Rashtrakuta Dynasty
इंद्र तृतीय (914 ई.-928 ई.)
इंद्र तृतीय ने 914 ई. में राष्ट्रकूट राज्य की गद्दी संभाली तथा 915 ई. में उसने अपना अभिषेक कराया । वह कृष्ण द्वितीय का पौत्र/दौहित्र था । देवली व करहाट अभिलेखों के अनुसार कृष्ण द्वितीय का पुत्र उसके जीवनकाल में ही चल बसा था ,इसी कारण इंद्र तृतीय राष्ट्रकूट शासक बना । ऐसा माना जाता है कि उसने अपने राज्यभिषेक के समय अतुल धन-सम्पदा खर्च की । उसने लगभग 400 गावों के ब्राह्मणों व मंदिरों को दान दिया । उसने इस अवसर पर नित्यवर्ष उपाधि धारण की ।
गुर्जर-प्रतिहार व राष्ट्रकूट संघर्ष
राष्ट्रकूटों का गुर्जर-प्रतिहारों से संघर्ष त्रिकोणीय संघर्ष का ही एक भाग था । उस समय इंद्र तृतीय का समकालीन प्रतिहार शासक महिपाल प्रथम था । गोविन्द चतुर्थ के खम्भात अभिलेख के अनुसार इंद्र तृतीय ने कन्नौज व उज्जैन पर विजय प्राप्त कर ली थी ।
राष्ट्रकूट व वेंगी चालुक्य संघर्ष
उत्तर भारत के अपने सफल अभियान के पश्चात उसने दक्षिण में अपने शत्रु वेंगी राज्य पर अपना निशाना साधा । उस समय तक चालुक्यों के योग्य शासक भीम की मृत्यु हो चुकी थी और उसका पुत्र विजयादित्य चतुर्थ वेंगी का शासक बना । दोनों सेनाओं के मध्य विरजापुरी नामक स्थान पर भयंकर युद्ध हुआ जिसमे विजयादित्य चतुर्थ ने राष्ट्रकूटों को कड़ी टक्कर दी । अंततः राष्ट्रकूट सेना से लड़ता हुआ चालुक्य नरेश विजयादित्य चतुर्थ मारा गया । राष्ट्रकूट सेना वेंगी राज्य को पूरी तरह नष्ट नहीं कर पायी बल्कि उनके लगभग 1/3 भाग पर अपना अधिकार कर लिया था ।
विजयादित्य चतुर्थ की मृत्यु के बाद भी वेंगी राज्य जीवित रहा क्योंकि उसका पुत्र अम्म चालुक्य नरेश के रूप में 925 ईसवी तक वेंगी पर शासन करता रहा । लेकिन अम्म की मृत्यु के पश्चात जब उसका अवयस्क पुत्र विजयादित्य पंचम शासक बना तो वेंगी में उत्तराधिकार संघर्ष शुरू हो गया । इंद्र तृतीय ने भी मौके का फायदा उठाते हुए वेंगी की राजनीती में हस्तक्षेप करने लगा । युद्धमल्ल का पुत्र ताड़प प्रथम वेंगी के उत्तराधिकार का दावा करता था । उसने राष्ट्रकूट शासक इन्द्र तृतीय से सहायता मांगी । हालाँकि राष्ट्रकूटों ने ताड़प प्रथम को वेंगी की गद्दी पर बैठा दिया था । किन्तु एक युद्ध में वह विक्रमादित्य द्वितीय के हांथों मारा गया । यह उत्तराधिकार संघर्ष निरंतर चलता रहा और इसी कड़ी में विक्रमादित्य द्वितीय को अम्म प्रथम के पुत्र भीम तृतीय के हांथों पराजित होकर अपनी जान बचाकर भागना पड़ा ।
कुछ समय पश्चात राष्ट्रकूटों ने पुनः हस्तक्षेप करते हुए ताड़प के पुत्र युद्धमल्ल द्वितीय को 928 ई. में वेंगी के सिंहासन पर बैठा दिया । इस प्रकार इंद्र तृतीय ने अपनी कूटनीति से वेंगीयों के अहंकार को चकनाचूर कर दिया और अपने आश्रित शासक युद्धमल्ल द्वितीय को वेंगी की गद्दी पर बैठाया । 928 ई. में इंद्र तृतीय की मृत्यु हो गयी।उसकी मृत्यु के पश्चात उसका पुत्र अमोघवर्ष द्वितीय राष्ट्रकूट शासक बना ।
अमोघवर्ष द्वितीय (928 ई.-929 ई.)
