Magadha empire ~ मगध साम्राज्य (भाग-2) ~ Ancient India

Magadha empire ~ मगध साम्राज्य (भाग-2)

नमस्कार दोस्तों,दोस्तों हमने पिछली पोस्ट में आपको जानकरी दी थी मगध के राजवंशों के इतिहास की जिसमे हमने वृदृथ वंश से नन्द वंश तक के शासकों के बारे में आपको बताया । दोस्तों ये क्रम अभी पूरा नहीं हुआ है । नन्द वंश के बाद जिन राजवंशों ने मगध पर शासन किया था उनके बारे में हम आपको क्रमानुसार जानकारी देंगे । भाग-2 में हम आपको बताएंगे मौर्य वंश के बारे में ।

मौर्य वंश

दोस्तों मौर्य वंश को भारत का मुक्तिदाता भी कहा जाता था । मौर्य वंश की स्थापना चन्द्रगुप्त मौर्य ने की थी ।

मौर्यों की उत्पत्ति

ब्राह्मण साहित्यों (पुराणों)में मौर्यों को शुद्र कहा गया है।इसके अलावा मुद्राराक्षस में जिसकी रचना विशाखदत्त ने की थी,विष्णुपुराण में, बृहतकथामंजरी में जिसकी रचना क्षेमेन्द्र ने की थी तथा कथासरित्सागर जिसकी रचना सोमदेव ने की थी में भी मौर्यों को शूद्र कहा गया है ।मुद्राराक्षस में एक जगह तो यह वर्णन भी मिलता है कि नन्द वंश का अंतिम राजा घनानन्द शुद्र था जिसकी एक पत्नी जिसका नाम मुरा था वो भी शुद्र थी ओर चन्द्रगुप्त मौर्य इसी की संतान थी इसलिए चन्द्रगुप्त मौर्य शुद्र था ।लेकिन बौद्ध और जैन मतों के अनुसार मौर्य क्षत्रिय थे ।

बौद्धग्रंथ दिव्यवदान में बिन्दुसार ओर अशोक को क्षत्रिय कहा गया है।चूंकि बिन्दुसार के पिता चन्द्रगुप्त मौर्य थे इस प्रकार चन्द्रगुप्त मौर्य भी क्षत्रिय थे ।जैन ग्रन्थ परिशिष्टपर्वन जिसकी रचना हेमचन्द्र ने की थी में भी मौर्यों को क्षत्रिय बताया है इसमें ये भी लिखा है कि मौर्य मोर पालने का कार्य करते थे तथा इनका राजकीय चिन्ह मोर था।ग्रुनवेडेल ने सबसे पहले मौर्यों का राष्ट्रीय चिन्ह मोर बताया है ।इतिहास में सर्वाधिक मत जैन और बौद्ध ग्रंथों की इस बात पर दिया गया है कि मौर्य क्षत्रिय थे ।

मौर्य साम्राज्य की जानकारी के स्त्रोत

मौर्य साम्राज्य के बारे सर्वाधिक जानकारी हमें अर्थशास्त्र से मिलती है जिसकी रचना चाणक्य ने की थी । इसके आलावा मौर्य साम्राज्य की जानकारी के मुख्य स्त्रोत हैं इंडिका जिसकी रचना मैगस्थनीज ने की थी,रूद्रदामन के जूनागढ़ अभिलेख से,मुद्राराक्षस जिसकी रचना विशाखदत्त ने की थी,बौद्ध ग्रन्थ,जैन ग्रन्थ,पुराण,अशोक के अभिलेख आदि तथा जस्टिन,प्लूटार्क और एरियन जैसे महान विद्वान इस पर अपना-अपना मत दे चुके हैं ।

सामाजिक स्थिति

नंदवंश के अंतिम राजा घनानंद के समय सामाजिक स्थिति बहुत ख़राब थी,समाज में असंतोष व्याप्त था ।इसी समय 325 ई.पू. में सिकन्दर ने भारत के उत्तरी-पश्चिमी राज्यों पर आक्रमण कर दिया था जिसमें पोरुष हार गया था और इस क्षेत्र पर सिकन्दर का कब्जा हो गया था । 323 ई.पू. में बेबीलोन में सिकन्दर की मृत्यु हो जाती है।उसकी मृत्यु के पश्चात सिकन्दर के सेनापति विजित राज्यों के बंटवारे को लेकर आपस में लड़ते हैं ।तभी इनके बीच एक संधि होती है जिसे बेबिलोन की संधि कहा जाता है,कुछ समय पश्चात इनके बीच एक ओर संधि होती है जिसे ट्रिपरेन्डिस की संधि भी कहा जाता है।

