History of Rajasthan ~ महाराणा कुम्भा (मेवाड़ का इतिहास) ~ Ancient India

History of Rajasthan ~ महाराणा कुम्भा (मेवाड़ का इतिहास)

महाराणा कुम्भा (Maharana Kumbha) का जन्म 1423 ई. में मेवाड़ में हुआ । महाराणा कुम्भा को कुम्भकरण के नाम से भी जाना जाता है । 1433 ई. में जीलवाड़ा के जिस कैंप में महाराणा मोकल की हत्या की गई थी उस समय महाराणा कुम्भा भी वहां थे । सिसोदिया सरदार उन्हें किसी तरह बचा कर मेवाड़ ले आये । मोकल की हत्या के बाद 1433 ई. में सिसोदिया सरदारों द्वारा उनके पुत्र महाराणा कुम्भा को मात्र 10 वर्ष की आयु में मेवाड़ की गद्दी पर बैठाया गया ।

महाराणा कुंभा के शासनकाल की प्रमुख घटनाएं व युद्ध

महाराणा कुम्भा (Maharana Kumbha) ने शासक बनते ही सबसे पहले अपने पिता के मामा राव रणमल के सहयोग से पिता के हत्यारों चाचा व मेरा की हत्या करवाई । लेकिन अभी इनका एक सहयोगी महपा पँवार जीवित था जो मालवा की तरफ भाग जाता है । उस समय मेवाड़ की राजनीति में षड्यंत्रों की कोई कमी नहीं थी । सिसोदिया व राठौड़ों में मनमोटाव गहराता जा रहा था । राव रणमल राठौड़ के महाराणा कुम्भा का संरक्षक होने के कारण मेवाड़ की राजनीति में राठौड़ों का बहुत अधिक दबदबा था ।

एक दिन राव रणमल ने सिसोदियों के विद्रोह की आशंका में चूंडा के भाई राघव देव की भरे दरबार में हत्या कर दी । यह देख सिसोदिया सरदारों का असंतोष चरम पर पहुंच गया । पहले राणा चूंडा का निष्कासन, फिर मोकल की हत्या इसके बाद एकमात्र राघव देव ही था जो मेवाड़ में सिसोदियों का प्रतिनिधित्व करता था लेकिन उसकी भी हत्या कर दी गई । इन सब घटनाओं से सिसोदिया सरदारों में राठौड़ों के विरुद्ध आक्रोश था । इस घटना से राणा कुम्भा भी बहुत आहत हुए । उन्हें राठौड़ों के षड़यंत्र समझ में आने लगे । वह राव रणमल से घृणा करने लगा । मोकल की माता व राणा कुम्भा की दादी हंसाबाई को दासी भारमली द्वारा रणमल के षड्यंत्र का पता चल गया । उसे यह समझ मे आने लगा था कि मेवाड़ में आज तक जो भी राजनीतिक कलह हुआ है उसकी वजह उसका भाई राव रणमल ही था जो मेवाड़ को हथियाने की महत्वकांक्षा के कारण यह सब कर रहा था । अपने भाई के बहकावे में आकर उसने चूंडा जैसे स्वाभिमानी, ईमानदार व कर्तव्यनिष्ठ व्यक्ति को मेवाड़ से निष्कासित कर दिया था । हंसाबाई व सिसोदिया सरदारों के समर्थन से राणा चूंडा को मांडू (मालवा) से वापिस मेवाड़ बुलाया गया ।

राणा चूंडा के वापिस मेवाड़ लौट आने से सिसोदिया सरदारों में एक नई ऊर्जा आ गई । अब राठौड़ों व सिसोदियों में गुटबंदी ओर तेज हो गई । रणमल से परेशान सिसोदियों ने रणमल की हत्या की योजना बनाई । एक दिन मौका पाकर सिसोदिया सरदारों ने राव रणमल राठौड़ की हत्या (1438 ई.) कर दी । ऐसी भी जनश्रुति है कि राव रणमल ने महाराणा कुम्भा को मारने के लिए हंसाबाई की दासी भारमली को जहर देकर भेजा । लेकिन अपनी स्वामिभक्ति का परिचय देते हुए उसने महाराणा कुम्भा को सारी बात बता दी । अतः महाराणा कुम्भा के कहने पर भारमली ने राव रणमल की शराब में जहर मिला दिया जिससे उसकी मृत्यु हो गई ।

