History of Gupta Dynasty ~ गुप्तवंश का इतिहास (भाग-5) ~ Ancient India

History of Gupta Dynasty ~ गुप्तवंश का इतिहास (भाग-5)

गुप्त वंश का इतिहास भाग-4 में आपने पढ़ा गुप्त वंश के अंतिम महत्वपूर्ण शासक स्कंदगुप्त के बारे में । इसी श्रंखला के 5वें व अंतिम भाग में हम जानेंगे स्कंदगुप्त के उत्तराधिकारियों यानी गुप्त वंश के अंतिम शासकों और गुप्त वंश के पतन के बारे में ।

स्कंदगुप्त के उत्तराधिकारी

स्कंदगुप्त की मृत्यु के पश्चात गुप्त साम्राज्य का पतन प्रारम्भ हो गया । उपलब्ध साक्ष्यों के आधार पर स्कंदगुप्त के उत्तराधिकारीयों के क्रम को निर्धारित करना बहुत ही मुश्किल है । फिर भी अनुमानित रूप से स्कंदगुप्त के उत्तराधिकारीयों के क्रम को इस प्रकार रखा जा सकता है-पुरुगुप्त(467 - 476 ई.), बुधगुप्त(477 -495 ई.), नरसिंहगुप्त 'बालादित्य' (495 -530 ई.), कुमारगुप्त-।। 'कर्मादित्य'(530-543 ई.) तथा विष्णुगुप्त (543-550 ई.) ।

पुरुगुप्त(467 - 476 ई.)

पुरुगुप्त ने वृद्धावस्था में गुप्त शासन की बागडोर संभाली । हालांकि उसने अल्प काल के लिए ही शासन किया था । पुरुगुप्त की माता का नाम महादेवी अनंतदेवी तथा पत्नी का नाम चंद्रदेवी था । परमार्थ की रचना 'वसुबंधुजीवनवृत्त' के अनुसार पुरुगुप्त बौद्ध धर्म का अनुयायी था ।

बुधगुप्त(477 -495 ई.)

स्कंदगुप्त के उत्तराधिकारीयों में बुधगुप्त सबसे शक्तिशाली राजा था । वह पुरुगुप्त का पुत्र था । उसकी माता का नाम चंद्रदेवी था । बुधगुप्त के कई अभिलेख मिले हैं जैसे- सारनाथ स्तम्भलेख, एरण स्तम्भलेख, दामोदरपुर ताम्रपत्र, पहाड़पुर ताम्रपत्र आदि । स्वर्ण मुद्राओं में बुधगुप्त की उपाधि 'श्रीविक्रम' मिलती है । बुधगुप्त के शासनकाल के दौरान ही गुप्त साम्राज्य के पतन के लक्षण दिखाई देने लगे थे काठियावाड़ में राज कर रहे वल्लभी के मैत्रक राजा द्रोणसिंह एवं बुंदेलखंड के परिव्राजक महाराज हस्तिन ने संकोच के साथ गुप्तों की सर्वोच्च सत्ता का जिक्र किया है । इसी तरह महिष्मती के सुबंधु अपने भूअनुदानों में गुप्त संप्रभुता का कहीं उल्लेख नहीं करते हैं । उत्तरी बंगाल के प्रांतीय प्रशासक उपरिक के स्थान पर स्वयं को उपरिक महाराज कहाने लगे थे । मालवा तथा सौराष्ट्र के प्रशासकों ने भी महाराज की उपाधि धारण कर ली थी । बुधगुप्त के सिक्के भी गुप्त साम्राज्य के पतन का संकेत देते हैं । कहने का भाव यही है कि गुप्त साम्राज्य एक विशाल भू-भाग में फैला था तथा बुधगुप्त इस योग्य नहीं था कि वह इस विशाल साम्राज्य को संभाल पाये । बुधगुप्त की इसी दुर्बलता का लाभ उठाते हुए उसके साम्राज्य के छोटे-छोटे उपराजाओं ने स्वयं को पहले तो गुप्त साम्राज्य के अधीन महाराज घोषित कर दिया तथा बाद में ये पूरी तरह से स्वतंत्र हो गए ।