चाणक्य

चाणक्य तक्षशिला के आचार्य थे ।चाणक्य के पिता महर्षि चणक थे ।इनके बचपन का नाम विष्णुगुप्त था इसके अलावा उन्हें कौटिल्य(कुटिल बुद्धि वाला)'अंशुल, अंशु,अंगुल,वात्सयायन तथा कात्यायन आदि ।पुराणों में चाणक्य को द्विजर्षभ कहा गया है जिसका अर्थ है श्रेष्ठ ब्राह्मण इसके अलावा इन्हें भारत की मेकियावली भी कहा जाता है ।चाणक्य ने अर्थशास्त्र की रचना की जो राजनीति ओर प्रशासन से सम्बंधित ग्रंथ है ।यह ग्रंथ कुल 15 खण्डों में 180 प्रकरणों तथा 6000 श्लोकों में बंटा हुआ है । इसके अलावा चाणक्य ने सप्तांग सिद्धांत का वर्णन किया है जिसमें बताया गया है कि एक राजा को किन-किन सात सिद्धान्तों का पालन करना चाहिए ।अर्थशास्त्र के अनुसार जो शुद्र जाती थी वही आगे चलकर आर्य कहलाते हैं।दोस्तों उपर्युक्त जानकारी आपको इसलिए दी जा रही है क्योंकि ये सभी मौर्य साम्राज्य से सम्बंधित है तथा जो मौर्य साम्राज्य के इतिहास को जानने का इच्छुक है उसके लिए ये जानकारियां भी आवश्यक है।दोस्तों इतिहास को रटा नहीं जा सकता बल्कि इसे कड़ी से कड़ी जोड़कर आसानी से समझा जा सकता है ।

चन्द्रगुप्त मौर्य

दोस्तों,एक बार किसी बात को लेकर नन्द वंश के राजा घनानन्द और चाणक्य के बीच में विवाद हो जाता है जिस पर घनानन्द चाणक्य को अपमानित करके महल से घक्के मारकर निकल देता है ।चाणक्य को यह बहुत बुरा लगता है और वह नन्द वंश का समूल विनाश करने की कसम खाता है ।चाणक्य विन्ध्याचल के जंगलों में जाते है जहाँ पर उसकी मुलाकात एक बालक से होती है जिसका नाम था चंद्रगुप्त मौर्य जो उस समय राजकीलम नामक खेल में व्यस्त था।चाणक्य चन्द्रगुप्त से बड़ा प्रभावित होता है,चाणक्य ने 1000 कार्षापण देकर उसे खरीद लिया ।इसके पश्चात उसे तक्षशिला ले आता है और 7-8 वर्षों तक राजनीतिक और सैन्य प्रशिक्षण प्रदान करते है ।

यूनानी ग्रंथों में चन्द्रगुप्त मौर्य के तीन अन्य नामों का भी उल्लेख मिलता है सैंड्रोकोट्स,एण्ड्रोकोट्स और सेंड्रोकॉप्टस ।जस्टिन के अनुसार सिकन्दर ने चन्द्रगुप्त से मुलाकात की थी ।

चन्द्रगुप्त मौर्य के युद्ध अभियान

चन्द्रगुप्त का प्रथम युद्ध

बौद्ध ग्रन्थ महाबोधिवंश तथा जैन ग्रन्थ परिशिष्टपर्वन के अनुसार चंद्रगुप्त मौर्य ने उतावलेपन में सीधे मगध पर आक्रमण कर दिया जिसमे उसकी पराजय होती है ।परिणामस्वरूप चन्द्रगुप्त मौर्य और चाणक्य को मगध से भागना पड़ता है ।