अपने पिता रणमल की हत्या का संकेत पाते ही राव जोधा मारवाड़ की तरफ भाग गया । लेकिन महाराणा कुम्भा ने राव जोधा को पकड़ने व मारने के लिए उसका पीछा निरंतर जारी रखा । राणा चूंडा के नेतृत्व में सिसोदियों में मंडौर पर आक्रमण किया तथा पूरे मारवाड़ पर अधिकार कर लिया । वर्षों तक भटकने व संघर्षरत रहने के पश्चात 1454 ई. में राव जोधा ने भाटी व चौहानों के सहयोग से अपने पूर्वजों की राजधानी मंडौर पर अधिकार कर लिया । यहां कई सिसोदिया सरदारों को मौत के घाट उतार दिया गया । राणा कुम्भा ने राव जोधा के विरुद्ध पलायन किया लेकिन हंसाबाई की मध्यस्थता के कारण दोनों के मध्य आवल-बावल की संधि हुई । इस संधि की शर्त के अनुसार मारवाड़ व मेवाड़ की सीमाओं का निर्धारण हुआ । राव जोधा ने अपनी कृतज्ञता प्रकट करने व मेवाड़ से संबंध मजबूत बनाने के लिये अपनी पुत्री श्रृंगार देवी का विवाह महाराणा कुम्भा के पुत्र रायमल के साथ करवा दिया । 1504 ई. में महेश द्वारा रचित घोसुंडी की बावड़ी अभिलेख में इस विवाह की जानकारी मिलती है । राजधानी चितौड़गढ़ से कुछ दूरी पर स्थित घोसुंडी नामक स्थान पर श्रृंगार देवी ने एक बावड़ी का निर्माण करवाया था ।

महाराणा कुम्भा के प्रमुख युद्ध व उपलब्धियां

मालवा विजय / सारंगपुर का युद्ध

महाराणा कुम्भा का समकालीन मालवा (राजधानी मांडू) का शासक महमूद खिलजी था । महमूद खिलजी ने महाराणा कुम्भा के पिता मोकल के आखिरी हत्यारे महपा पँवार को शरण दे रखी थी । महमूद खिलजी ने जब महपा पँवार को महाराणा कुम्भा को सौंपने से इन्कार कर दिया तो 1437 ई. में महाराणा कुम्भा ने मालवा पर आक्रमण कर दिया । दोनों सेनाओं के मध्य सारंगपुर नामक स्थान पर युद्ध हुआ । इस युद्ध को सारंगपुर युद्ध के नाम से जाना जाता है । इस युद्ध में महाराणा कुम्भा ने मालवा व गुजरात की संयुक्त नैतृत्व वाली सेनाओं को पराजित किया ।

कुछ इतिहासकार सारंगपुर युद्ध का एक ओर कारण मानते हैं जिसके अनुसार मालवा के शासक होशांगशाह (अल्पखाँ) की मृत्यु के बाद उसका पुत्र उमरखां (गजनिखाँ) मालवा की गद्दी पर बैठा था । लेकिन उमरखां को पराजित कर महमूद खिलजी ने मालवा की गद्दी पर अधिकार कर लिया । उमरखां ने मेवाड़ शासक राणा कुम्भा से सैन्य सहायता मांगी । महाराणा कुम्भा ने उमरखां को सैन्य सहायता प्रदान करते हुए स्वयं सारंगपुर युद्ध में भाग लिया ।

