तलवारें उसके यहाँ जमा करवा दें तथा उसकी अधीनता स्वीकार कर लें ,जो ऐसा नहीं करता है वो इसका भीषण परिणाम भुगतने के लिए तैयार रहे । गौतमीपुत्र शातकर्णी के डर से कई शासकों ने तलवारे जमा करवा दी ,लेकिन जिन राजाओं ने ऐसा नहीं किया उन्हें गौतमीपुत्र शातकर्णी ने युद्ध के द्वारा ऐसा करने के लिए विवश कर दिया । क्षहरात वंश का शक क्षत्रप नाहपन ने भी ऐसा करने से इंकार कर दिया इसके साथ ही नहपान ने तुच्छ हरकत करते हुए सातवाहन राज्य से कई बच्चों का अपरहण करवा लिया तथा इसके एवज में सातवाहन शासक गौतमीपुत्र शातकर्णी के अव्यवस्क पुत्र पुलमावी की मांग की । तब गौतमीपुत्र शातकर्णी ने नहपान से युद्ध करने का फैसला किया ।दोनों सेनाओं में भयंकर युद्ध होता है जिसमे नाहपान ने यवनों की भी सहायता ली थी परन्तु अन्तः शकों को सातवाहनों के हाथों पराजित होना पड़ता है ।

उपाधियाँ

दोस्तों कोई राजा तभी उपाधि धारण करता है जब वह कोई महान कार्य करता है और प्राचीन भारत में तो यह परम्परा ही थी कोई शासक साम्राज्य के लिए जैसा कार्य करता था था उसे वहां के पुरोहितों द्वारा उसी प्रकार दी उपाधि दी जाती थी । इसी परम्परा के अनुसार गौतमीपुत्र शातकर्णी को भी कई उपाधियों से नवाजा गया था । जैसे-

  1. वेणकटक स्वामी(गौतमीपुत्र शातकर्णी ने वेनकटक नाम का नगर बसाया था इसीलिए इसे यह उपाधि दी गयी),

  2. त्रि -समुद्र -तोय -पीत -वाहन {जैसा कि नाम से ही स्पष्ट है ऐसा शासक जिसके घोड़ों ने तीन समुन्द्रों पश्चमी सागर(आज का अरब सागर),भारत सागर(आज का हिन्द महासागर) तथा पूर्व सागर(आज की बंगाल की खाड़ी का पानी पिया हो,अर्थात गौतमीपुत्र शातकर्णी साम्राज्य की सीमाएं तीनों समुद्रों तक फैली हुई थीं } ।
  3. ख़तिय-दप-मान-मदनस (अर्थात परशुराम के समकक्ष ,क्षत्रियों के दर्प व् मान का मर्दन करने वाला ) ।
  4. सक-यवन-पह्लव-निसूदनस (यवनों व पहलवानों को रौंदने वाला )।
  5. वर-वरण-विक्रम -चारू-विक्रम(जिसकी चाल मस्त हाथी की तरह हो ) ।
  6. खखरात-वस्-निरवसेस-करस (अर्थात क्षहरात वंश के शक शासकों का उन्मूलन करने वाला )  ।
  7. सातवाहन-कुल-पतिथापन-करस (अर्थात सतवाहन कुल की प्रतिष्ठा को पुनः स्थापित करने वाला ) ।

इसके अलावा इसने स्वयं को राजा गज, विन्ध्य नरेश तथा विन्ध्य, ऋक्षावत, परियात्रा, सह्याद्रि और महेंद्र आदि पर्वतों का स्वामी भी घोषित किया ।हालाँकि ये अतिरंजना हो सकती है परन्तु ये जरूर स्पष्ट है की गौतमीपुत्र शातकर्णी एक दिग्विजय सम्राट था तथा उसके समय में सातवाहन साम्राज्य अपने चरमोत्कर्ष पर पहुँच गया था ।

गौतमीपुत्र शातकर्णी का नासिक का  गुहा अभिलेख

नासिक के गुहा अभिलेख से हमें गौतमीपुत्र शातकर्णी के बारे में पर्याप्त जानकारी प्राप्त होती है ।यह अभिलेख प्राकृत भाषा एवं ब्राह्मी लिपि में है ।नासिक अभिलेख के अनुसार गौतमीपुत्र शातकर्णी ने नासिक के बौद्ध भिक्षुओं को अजयकालकिय क्षेत्र की भूमि दान में दी थी । इस अभिलेख में नहपान तथा गौतमी की सेनाओं के मध्य उपर्युक्त भयंकर युद्ध का वर्णन मिलता है जिसमें नाहपान तथा उसका दामाद ऊषभदात दोनों मारे जाते है  ।इस अभिलेख के अनुसार उसे वेणकटक स्वामी भी कहा जाता है क्योंकि उनसे वेणकटक नामक नगर की स्थापना की थी(वैनगंगा जो गोदावरी नदी की सहायक नदी है इसके आस-पास यह युद्ध होता है और यहाँ पर वेणकटक नामक नगर की स्थापना की जाती है) ।