इस प्रकार बुधगुप्त के शासनकाल में गुप्तवंश के पतन के पहले चरण का सूत्रपात हुआ । अभिलेखों के अनुसार बुधगुप्त के शासनकाल के कुछ उपशासकों के नाम इस प्रकार हैं -एरण स्तम्भलेख के अनुसार , मातृविष्णु ( पूर्वी मालवा का सामंत), सुरश्मिचन्द्र (अन्तर्वेदी यानी गंगा जमुना दोआब का शासक), दामोदर ताम्रपत्र के अनुसार ब्रह्मदत्त पुण्ड्रवर्द्धन भुक्ति का शासक आदि ।चीनी यात्री ह्वेनतसांग के विवरण से ज्ञात होता है कि बुधगुप्त बौद्ध मतावलम्बी था । उसने बौद्ध महाविहार को धन दान दिया था ।

नरसिंहगुप्त 'बालादित्य' (495 -530 ई.)

बुधगुप्त की मृत्यु के पश्चात उसका छोटा भाई नरसिंहगुप्त गुप्त साम्राज्य की गद्दी पर बैठता है । नरसिंहगुप्त के समय तक गुप्त साम्राज्य तीन भागों में बंट गया था- मगध जहां का शासक नरसिंहगुप्त था, मालवा जहाँ का शासक भानुगुप्त था तथा बंगाल जहाँ का शासक वैन्यगुप्त था ।

मालवा शाखा के गुप्त शासक भानुगुप्त का एरण से एक प्रस्तर स्तम्भलेख प्राप्त हुआ है । यह अभिलेख लगभग 510 ई. का है । इस अभिलेख में भानुगुप्त के सामंत गोपराज का उल्लेख मिलता है । वह हूणों के साथ युद्ध में लड़ता हुआ मारा गया था तथा उसकी पत्नी आग में जलकर सती हो गई थी । प्राचीन भारत के इतिहास में यह सती प्रथा के प्रचलन का प्रथम पुरातात्विक प्रमाण है ।

गुप्त साम्राज्य की तीनों शाखाओं में मगध का शासन सबसे शक्तिशाली था । नरसिंहगुप्त की सबसे बड़ी सफलता हूणों को पराजित करना था । ह्वेनतसांग के विवरण से ज्ञात होता है कि हूण नरेश मिहिरकुल ( तोरमाण का पुत्र तथा उसका उत्तराधिकारी) बड़ा ही क्रूर तथा आततायी था । मिहिरकुल ने मगध के गुप्त शासक बालादित्य(नरसिंहगुप्त) पर 528 ई.में आक्रमण किया था जिसमें वह पराजित हुआ तथा बन्दी बना लिया गया । बालादित्य ने अपनी माँ के कहने पर उसे छोड़ दिया ।

नरसिंहगुप्त बौद्ध मतानुयायी था । उसने बौद्ध भिक्षु वसुबंधु से शिष्यता प्राप्त की थी । उसने अपने राज्य में अनेकों बौद्ध स्तूपों तथा विहारों का निर्माण करवाया था । परमार्थ की रचना वसुबन्धुजीवनवृत,बौद्ध ग्रंथ आर्यमंजुश्रीमूलकल्प तथा ह्वेनतसांग का यात्रा विवरण सी-यू-की में नरसिंहगुप्त के बौद्ध-प्रेम पर प्रकाश डाला गया है । नरसिंहगुप्त के शासनकाल में ही वसुबंधु का निधन हुआ था । नालंदा से प्राप्त मुद्रालेख 'परमभागवत' से ज्ञात होता है कि नरसिंहगुप्त ने अपने पूर्वजों के सम्मान में 'परमभागवत' की उपाधि धारण की थी ।

कुमारगुप्त-।। 'क्रमादित्य'(530-543 ई.)

कुमारगुप्त-।। 530 ई. के आसपास गुप्त साम्राज्य की मगध शाखा का शासक बना । वह नरसिंहगुप्त का पुत्र था तथा उसकी माता का नाम महादेवी मित्रदेवी था । उसने 543 ई. तक शासन किया । कुमारगुप्त-।। के बारे में कोई इतिहास में कोई विशेष जानकारी प्राप्त नहीं हुई है ।

विष्णुगुप्त (543-550 ई.)