इतिहासकारों के इन दोनों मतों में से कौनसा मत सही है यह कहना मुश्किल है लेकिन इतना अवश्य है कि महमूद खिलजी का महपा पँवार को शरण देना तथा उमरखां द्वारा राणा कुम्भा से मदद मांगना दोनों कारण राणा कुम्भा की मालवा पर आक्रमण की महत्वकांक्षा को पूरा करते थे । इस युद्ध में महाराणा कुम्भा विजयी रहे । ऐसा कहा जाता है कि महाराणा कुम्भा ने महमूद खिलजी को 6 माह तक बंदी बनाये रखा तथा बाद में उसे छोड़ दिया । मालवा पर इस विजय के उपलक्ष्य में महाराणा कुम्भा ने चितौड़ में विजय स्तम्भ (Victory Tower) का निर्माण करवाया।

चंपानेर की संधि

मालवा पर विजय के बाद मेवाड़ की सेना ने मालवा के शासक महमूद खिलजी को बंदी बना लिया । लेकिन 6 माह तक कैद में रखने के बाद महाराणा कुम्भा ने उसे रिहा कर दिया । इतिहासकारों के अनुसार महाराणा कुम्भा ने महमूद खिलजी को छोड़कर अपनी राजनीतिक अदूरदर्शिता का परिचय दिया । क्योंकि यही महमूद खिलजी आगे चलकर मेवाड़ के लिए मुसीबत बन जाता है । महमूद खिलजी ने महाराणा कुम्भा की शक्ति का पतन करने के लिए 1456 ई. में गुजरात के तत्कालीन शासक कुतुबुद्दीन शाह के साथ चंपानेर की संधि की । इस संधि के अनुसार दोनों राज्य मेवाड़ के महाराणा कुम्भा की शक्ति का पतन करने के लिए एक-दूसरे को सैन्य सहयोग प्रदान करेंगे तथा मेवाड़ के विजित हिस्से को आपस में बांट लेंगे ।

नागौर पर आक्रमण

1454 ई. में नागौर के तत्कालीन शासक फिरोज खान की मृत्यु के पश्चात उसके बेटे शम्स खान व भाई मुजाहिद खान के मध्य सत्ता को लेकर टकराव हो गया । दोनों के मध्य संघर्ष हुआ जिसमें मुजाहिद खान ने शम्स खान को पराजित कर नागौर की गद्दी पर अधिकार कर लिया । इस संघर्ष में मुजाहिद खान को गुजरात के शासक कुतुबुद्दीन शाह ने सैन्य सहायता प्रदान की थी । अपने चाचा के हाथों अपनी पराजय के बाद शम्स खान सैन्य सहायता के लिए मेवाड़ के शासक महाराणा कुम्भा के पास पहुंचा । महाराणा कुम्भा ने सैन्य सहायता के बदले में शम्स खान के समक्ष शर्त रखी जिसके अनुसार यदि महाराणा कुम्भा शम्स खान को नागौर की गद्दी पर बैठा दे तो शम्स खान नागौर की किलेबंदी नहीं करेगा । शम्स खान की रजामंदी के बाद महाराणा कुम्भा ने नागौर पर आक्रमण किया तथा मुजाहिद खान को पराजित कर शम्स खान को गद्दी पर बैठा दिया । मुजाहिद खान अपनी जान बचाकर गुजरात भाग गया ।

कुछ ही समय बीता था कि शम्स खान ने महाराणा कुम्भा के साथ अपनी शर्त का उल्लंघन करते हुए नागौर में किलेबन्दी शुरू कर दी । इस बात से राणा कुम्भा क्रोधित हुए तथा पुनः नागौर पर आक्रमण कर दिया । शम्स खान को करारी शिकस्त मिली । अपनी जान बचाने के लिए वह अपनी बेटी को लेकर अहमदाबाद(गुजरात) भाग गया । उसने अपनी बेटी का विवाह कुतुबुद्दीन शाह से करा दिया । कुतुबुद्दीन शाह ने महाराणा कुम्भा के विरुद्ध युद्धाभियान करते हुए उसके अधीन आबू के किले पर अधिकार कर लिया ।