नासिक गुहालेख में गौतमीपुत्र द्वारा विजित निम्न क्षेत्रों का उल्लेख मिलता है-

  1. ऋषिक(कृष्णा नदी तथा तटीय प्रदेश),

  2. मूलक

  3. अस्मक(गोदावरी के तटीय क्षेत्र)

  4. सुराष्ट्र

  5. कुकुट(पश्चमी राजपूताना क्षेत्र)

  6. विदर्भ

  7. अपरान्त(उत्तरी कोंकण)

  8. अनूप (नर्मदा घाटी)

  9. अवन्ति(पश्चिमी मालवा)

  10. आकर(पूर्वी मालवा)

इस प्रकार गौतमीपुत्र शातकर्णी का साम्राज्य उत्तर में मालवा से लेकर दक्षिण में कृष्णा नदी तक तथा पूर्व में विदर्भ से लेकर पश्चिम में कोंकण तक फैला हुआ था ।

गौतमीपुत्र शातकर्णी का कार्ले अभिलेख

गौतमीपुत्र शातकर्णी के कार्ले अभिलेख में बौद्ध भिक्षुओं को करजक नामक ग्राम दान दिए जाने का उल्लेख है ।करजक पहले नाहपान के दामाद ऊषभदात के अधीन था जिसे उसने बौद्ध संघ को दान में दिया था तथा गौतमीपुत्र शातकर्णी द्वारा विजित करने के पश्चात इसे पुनः बौद्ध संघ को दान में दे दिया जाता है । इस प्रकार करजक ग्राम दो बार बौद्ध संघ को दान में दिया जाता है। जोगलथम्बी नामक स्थान से जो 13250 मुद्राएं प्राप्त हुई हैं जिनमें से दो-तिहाई मुद्राएं तो ऐसी थीं जो मूल रूप से नाहपान की थीं तथा जिन पर गौतमीपुत्र शातकर्णी ने पुनः खुदाई करवाई थी । यह गौतमीपुत्र शातकर्णी की नाहपान पर विजय का सूचक है ।

गौतमीपुत्र बलश्री का नासिक गुहा प्रशस्ति लेख

यह अभिलेख महाराष्ट्र के नासिक में एक गुफा से प्राप्त हुआ है ।इसमें गौतमीपुत्र शातकर्णी के बारे में काफी जानकारी मिलती है ।इस अभिलेख को गौतमीपुत्र शातकर्णी की माता गौतमी बलश्री की मृत्यु में पश्चात् वशिष्ठीपुत्र पुलुमावी के शासन काल में 141 ई. में उत्कीर्ण करवाया गया था  । इस अभिलेख को वशिष्ठीपुत्र पुलुमावी का नासिक गुहा अभिलेख भी कहा जाता है।इस अभिलेख से यह संभावित होता है कि गौतमीपुत्र शातकर्णी के पश्चात उसकी माता गौतमी बलश्री ने कुछ समय तक शासन किया था । इस अभिलेख में गौतमीपुत्र शातकर्णी की विजयों एवं धर्म के प्रति उसकी निष्ठा का उल्लेख मिलता है ।

गौतमीपुत्र शातकर्णी ब्राह्मण धर्म का पोषक होते हुए भी  एक धर्म सहिष्णु शासक था,उसने बौद्ध भिक्षुओं को भूमि दान दी तथा उसने वर्ण शंकर की प्रथा को रोकने के लिए चतुर्वर्ण व्यवस्था को पुनः स्थापित किया ।


वशिष्ठीपुत्र पुलुमावी (130 ई. -159 ई.)