पंजाब-सिंध विजय

चन्द्रगुप्त अपनी गलतियों से प्रेरणा लेता है और फिर से पूरी तैयारी के साथ मगध साम्राज्य के उत्तर-पश्चिम में स्थित पंजाब पर आक्रमण करता है और पंजाब को जीत लेता है ।पंजाब की जनता चन्द्रगुप्त की सहायता करती है ।इसके पश्चात् वह जनता की सहायता से सिंध पर भी कब्जा कर लेता है।कहा जाता है कि दोनों युद्ध में चन्द्रगुप्त ने पर्वतक नामक राजा की मदद ली थी जिसका परिशिष्टपर्वन और मुद्राराक्षस में भी उल्लेख मिलता है ।दोस्तों कहा ये भी जाता है की चंद्रगुप्त पंजाब अभियान के दौरान सिकन्दर से मुलाकात करता है ।तब किसी बात को लेकर दोनों में विवाद हो जाता है और सिकन्दर चन्द्रगुप्त को मार डालने का हुक्म देता है परन्तु उस समय तो चंद्रगुप्त वहां से भाग जाता है ।जैसा की हमने आपको ऊपर बताया था कि इस क्षेत्र पर सिकन्दर ने कब्ज़ा कर लिया था ।सिकन्दर के भारत से जाने के बाद चन्द्रगुप्त ने पंजाब की जनता को यूनानियों के विरुद्ध भड़काया और जनता की मदद से यूनानियों को खदेड़कर उन क्षेत्रों पर कब्ज़ा कर लिया ।

मगध पर विजय(322 ई.पू.)

पंजाब और सिंध पर विजय प्राप्त करने के पश्चात चन्द्रगुप्त और चाणक्य मगध की राजधानी पाटिलपुत्र की तरफ बढे और रास्ते में पड़ने वाले छोटे-छोटे क्षेत्रीय राज्यों पर उसने विजय प्राप्त की ।पर्वतक और चंद्रगुप्त की संयुक्त सेनाओं ने राजधानी पाटिलपुत्र को घेर लिया ।दोनों के बीच भीषण युद्ध होता है जिसमे मगध का सेनापति भद्दसाल और सम्राट घनान्द दोनों मारे जाते हैं ।इसके साथ ही नन्द वंश समाप्त होता है और मौर्य वंश का उदय होता है ।

मात्र 25 वर्ष की आयु में 322 ई.पू.में वह राजा बन जाता है ।चन्द्रगुप्त पाटिलपुत्र को अपनी राजधानी बनाता है ।दोस्तों पटना के पास बुलंदीबाग और कुम्रहार नामक जगह है जहाँ पर इसके अवशेष मिले हैं ।मौर्य साम्राज्य का राजकीय चिन्ह मयूर था तथा भाषा पाली थी ।

सेल्यूकस से संघर्ष व् संधि(305 ई.पू.)

दोस्तों जैसा की हमने उपर आपको बताया कि 323 ई.पू. में सिकन्दर की मृत्यु के पश्चात सिकन्दर के सेनापतियों के बीच एक संधि होती है,इस संधि के अनुसार सिकन्दर के विजित प्रदेशों को उन्होंने आपस में बांट लिया ।उस समय सिकन्दर का एक सेनापति था सेल्यूकस निकेटर जो सिकन्दर की मृत्यु के पश्चात उसके विजित पूर्वी प्रदेशों का उत्तराधिकारी था,जिसमें भारत के भी कुछ प्रदेश थे जिन पर वह पुनः अधिकार करना चाहता था ।इस उद्देश्य से वह 305 ई.पू. में भारत पर चढ़ाई करता और काबुल होते हुए सिंधु नदी पार करता है ।लेकिन यहाँ आकर वह देखता है की सिकंदर के समय के भारत और अब में बहुत भिन्नता आ गयी थी,अब यहाँ छोटे-छोटे राज्यों के स्थान पर चन्द्रगुप्त का संगठित साम्राज्य था ।एक लम्बे संघर्ष के बाद चन्द्रगुप्त के हांथों सेल्यूकस की पराजय होती है और उसे चन्द्रगुप्त मौर्य से संधि करनी पड़ती है ।इस संधि के परिणाम स्वरूप उसने चन्द्रगुप्त को सिंधु पर के प्रदेश दिए जो हैं हेरात, पेरोपनिसडाई (काबुल), अराकोसिया(कंधार), जेड्रोसिया (बलूचिस्तान)। इसके साथ ही अप्पियन एवं स्टैबो के अनुसार उसने अपनी बेटी का विवाह भी चन्द्रगुप्त के साथ कर दिया था।स्ट्रैबो के अनुसार चन्द्रगुप्त सेल्यूकस को 500 हाथी भी उपहार स्वरूप देता है ।सेल्यूकस ने अपने एक राजदूत मेगस्थनीज को भी मौर्य दरबार में भेजा था ।चंद्रगुप्त के लिए यह संधि बहुत ही महवत्पूर्ण थी क्योंकि उसके साम्राज्य की सीमा अब भारत पार पारसीक साम्राज्य की सीमा को छूने लगी थी ।