विष्णुगुप्त कुमारगुप्त-।। का पुत्र था । इसने मगध शाखा के गुप्त शासक के रूप में 543 ई. से 550 ई. तक शासन किया । विष्णुगुप्त के पश्चात गुप्त साम्राज्य छिन्न-भिन्न हो गया था ।

गुप्तवंश का पतन

गुप्त साम्राज्य का पतन प्रचीन भारत के इतिहास की प्रमुख घटना है । गुप्त साम्राज्य के पतन के पीछे कोई एक कारण विशेष नहीं था बल्कि कई कारणों ने ऐसी स्थिति को पैदा किया जो गुप्त साम्राज्य के पतन का कारण बन गयी । आर.सी. मजूमदार के अनुसार 'गुप्त साम्राज्य के पतन के पीछे उन्हीं परिस्थितियों ने योगदान दिया जिसने प्राचीन भारत में मौर्य साम्राज्य तथा मध्य भारत में मुगल साम्राज्य के पतन में दिया ।' आइये जानते हैं गुप्त साम्राज्य के पतन के प्रमुख कारण क्या थे -

अयोग्य एवं निर्बल उत्तराधिकारी

स्कंदगुप्त के पश्चात अधिकांश गुप्त शासक निर्बल तथा अयोग्य साबित हुए । इसका परिणाम यह निकला कि शत्रु-राज्यों को गुप्त साम्राज्य के उत्तराधिकारीयों की निर्बलता का एहसास हो गया ओर इस मौके का उचित लाभ उठाया । केवल बुधगुप्त ही एक ऐसा शासक था जिसने इस स्थिति को सम्भाले रखा ।

शासन-व्यवस्था का सामन्ती स्वरूप

गुप्त साम्राज्य एक विशाल क्षेत्र में फैला हुआ था । शासन व्यवस्था को चलाने के लिए कई छोटे- छोटे प्रान्त तथा सामंती इकाईयां बनाई गयी थीं । प्रांतीय शासक अथवा सामन्त अपने-अपने क्षेत्रों में शासन करने के लिए पर्याप्त रूप से स्वतंत्र थे तथा महाराज की उपाधि धारण करते थे । हालांकि इस संघ का मुख्य प्रधान गुप्त शासक होता था जो महाराजाधिराज की उपाधि धारण करता था । कलान्तर में सामन्ती व्यवस्था गुप्त साम्राज्य के लिए अभिशाप साबित हुई । जब तक केंद्रीय सत्ता मजबूत रही तब तक इन सामन्तों ने कभी सिर उठाने की कोशिश नहीं की लेकिन जैसे ही केंद्रीय सत्ता निर्बल होने लगी इन सामन्तों ने अपने-अपने क्षेत्रों में स्वयं को स्वतंत्र घोषित कर दिया तथा नए राजवंशों की स्थापना करने लगे ।

उच्च कोटि के पदों का आनुवांशिक होना

गुप्त साम्राज्य में सभी उच्च पद वंशानुगत थे । इन पदों की प्राप्ति का आधार योग्यता नहीं बल्कि आनुवांशिकता था । इस व्यवस्था के चलते अयोग्य और निर्बल व्यक्ति भी उच्च पदों पर आ जाते थे ।

भूमिदान की प्रथा तथा भूमि पर दबाव

गुप्त काल में भूमिदान की प्रथा तथा कृषि पर अत्यधिक जोर दिया जाता था जिसके कारण आत्मनिर्भर गांवों का उदय हुआ । किसान,कारीगर तथा मजदूर सभी को कृषि कार्य करने के लिए मजबूर होना पड़ा । इसके अनेकों दुष्परिणाम हुए । उद्योग-धंधे,व्यापार-वाणिज्य कमजोर पड़ने लगे कई पुराने औद्योगिक एवं व्यापारिक केन्द्र नष्ट हो गए । मुद्रा-व्यवसाय तथा विदेशी व्यापार पर भी इसका बुरा असर पड़ा । राज्य की आय के स्त्रोत घटने लगे । इस प्रकार सुदृढ़ आर्थिक आधार के अभाव में यह राज्य ज्यादा समय तक टिक नहीं सका ।

विदेशी आक्रमण

हूण खानाबदोश जंगली तथा जंगली जाती का एक समूह था । यह जाती चीन के आसपास के क्षेत्रों में निवास करती थी । पश्चिम की ओर बढ़ते हुए यह समूह दो भागों में विभक्त हो गया था । यूरोप की ओर बढ़ने वाले हूण 'काले हूण' तथा ईरान व भारत की ओर आने वाले 'श्वेत हूण' अथवा 'एफ्थलाईट' कहलाये । हूणों ने भारत पर 5वीं से 6ठी शताब्दी तक अनेकों बार आक्रमण किये । गुप्त काल में हूणों का सबसे बड़ा आक्रमण 5वीं सदी के मध्य हुआ । 455 ई.में स्कंदगुप्त ने हूणों को पीछे ढकेल दिया था लेकिन बाद के वर्षों में हुणों के आक्रमणों नें गुप्त साम्राज्य को इतना अधिक प्रभावित किया कि इन्हें अपने सिक्कों में मिलावट करनी पड़ी ।