वशिष्ठीपुत्र पुलुमावी सातवाहन वंश का 24वां राजा था तथा कार्द्धमक वंश के शक क्षत्रप चष्टन और रुद्रदामन का समकालीन था । वशिष्ठीपुत्र पुलुमावी गौतमीपुत्र शातकर्णी तथा वशिष्ठी का पुत्र था । पुलुमावी ने अपनी राजधानी गोदावरी नदी के निकट प्रतिष्ठान को बनाया । वशिष्ठीपुत्र पुलुमावी को दोनों शक शासकों से संघर्ष करना पड़ता है ।चष्टन ने पुलुमावी से कई प्रदेश छीन लिए । कन्हेरी अभिलेख से ज्ञात होता है की पुलुमावी को रुद्रदामन ने पराजित किया था । पुलुमावी ने रुद्रदामन की पुत्री से अपने भाई शिवश्री शातकर्णी का विवाह करवा कर अपनी स्थिति को मजबूत बनाने का प्रयास किया था । परन्तु इसके बावजूद भी शक-सातवाहन सम्बन्ध बहुत ज्यादा अच्छे नहीं रहे ।रुद्रदामन के गिरनार अभिलेख में उल्लेख मिलता है कि यद्धपि उसने दक्षिणापथ के स्वामी शातकर्णी को दो बार पराजित किया था परन्तु निकट सम्बन्धी होने के कारण उसने उसका विनाश नहीं किया । 

पुलुमावी के समय में सातवाहन साम्राज्य का विस्तार दक्षिण की ओर हुआ इसीलिए उसे पुलुमावी को दक्षिणापथेश्वर भी कहा जाता है।पुलुमावी के कुछ सिक्कों पर दो परवारों वाले जहाज का चित्र बना हुआ है जो पुलुमावी की विकसित नौ-सेना शक्ति का प्रमाण है । उसने नवनगर की स्थापना की जिस कारण उसे नवनगरस्वामी भी कहा जाता है ।वशिष्ठीपुत्र पुलुमावी ने आंध्र प्रदेश को पूर्णतया विजित कर लिया था (हालाँकि आंध्र के कुछ क्षेत्रों पर इनका पहले से ही अधिकार था) इसीलिए इसे प्रथम आंध्र सम्राट भी कहा जाता है ।वशिष्ठीपुत्र पुलुमावी के द्वारा अमरावती के स्तूप का संवर्द्धन करवाया गया तथा उसके चारों और वेष्टिनि बनवाई गई

गौतमीपुत्र शातकर्णी के अन्य उत्तराधिकारी

गौतमीपुत्र शातकर्णी उत्तराधिकारियों में वशिष्ठीपुत्र पुलुमावी के पश्चात् के 25वां शासक शिवश्री शातकर्णी (159 ई.-166 ई.) जो रुद्रदामन का दामाद तथा 26वां शासक शिवस्कंद शातकर्णी (167 ई.-174 ई.)था जिनके शासनकाल की कोई महत्वपूर्ण घटना का कहीं उल्लेख नहीं मिलता है ।

यज्ञश्री शातकर्णी (174 ई.-202 ई.)

यज्ञश्री शातकर्णी आंध्र सातवाहन वंश का 27वां व अंतिम महत्वपूर्ण शासक था । इसने सातवाहन वंश की प्रतिष्ठा को बनाये रखने का प्रयास किया तथा रुद्रदामन के उत्तराधिकारियों से उत्तरी कोंकण व् नर्मदा घाटी के क्षेत्र छीन लिए । उसने आंध्र तथा महाराष्ट्र पर अपना प्रभाव बरकरार रखा । यज्ञश्री शातकर्णी की मृत्यु के पश्चात सातवाहन साम्राज्य के विघटन की प्रक्रिया आरम्भ हो गयी । तथा 225 ई. तक यानि उसके लगभग 25 वर्षों के भीतर सातवाहन साम्राज्य पूर्णतया नष्ट हो गया । सातवाहन वंश का अन्तिम शासक पुलुमावी तृतीय था ।

सातवाहनों के पतन के पश्चात स्थापित स्वतंत्र राज्य

सातवाहनों के पतन के पश्चात अनेक स्वतंत्र राज्य स्थापित हुए । विदर्भ में वाकाटकों ने अपनी सत्ता स्थापित कर ली,दक्षिण-पूर्वी क्षेत्रों में पल्लवों ने स्वतंत्र राज्य स्थापित किया तथा आंध्र प्रदेश में इक्ष्वाकुओं ने अपनी सत्ता स्थापित की । इसके आलावा महाराष्ट्र में आभीर,मैसूर के कुछ भागों में कुन्तल और चुटु तथा उसके पश्चात कदम्ब शक्तिशाली हो गए ।

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