पश्चिम भारत पर विजय

दोस्तों, रुद्रदमन के जूनागढ़ अभिलेख से इस बात की जानकारी मिलती है की चंद्रगुप्त मौर्य ने पश्चिम भारत में सौराष्ट्र तक के प्रदेश जीत लिए थे तथा पुष्यगुप्त वैश्य को गवर्नर के रूप में वहाँ नियुक्त किया था ।उसने वहाँ सुदर्शन नामक झील भी बनवाई थी। महाराष्ट्र के थाना जिले के सोपारा नामक जगह पर मिले अशोक के शिलालेख से भी इस बात की पुष्टि होती है चंद्रगुप्त मौर्य का पश्चिम भारत पर अधिकार हो गया था,तथा अशोक के अभिलेख भी इस क्षेत्र को अशोक द्वारा जीते जाने का दावा नहीं करते है ।इससे स्पष्ट होता है कि सौराष्ट्र के दक्षिण में सोपारा तक का क्षेत्र चंद्रगुप्त द्वारा ही जीता गया था ।

दक्षिणी भारत पर विजय

मैसूर से प्राप्त अभिलेखों से यह प्रमाणित होता है कि उत्तरी मैसूर उस समय चंद्रगुप्त के अधिकार क्षेत्र में था ।अशोक के अभिलेख से भी मैसूर पर चंद्रगुप्त के शासन होने के प्रमाण मिलते हैं,इस प्रकार विंध्य पर्वत के दक्षिणी हिस्से पर चंद्रगुप्त के अधिकार से मौर्य साम्राज्य का काफी विस्तार हो गया था ।

चन्द्रगुप्त का साम्राज्य विस्तार

इस प्रकार चन्द्रगुप्त का साम्राज्य लगभग पुरे भारत में फ़ैल गया था,मगध साम्राज्य का उत्कर्ष जो हर्यंक वंश के बिम्बिसार के समय शुरू हुआ था चंद्रगुप्त के समय में वह चरमोत्कर्ष पर पहुँच गया था ।चंद्रगुप्त का साम्राज्य उत्तर-पश्चिम में हिंदुकुश से लेकर दक्षिण में उत्तरी कर्नाटक तक तथा पूर्व में मगध से लेकर पश्चिम में सौराष्ट्र तक फैल गया था ।

चन्द्रगुप्त का अंतिम समय

ऐसे प्रमाण मिलते हैं कि चंद्रगुप्त जैन धर्म का समर्थक था,जीवन के अंतिम समय में उसने अपना राजकाज अपने पुत्र बिंदुसार को सौंप दिया था,तथा संव्य जैन आचार्य भद्रबाहु से शिष्यता प्राप्त कर उसके साथ श्रवणबेलगोला (मैसूर) चला गया था जहाँ 298 ई.पू. में उसकी मृत्यु हो गयी ।

वह भारत का प्रथम महान ऐतिहासिक सम्राट था जिसके नेतृत्व में चक्रवर्ती सम्राट के आदर्श को वास्तविक सवरूप प्रदान किया गया ।चन्द्रगुप्त मौर्य को मुक्तिदाता भी कहा जाता है क्योंकि उसने एक तरफ तो घनानन्द के अत्याचारों से परेशान मगध की जनता को मुक्ति दिलाई वहीं दूसरी तरफ पंजाब सिंध में युनानियों के प्रभुत्व को समाप्त कर भारत को विदेशी दासता से मुक्ति दिलाई ।चन्द्रगुप्त मौर्य एक अत्यंत कुशल और योग्य प्रशासक था ।मौर्य साम्राज्य की प्रशासनिक व्यवस्था और सुव्यवस्थित साम्राज्य उसकी रचनात्मक प्रतिभा तथा उसके प्रधानमंत्री चाणक्य की सूझ-बूझ का ही परिणाम था ।

बिन्दुसार(298 ई.पू.-273 ई.पू.)