अमोघवर्ष द्वितीय राष्ट्रकूट नरेश इन्द्र तृतीय का बड़ा पुत्र था जो अपने पिता की मृत्यु के पश्चात 928 ई. में मान्यखेट की गद्दी पर बैठा । उसने मात्र एक वर्ष तक शासन किया । हालांकि कुछ विद्वानों का मानना है कि अमोघवर्ष द्वितीय शासक बना ही नहीं था परंतु देवली तथा करहाड़ ताम्रपत्र उसके एक वर्ष के शासन को प्रमाणित करते हैं ।
929 ई.में अमोघवर्ष द्वितीय की मृत्यु के पश्चात उसका छोटा भाई गोविंद चतुर्थ राष्ट्रकूट गद्दी पर बैठा । करहाड़ ताम्रपत्र के अनुसार अमोघवर्ष द्वितीय अपने पिता इन्द्र तृतीय की मृत्यु से अत्यधिक विचलित था तथा इसी सदमे के कारण उसकी मृत्यु हो गई । लेकिन ताम्रपत्र में उल्लेखित यह वक्तव्य संदेह प्रकट करता है । अमोघवर्ष द्वितीय की मृत्यु को लेकर उसके छोटे भाई गोविंद चतुर्थ पर भी संदेह जाता है । हालांकि गोविंद चतुर्थ ने अपने उपर लगे इन आरोपों का खंडन किया है । उसने काम्बे तथा सांगली ताम्रपत्रों में लिखा है कि 'मैने कभी भी अपने अनुज के साथ दुर्व्यवहार नहीं किया था । यदि वह चाहता तो ऐसा कर सकता था ।'
ताम्रपत्र में उल्लेखित गोविंद चतुर्थ के ये शब्द दो तरफा थे । अतः यह स्पष्ट रूप से प्रमाणित नहीं होता कि उसने अमोघवर्ष द्वितीय की हत्या की होगी । लेकिन मुम्बई के एक संग्रहालय प्रिन्स ऑफ वेल्स में शिलाहार वंश के एक शासक का अभिलेख है जिसमें राष्ट्रकूट नरेश गोविंद चतुर्थ द्वारा अपने भाई अमोघवर्ष द्वितीय व उसके परिवार पर किए गए अत्याचारों की जानकारी मिलती है । बेशक अमोघवर्ष द्वितीय की मृत्यु किन्हीं भी कारणों से हुई हो लेकिन गोविंद चतुर्थ प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से इसका दोषी था । संभवतः उसने अमोघवर्ष की हत्या की थी अथवा उसे अपदस्थ कर राष्ट्रकूट गद्दी हथिया ली थी और वहां का शासक बन गया था ।
गोविन्द चतुर्थ (930 ई.-936 ई.)
अपने बड़े भाई अमोघवर्ष द्वितीय की मृत्यु के पश्चात लगभग 930 ई. में गोविन्द चतुर्थ राष्ट्रकूट गद्दी पर बैठा । सिंहासनाप्राप्ति के पश्चात उसने प्रभूतवर्ष, सुवर्णवर्ष, वीरनारायण सहसांक, नृपतित्रिनेत्र, नृपतुंग तथा रट्टकंदर्प अत्यादि उपाधियां धारण कीं । गोविन्द चतुर्थ शासन के योग्य शासक नहीं था । वह हर समय भोग-विलास में डूबा रहता था । खरेपटन ताम्रपत्र से विदित होता है कि गोविन्द चतुर्थ के दिन और रात स्त्रियों के सानिध्य में आमोद-प्रमोद में व्यतीत होते थे । अपने इन्हीं कुकर्मों की वजह से उसने अपनी जनता की सहानुभूति खो दी थी । भोग विलास में लिप्तता के कारण उसका प्रशासनिक व राजनैतिक तन्त्र कमजोर पड़ने लगा । राज्य में चारों तरफ अराजकता फैलने लगी । इसी मौके का फायदा उठाकर भीम ने पुनः वेंगी के सिंहासन को प्राप्त करने के लिए संघर्ष शुरू कर दिया । अंततः 934 ई. में चालुक्य वंशीय भीम ने युद्धमल्ल को पराजित कर वेंगी का सम्राट बन गया।