बदनौर का युद्ध

मालवा शासक महमूद खिलजी तथा अहमदाबाद के शासक कुतुबुद्दीन शाह यह बात भली-भांति जान चुके थे कि यदि महाराणा कुम्भा की शक्ति को कमजोर करना है तो दोनों की सेनाओं का संयुक्त होना जरूरी है । इसे उद्देश्य के चलते दोनों के मध्य 1456 ई. में चंपानेर की संधि हुई । 1457 ई. में दोनों संयुक्त सेनाओं का मेवाड़ की सेना के साथ बदनौर का युद्ध हुआ । इस युद्ध में महाराणा कुम्भा ने संयुक्त सेना को पराजित कर संधि करने को मजबूर किया । बदनौर में महाराणा कुम्भा ने कुशालमाता मंदिर का निर्माण करवाया ।

महाराणा कुम्भा का परिवार

महाराणा कुम्भा के पिता मोकल तथा माता का नाम सौभाग्य देवी था । महाराणा कुम्भा की पत्नी का नाम स्पष्ट ज्ञात नहीं है लेकिन इतिहासकार कर्नल जेम्स टॉड के अनुसार महाराणा कुम्भा की पत्नी मीराबाई था । लेकिन अन्य इतिहासकारों ने उसके इस दावे को नकार दिया । महाराणा के प्रमुख पुत्रों में उदयसिंह प्रथम /ऊदा/उदयकरण तथा राणा रायमल थे । महाराणा कुम्भा की पुत्री का नाम रमाबाई था । रमाबाई का विवाह गुजरात में गिरनार के चूड़ासमा राजपूत शासक मण्डलीक से हुआ था| रमाबाई संगीतशास्त्र की ज्ञाता थीं | रमाबाई को वागीश्वरी नाम से भी जाना जाता था। 1468 ई. में महाराणा कुम्भा जब भगवान एकलिंगजी से प्रार्थना में लीन थे तभी उनके पुत्र ऊदा ने बुर्ज से धक्का देकर महाराणा कुम्भा की हत्या कर दी तथा स्वयं को मेवाड़ का शासक घोषित कर दिया ।

महाराणा कुम्भा की प्रमुख उपाधियां

राणा कुम्भा की प्रमुख उपाधियां अभिनव भरताचार्य, हिन्दू सुरताण, टोडरमल,राजगुरु, दानगुरु, शैलगुरु, छापगुरु, हालगुरु व राणो रासो (विद्वानों का आश्रयदाता) आदि थीं ।

महाराणा कुम्भा का स्थापत्य कला के क्षेत्र में योगदान

महाराणा कुम्भा का शासनकाल स्थापत्य कला का स्वर्णकाल था । श्यामलदास की रचना वीर विनोद के अनुसार मेवाड़ में स्थित 84 दुर्गों में से 32 दुर्गों का निर्माण अकेले महाराणा कुम्भा ने ही करवाया था । इसके अलावा अनेकों स्तंभों, बावड़ियों, छतरियों व झीलों का निर्माण भी इनके काल में हुआ ।

महाराणा कुम्भा के शासनकाल में स्थापत्य कला व सांस्कृतिक विकास से संबंधित एक स्पेशल पोस्ट हम आपको जल्द ही उपलब्ध करवाएंगे । फिलहाल आपको महाराणा कुम्भा द्वारा बनवाये गए प्रमुख दुर्गों, मंदिरों, इमारतों व साहित्य से संबंधित संक्षिप्त जानकारी दे रहे हैं ।

कुम्भलगढ़ दुर्ग- कुम्भलगढ़ दुर्ग का निर्माण महाराणा कुम्भा ने 1443 ई. से 1459 ई. के मध्य करवाया । यह दुर्ग राजसमंद जिले में स्थित है । इसे अजयगढ़ के नाम से भी जाना जाता है ।