बिन्दुसार के बचपन का नाम सिंहसेन था इसके आलावा भी बिन्दुसार को कई ओर नामों से जाना जाता था अमित्रचेट्स, अमित्रकेट्स, अमित्रघात, अमित्रोकेडीज,  अमित्रकेटे इत्यादि । इसके आलावा वायुपुराण में इसे भद्रासार कहा गया तथा स्ट्रैबो इसे अलीट्रोकेडस कहते हैं।बिन्दुसार चन्द्रगुप्त की दूसरी पत्नी दुर्धरा के पुत्र थे जिसका वर्णन हेमचन्द्र रचित जैन ग्रन्थ परिशिष्टपर्वन में मिलता है ।

ऐसा उल्लेख मिलता है की बिन्दुसार के 16 रानियाँ और 101 पुत्र थे ।सिंहली अनुश्रुति के अनुसार अशोक ने अपने 99 भाइयों की हत्या कर दी थी ।

बिन्दुसार के शासकाल के दौरान कोई विशेष सामरिक घटना नहीं घटी थी,क्योंकि उसे एक विशाल साम्राज्य अपने पिता चन्द्रगुप्त से प्राप्त हुआ था जिसे उसने अक्षुण्ण बनाये रखा।केवल कलिंग और सुदूर दक्षिण के राज्य ही उसके साम्राज्य से बाहर थे जिनके साथ बिन्दुसार की मित्रता थी इस कारण बिन्दुसार ने इन राज्यों को जीतना जरुरी नहीं समझा ।

तक्षशिला विद्रोह

बिन्दुसार के शासनकाल में तक्षशिला में एक विद्रोह होता है जिसका मुख्य कारण सुसीम के अमात्यों(मंत्रियों) द्वारा तक्षशिला की जनता पर अत्याचार था ।अमात्यों के अत्याचारों से परेशान होकर तक्षशिला की जनता विद्रोह कर देती है ।उस समय तक्षशिला का गवर्नर बिंदुसार का बड़ा बेटा सुसीम(सुमन) था जो इस विद्रोह का दमन करने की कोशिश करता है परंतु असफल रहता है ।तत्पश्चात वह अपने दूसरे बेटे अशोक को यहाँ शासन-व्यवस्था स्थापित करने के लिए भेजता है जो उस समय उज्जैन का गवर्नर था ।अशोक के वहां पहुंचते ही विद्रोही जनता ने उसका स्वागत किया तथा अपनी परेशानी बताई ।अशोक ने जनता के रोष को बिना शस्त्र प्रयोग किये शांत कर दिया और विद्रोह समाप्त हो गया ।

बिन्दुसार के यूनानी राज्यों से सम्बन्ध

बिन्दुसार के समय भी भारत का पश्चमी यूनानी राज्यों के साथ मैत्री सम्बन्ध कायम रहा ।यूनानी लेखक एथेनियस के अनुसार बिन्दुसार एवं एण्टियोकस-I के बीच मैत्रीपूर्ण पत्र व्यवहार था ।एण्टियोकस-I जो की सेल्यूकस निकेटर का उत्तराधिकारी व सीरिया का तत्कालीन शासक था से पत्र द्वारा बिन्दुसार ने मीठी शराब,सूखी अंजीर तथा दार्शनिक की मांग की थी ।एण्टियोकस-I ने पहली दो वस्तुएँ तो भिजवा दी परंतु दार्शनिक के बारे में यह कहकर भेजने से इंकार कर दिया सीरियाई नियमों के अंतर्गत यहाँ दार्शनिकों का विक्रय नहीं किया जाता है परन्तु बिन्दुसार के यह समझाने पर कि वह दार्शनिक को खरीदने की बात नहीं कर रहा है सीरियाई शासक ने डायमेकस को अपना राजदूत बनाकर बिन्दुसार के दरबार में भेजा जो यहाँ मेगस्थनीज के स्थान पर आया था । प्लिनी के अनुसार तत्कालीन मिश्र शासक फिलाडेल्फस(टॉलेमी-II) ने डायोनिसस को अपना राजदूत बनाकर बिन्दुसार के दरबार में भेजा था ।

प्रशासन के क्षेत्र में बिन्दुसार ने अपने पिता चंद्रगुप्त का ही अनुगमन किया ।उसने अपने साम्राज्य को प्रान्तों में विभाजित किया तथा प्रत्येक प्रान्त में एक उपराजा नियुक्त किया ।बिन्दुसार की सभा में 500 सदस्यों वाली एक मंत्रिपरिषद थी जिसका प्रधान खल्लाटक था जो चाणक्य के बाद मंत्रिपरिषद का प्रधान बना था खल्लाटक के पश्चात मंत्रिपरिषद का प्रधान राधागुप्त बनता है जो कि चाणक्य का शिष्य था चाणक्य की मृत्यु पर राधागुप्त ने ही उसका संस्कार किया था।अपने पिता चंद्रगुप्त की तरह ही बिन्दुसार धार्मिक मामलों में रुचि रखता था वह आजीवकों से अत्यधिक प्रभावित था उन्हें संरक्षण प्रदान करता था ।बिंदुसार ने 25 वर्षों तक शासन किया था तथा 273 ई.पू. में उसकी की मृत्यु हो गयी ।

अशोक(273 ई.पू.-232 ई.पू.)