गोविन्द चतुर्थ द्वारा प्रशासन की तरफ ध्यान ना देने की वजह से साम्राज्य में अराजकता व विद्रोह फैल गया । साम्राज्य के कई मंत्रियों व सामंतों ने विद्रोह कर दिया । इन्हीं सामंतों में एक था दक्षिण कर्नाटक का सामंत आदिकेसीन द्वितीय । दरअसल वेंगी के सिंहासन को लेकर गृह युद्ध फिर शुरू हो गया था । विजयादित्य पंचम भी वेंगी वेंगी के सिंहासन पर विराजमान होना चाहता था । परंतु इस संघर्ष के दौरान वह भागकर अरिकेसीन की शरण में आ गया था । गोविंद चतुर्थ ने अरिकेसीन द्वितीय को उसे सौंपने को कहा । परन्तु अरिकेसीन द्वितीय ने ऐसा करने से इन्कार कर दिया । इससे बोखलाए गोविंद चतुर्थ ने अरिकेसीन द्वितीय को सबक सिखाने का निश्चय किया । उधर गोविंद चतुर्थ के विद्रोहियों व उसके शासन से नाखुश सामंतों व मंत्रियों ने उसे सत्ता से हटाकर अमोघवर्ष तृतीय को बैठाने का निश्चय किया । अमोघवर्ष तृतीय गोविंद चतुर्थ का चाचा तथा इन्द्र तृतीय का सौतेला भाई था । हालांकि शुरुआत में तो अमोघवर्ष तृतीय शासन से नाखुश था परंतु उसके पुत्र द्वारा काफी समझाईस के बाद वह मान गया । योजनानुसार अरिकेसीन द्वितीय तथा गोविंद चतुर्थ की सेना के मध्य भयंकर युद्ध हुआ । इस युद्ध मे अरिकेसीन द्वितीय ने वीरता का परिचय दिया । अंततः इस युद्ध में गोविंद चतुर्थ की पराजय हुई और संभवतः वह रणभूमि में ही मारा गया ।
अमोघवर्ष तृतीय (936 ई.-939 ई.)
अमोघवर्ष तृतीय का वास्तविक नाम बड्डेग था । वह कृष्ण द्वितीय का पुत्र था । अमोघवर्ष तृतीय की माता चेदि राजकुमारी थी । वह 936 ई. में मान्यखेट का शासक बना । जब वह शासक बना तब उसकी उम्र सम्भवतः 50 वर्ष थी । अमोघवर्ष तृतीय के दो रानियां,चार पुत्र तथा एक पुत्री थी । उसके चारों पुत्रों के नाम कृष्ण (कृष्ण तृतीय), जगन्तुंग, निरुपम तथा खोट्टीग थे तथा पुत्री का नाम रेवक निम्मड़ी था । उसकी पुत्री का विवाह गंग नरेश राजमल्ल तृतीय के बड़े भाई बूबुग के साथ हुआ ।
अमोघवर्ष तृतीय एक शान्तीप्रिय शासक था । उसने अपने जीवनकाल में एक भी युद्ध में भाग नहीं लिया । हालांकि उसके शासनकाल में राष्ट्रकूट सेना की तरफ से अनेकों युद्ध लड़े गये जो सभी कृष्ण तृतीय द्वारा संचालित किए जाते थे । कृष्ण तृतीय अमोघवर्ष तृतीय का पुत्र था जिसे अपने पिता द्वारा सभी प्रशासनिक अधिकार प्राप्त थे । कृष्ण तृतीय 939 ई. तक अपने पिता के शासनकाल में सक्रिय भूमिका निभाता रहा । 939 ई.में कृष्ण तृतीय ने राष्ट्रकूट साम्राज्य की गद्दी संभाली ।
दोस्तों पोस्ट पढ़ने के लिए धन्यवाद । हमारी वेबसाइट हमारे आगंतुकों को भारतीय इतिहास (History of India in Hindi) से सम्बंधित जानकारी हिंदी में बिलकुल मुफ्त प्रदान करती है । हमारी हर नई पोस्ट की तुरंत जानकारी के लिए आपसे हमारी वेबसाइट को सब्सक्राइब करने का अनुरोध करते हैं साथ ही यह आशा करते हैं की वेबसाइट पर कहीं भी दिखाए जा रहे विज्ञापन को क्लिक करेंगें ।
2 comments
Click here for commentsGood morning sir
Replyगुर्जर प्रतिहार वंश
Thanks jald hi layenge
ReplyConversionConversion EmoticonEmoticon