विजय स्तम्भ- विजय स्तम्भ का निर्माण चितौड़गढ़ में महाराणा कुम्भा द्वारा मालवा विजय के उपलक्ष्य में 1440 ई. से 1448 ई. के मध्य करवाया गया ।

अचलगढ़ दुर्ग- महाराणा कुम्भा ने आबू में स्थित अचलगढ़ दुर्ग का पुननिर्माण 1452 ई. में करवाया ।

बसंती दुर्ग/ बसंतगढ़- महाराणा कुम्भा द्वारा निर्मित यह दुर्ग सिरोही में स्थित है ।

भोमठ दुर्ग- बाड़मेर में स्थित इस दुर्ग का निर्माण महाराणा कुम्भा द्वारा भीलों पर नियंत्रण रखने के लिए करवाया गया था ।

बैराठ दुर्ग- बैराठ का दुर्ग भीलवाड़ा जिले में स्थित है । महाराणा कुम्भा द्वारा इसका निर्माण मेरों पर नियंत्रण रखने के लिए करवाया गया था।

इन दुर्गों के अलावा महाराणा कुम्भा ने मेवाड़ की रक्षार्थ बदनोर दुर्ग,चितौड़गढ़ दुर्ग (पुनर्निर्माण), मचान दुर्ग व भोराट दुर्ग जैसे कुल 32 दुर्गों का निर्माण करवाया ।

महाराणा कुम्भा ने एकलिंगजी मंदिर, कुम्भास्वामी मंदिर, श्रृंगार गौरी मंदिर तथा कैलाशपुरी विष्णु मंदिर का निर्माण करवाया । उन्होंने बदनोर में कुशालमाता मंदिर का निर्माण करवाया । महाराणा कुम्भा धर्म सहिष्णु व्यक्ति थे । जैनाचार्य हीरानंद महाराणा कुम्भा के गुरु थे तथा सारंग व्यास उनके संगीत गुरु थे । रणकपुर के प्रमुख जैन मंदिर का निर्माण महाराणा कुम्भा के शासनकाल में हुआ । महाराणा कुम्भा ने इस मंदिर के निर्माण हेतु जमीन तथा धन उपलब्ध करवाया। इस मंदिर का निर्माता पोरवाल जैन श्रावक धरणकशाह था । रणकपुर मंदिर का प्रमुख शिल्पी दैपाक था ।

महाराणा कुम्भा के शासनकाल में कला व साहित्य के क्षेत्र में काफी विकास हुआ । अनेकों प्रसिद्ध विद्वान व साहित्यकार उनके दरबार में आश्रय प्राप्त थे । महाराणा कुम्भा स्वयं एक साहित्यकार थे । महाराणा कुम्भा के प्रमुख ग्रन्थों में संगीत मीमांसा, संगीत राज, सुधा-प्रबंध, कामराज-रतिसार आदि हैं । इसके अलावा महाराणा कुम्भा ने जयदेव के ग्रन्थ गीतगोविन्द पर रसिक प्रिया टिका लिखी तथा कान्ह व्यास की रचना एकलिंग-माहात्म्य के प्रथम भाग राजवर्णन को स्वयं लिखा । महाराणा कुम्भा ने शारंगदेव की रचना संगीतरत्नाकर व बाणभट्ट की रचना चंडीशतक पर टीका लिखी । प्रसिद्ध वास्तुकार मंडन कुम्भा के दरबार में आश्रय प्राप्त है । मंडन ने वास्तुशास्त्र, प्रसाद-मंडल, देवमूर्ति प्रकरण, वास्तुमंडन, शकुन मंडन, वास्तुआर, रूप-मंडन(रूपावतार), कोदंड-मंडन तथा राजवल्लभ आदि रचनाएँ लिखीं ।  

Rajasthan ka itihas ~Maharana Kumbha

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