सम्राट अशोक का जन्म 304 ई. पू. में पाटलिपुत्र में हुआ था ।सम्राट अशोक के पिता का नाम बिन्दुसार तथा माता का नाम शुभद्रांगी था ।अशोक की माता चम्पा के एक ब्राह्मण की बेटी थी ।सम्राट अशोक चन्द्रगुप्त मौर्य के पौत्र थे ।

दिव्यावदान में उल्लेख मिलता है की सम्राट अशोक की कई रानियाँ थीं जिनमें से एक का नाम था देवी जो विदिशा की शाक्य राजकुमारी थी जो अत्यंत ही सुन्दर थी ।इसी रानी से उसके एक पुत्र हुआ जिसका नाम महेन्द्र था तथा दो पुत्रियां हुई जिनका नाम संघमित्रा तथा चारुमती था।उनकी अन्य रानियों का नाम कारुवाकी, असंधिमित्रा, पद्मावती तथा तिष्यरक्षिता था । इसके आलावा उसके कई और बेटों के नामों का भी उल्लेख मिलता है जैसे-कुणाल(पद्मावती का बेटा),जालौक तथा तिवर(कारुवाकी का बेटा)।

सम्राट के अभिलेखों में उसके कई नामों का उल्लेख मिलता है जैसे देवप्रिय जो उसका प्रसिद्ध नाम था ज्यादातर अभिलेखों में इसी नाम का उल्लेख मिलता है,प्रियदर्शी तथा प्रियदस्सी इन दोनों नामों का उल्लेख भाब्रु अभिलेख में मिलता है जो राजस्थान में है,मास्की गुर्जरा अभिलेख जो उज्जैन में है अशोक नाम का उल्लेख मिलता है इसके आलावा बुद्ध शाक्य नाम का भी उल्लेख इसी अभिलेख में मिलता है,पुराणों में इसे अशोकवर्धन कहा गया है इसके अलावा अशोक के अभिलेख नेत्तूर अभिलेख,उडेगोलम अभिलेख कालसी अभिलेख,रुद्रदामन का जूनागढ़ अभिलेख और लगभग पुरे भारत,पाकिस्तान,अफगानिस्तान तथा यूनानी क्षेत्रों में भी मिले हैं ।

अशोक का राज्याभिषेक(273 ई.पू.)

273 ई.पू. में बिन्दुसार की मृत्यु के पश्चात सम्राट अशोक गद्दी पर बैठा जबकि उसका राज्याभिषेक 269 ई.पू. में हुआ ।दोस्तों सिंहली अनुश्रुतियों के अनुसार अशोक ने मगध का सम्राट बनाने के लिए अपने 99 भाइयों की हत्या करवा दी थी ।यह अतिशयोक्ति लगती है ।लेकिन इतना अवश्य है कि उत्तराधिकार युद्ध हुआ था और क्योंकि अशोक के मुकुट पहनते ही उसके सभी भाई उसके दुश्मन बन गये थे और जिन्होंने अशोक का विरोध किया ।इस उत्तराधिकार संघर्ष को समाप्त होने में 4 वर्ष लग गये जिसमें अशोक का बड़ा भाई सुसीम मारा गया।अशोक के गद्दी संभालने और शासन को पूरी तरह व्यवस्थित के बीच में 4 साल के इस अंतराल से यह स्पष्ट होता है कि अशोक ने इस अंतराल में अपने विरोधियों को समाप्त किया ।इस उत्तराधिकार युद्ध का उल्लेख महावंश,दीपवंश,विव्यवदान,चीनी ग्रन्थ फा-यूएन-चुलिन और तिब्बती लेखक तारानाथ के ग्रंथों से भी प्राप्त होता है ।उत्तराधिकार इस सारे घटनाक्रम में तथा अशोक को मगध का मुकुट दिलाने में सबसे बड़ा सहयोग राधागुप्त का था जो अशोक के मंत्रिमंडल का प्रधानमंत्री था ।