हूण नरेश तोरमाण (510-512 ई.) ने पंजाब पर सफल आक्रमण किया । पंजाब के रास्ते ही उसने गुप्त साम्राज्य पर आक्रमण किया तथा अन्तर्वेदी(गंगा-जमुना दौआब) को कोशाम्बी तक जीत लिया । इसके बाद तोरमाण मालवा की तरफ बढ़ा और 510 ई. तक मालवा के कुछ क्षेत्रों पर अधिकार कर लिया । मालवा शाखा के गुप्त शासक भानुगुप्त तोरमाण के विरुद्ध अभियान में असफल रहा । तोरमाण ने लगभग सम्पूर्ण गंगा घाटी पर अधिकार कर लिया । 212 ई. में तोरमाण की मृत्यु के पश्चात उसका पुत्र मिहिरकुल ( 512 -530 ई.) हूण शासक बना । उसने पंजाब के साकल(सियालकोट) को अपनी राजधानी बनाया । मिहिरकुल के समय हूणों की शक्ति काफी बढ़ गई थी । 528 ई. में मगध शाखा के गुप्त शासक नरसिंहगुप्त बालादित्य और मिहिरकुल के मध्य युद्ध हुआ जिसमें मिहिरकुल को पराजित कर बंदी बना लिया गया । नरसिंहगुप्त ने दूरदर्शिता का परिचय देते हुए अपनी माँ के कहने पर ऐसे भयंकर शत्रु को मुक्त कर दिया ।

हूणों के साम्राज्य का अंतिम रूप से उन्मूलन मंदसौर के यशोधर्मन ने किया । मिहिरकुल और यशोधर्मन के मध्य 530 ई. में युद्ध हुआ जिसमें मिहिरकुल को पराजित होना पड़ा ।इसके पश्चात मिहिरकुल ने कश्मीर के राजा के यहां शरण ली । उसने कश्मीर के राजा की धोखे से हत्या कर दी और वहां का शासक बन गया । पराजित हूण भारत में ही बस गए और हिन्दू धर्म में दीक्षित हो गये । मिहिरकुल पक्का शिवभक्त था तथा बौद्ध धर्म का कट्टर विरोधी था । ह्वेनतसांग के अनुसार मिहिरकुल 'बौद्ध धर्म का एक भयानक संपीड़क' था । मिहिरकुल अत्यंत क्रूर तथा रक्तपिपासु शासक था । इसकी सत्ता केंद्रों में से एक कश्मीर, में उसकी क्रूरता के संस्मरण 12वीं शताब्दी तक बने रहे जब कल्हण ने अपनी रचना में इन्हें उल्लेखित किया ।

गुप्त सम्राटों में बौद्ध विचारधारा का प्रभाव

आरम्भिक गुप्त सम्राट ब्राह्मण धर्म के पोषक थे । वे एक चक्रवर्ती राजा के आदर्शों के अनुरूप शासन करते थे ,परन्तु बाद के गुप्त सम्राट बौद्ध धर्म के आदर्शों से प्रभावित होकर अपना अधिकांश समय दान-पुण्य के कार्यों में बिताते थे । गुप्त शासकों की युद्धप्रियता समाप्त हो गई जो एक साम्राज्य की सुरक्षा व स्थायित्व के लिए आवश्यक होती है । बौद्ध धर्म के प्रभाव के कारण बोद्ध संस्थाओ तथा विहारों पर अत्यधिक धन व्यय किया जाने लगा जिसके कारण राजकोष रिक्त हो गया ।

इस प्रकार इन कई कारणों ने मिलकर गुप्त साम्राज्य की जड़ों को हिला दिया और अन्ततः गुप्त साम्राज्य पतन की ओर चला गया । गुप्त साम्राज्य के पतन के साथ ही भारतीय इतिहास विभाजन एवं विकेंद्रीकरण की दिशा की ओर उन्मुख हो गया ।

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