दोस्तों,अब बात करतें हैं कि अशोक के 99 भाइयों की हत्या की,क्या सचमुच अशोक ने अपने भाइयों की हत्या की थी,क्या वो इतना निर्दयी था दोस्तों,कहा जाता है की सम्राट अशोक एक क्रूर शासक था,उसने राजधानी में कई यातनागृह भी बनवा रखे थे और उसने देशद्रोह के शक में अपने कई सैनिकों को मौत के घाट भी उतार दिया था ।परन्तु अशोक के 14 शिलालेखों में से 5 वें शिलालेख में अशोक के जीवित भाइयों और उसके परिवार का उल्लेख मिलता है ।दोस्तों, यह कैसे संभव है यदि अशोक अपने 99 भाइयों की हत्या करके गद्दी पर बैठता तो राजा बनने के बाद उसने जब ये शिलालेख बनवाये थे उस समय ये जीवित कैसे थे ।दोस्तों,इससे यह सपष्ट होता है कि या तो ये शिलालेख झूठे थे या अशोक ने अपने भाइयों की हत्या सम्राट बनने के बाद करवाई थी ।

कलिंग विजय (261 ई.पू.)

दोस्तों,अपने राज्याभिषेक के 8 वर्ष बाद यानि 9 वें वर्ष में महानदी और गोदावरी नदी के बीच में स्थित कलिंग राज्य पर आक्रमण पर अशोक ने आक्रमण कर दिया ।इसकी जानकारी हमें अशोक के 13 वें शिलालेख में मिलती है ।हाथीगुम्फा अभिलेख के अनुसार उस समय कलिंग का राजा नंदराज था तथा राजधानी तोसली थी ।

कलिंग युद्ध के कारण

  1. अशोक की साम्राज्य विस्तार की नीति - अशोक दक्षिण भारत के राज्यों से सम्बन्ध स्थापित करना चाहता था इसके लिए उसे अजन्ता-एलोरा की पहाड़ियों से होकर गुजरना था जो की दुर्गम रास्ता था,यदि वह कलिंग को जीत लेता है तो उसके लिए पाटिलपुत्र से दक्षिण भारत जाने का रास्ता आसान हो जाता है,इसके साथ ही वह कलिंग को जीतकर अपने साम्राज्य का विस्तार करना चाहता था ।
  2. व्यपार की दर्ष्टि से महत्वपूर्ण राज्य- चूँकि कलिंग उडीसा के क्षेत्र में स्थित था जहाँ वह बंगाल की खाड़ी से समुंद्री रास्तों द्वारा विदेशों में व्यपार स्थापित करना चाहता था ।
  3. हाथियों की प्राप्ति- उस समय कलिंग क्षेत्र में अच्छी नशल के हाथी काफी मात्रा में थे,अशोक इन हाथियों को प्राप्त करना चाहता था ।

दोस्तों ये युद्ध इतना भयंकर थी की इसमें 100000 लोग मारे जाते हैं और 150000 लोग बंदी बना लिए जाते हैं ।युद्ध के बाद लाखों लोग अकाल,महामारी से मारे जाते हैं जो इस युद्ध की वजह से उपजी थी ।

कलिंग युद्ध के दीर्घकालीन परिणाम

सम्राट अशोक कलिंग युद्ध को तो जीत लेता है इस युद्ध में हुए व्यापक रक्तपात और नरसंहार से विचलित हो उठता है ।वह पश्चाताप की अग्नि में जलने लगता है।उसे युद्ध से घृणा हो जाती है ,उसे कोई राह नहीं सूझती तभी उसकी मुलाकात बौद्ध भिक्षु उपगुप्त से होती है जो उसे जीवन का सही मार्ग दिखाता है ।उपगुप्त की शिक्षाओं से प्रभावित होकर वह धम्म का आश्रय लेता है और जीवन में कभी युद्ध न करने,कभी शस्त्र न उठाने का प्रण लेता है ।

क्या था अशोक का धम्म?

वह बौद्ध धर्म का अनुयायी बन जाता है तथा धम्म की राह अपनाता है ।दोस्तों धम्म का अर्थ है धर्म,उस ज़माने में प्राकृत भाषा बोली जाती थी और धम्म प्राकृत भाषा एक शब्द है ।दोस्तों आपको यहाँ बताता चलूँ,महात्मा बुद्ध के समय यहाँ पाली भाषा बोली जाती थी,उसके बाद जैन धर्म आया फिर यहाँ प्राकृत भाषा बोली जाने लगी कालांतर से यह भाषा यहाँ चली आ रही थी और उसी भाषा का प्रयोग करते हुए धम्म कहा जबकि अशोक ने बौद्ध धर्म अपनाया था ।दोस्तों इस का उद्देश्य क्या है- धम्म साधुता है, कल्याणकारी मार्ग को अपनाना धम्म है, दया,मधुरता,दान और पाप रहित जीवन ही धम्म है ।इसके आलावा धम्म की सम्पूर्ण व्याख्या अशोक के दूसरे और सातवें शिलालेख में की गयी ।बौद्ध धर्म के प्रति उसकी आस्था इतनी बढ़ गई थी की उसने दूर देशों तक इसका प्रचार करवाया ।उसने अपने पुत्र महेन्द्र तथा अपनी पुत्री संघमित्रा को बौद्ध धर्म के प्रचार-प्रसार के लिए श्रीलंका भेजा तथा बहुत से धर्म प्रचारकों को उसने बर्मा,गांधार,यवन देश तथा भारत के अन्य हिस्सों में भेजा ।

अशोक का साम्राज्य

अशोक का साम्राज्य नेपाल से बंगाल की खाड़ी,दक्षिण में कर्णाटक,पश्चिम में गुजरात के काठियावाड़ से अफ़ग़ानिस्तान तक फैला हुआ था ।अशोक ने अपने राजयभिषेक के 7 वें वर्ष में कश्मीर और खोतान/खोतन जो कश्मीर के उत्तर में चीनी तुर्किस्तान में स्थित था को जीतकर अपने साम्राज्य में मिला लेता है ।कल्हण की राजतरंगिणी के अनुसार अशोक ने कश्मीर में श्रीनगर की स्थापना की थी ।तारानाथ के अनुसार अशोक ने खस(खस्य) और नेपाल में हुए विद्रोह को भी शांत किया था ।

अशोक ने अपनी पुत्री चारुमति का विवाह नेपाल नरेश देवपाल से किया था तथा चारुमति ने देवपाटन नामक नगर बसाया ।नेपाल में ललितपतन नामक नगर भी सम्राट अशोक ने ही बसाया था ।राजतरंगिणी के अनुसार अशोक अपने शासनकाल के 10 वें वर्ष में बोधगया की यात्रा करता है जहाँ महात्मा बुद्ध ने शिक्षा प्राप्त की थी तथा अपने शासनकाल के 20 वें वर्ष में वह लुम्बिनी की यात्रा करता है जहाँ बुद्ध का जन्म हुआ था ।

अशोक के उत्तराधिकारी (232 ई. पू.-185 ई. पू.)

232 ई. पू. में सम्राट अशोक की मृत्यु हो गयी थी ।अशोक की मृत्यु के पश्चात उसके उत्तराधिकारियों ने लगभग 50 वर्ष तक शासन किया ।हिन्दू,बौद्ध और जैन अनुश्रुतियों में अशोक के उत्तराधिकारियों के नामों की सूची दी गयी है जो एक-दूसरे से मेल नहीं खाती है इसी कारण अशोक के बाद मौर्य साम्राज्य का क्रमबद्ध इतिहास जान पाना दुष्कर है पुराणों के अनुसार अशोक के बाद उसका पुत्र कुणाल गद्दी पर बैठता है .दिव्यावदान में उसे धर्मविवर्धन कहा गया है ।कुणाल अँधा था तथा शासन की वास्तविक बागडोर उसके पुत्र संप्रति के हाथ में थी ।राजतरंगिणी के अनुसार उसका पुत्र जालौक कश्मीर का स्वतंत्र शासक बन गया था तथा तारानाथ के अनुसार वीरसेन गांधार का स्वतंत्र शासक बन गया था ।इस प्रकार अशोक की मृत्यु के पश्चात मौर्य साम्राज्य दो भागों में विभाजित हो गया था ।पुराणों तथा हर्षचरित के अनुसार मौर्य वंश का अंतिम राजा वृहद्रथ था जिसकी उसके ही एक सेनापति पुष्यमित्र शुंग ने 185 ई. पू. में हत्या कर सत्ता पर कब्जा कर लिया और शुंग वंश नाम से एक नए वंश की स्थापना की ।


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