राजस्थान का वर्तमान स्वरूप 1 नवंबर,1956 को अस्तित्व में आया । इससे पहले राजस्थान में रियासतें हुआ करती थीं । न केवल राजस्थान में बल्कि पूरे भारत में ऐसा था । इन सभी रियासतों को शासन क्षेत्र के अनुसार अलग-अलग नामों से जाना जाता था । जैसे-जोधपुर व इसके आसपास के क्षेत्रों को मारवाड़, बीकानेर के आसपास के क्षेत्रों को जांगल प्रदेश, जयपुर को ढूंढाड़, कोटा को हाड़ोती तथा उदयपुर, भीलवाड़ा, चितौड़गढ़, राजसमंद व प्रतापगढ़ को मेवाड़ कहा जाता था । मेवाड़ पर पहले मौर्यों का शासन था । मौर्यों को पराजित कर मेवाड़ पर गुहिल वंश ने शासन स्थापित किया ।
मेवाड़ का इतिहास
मेवाड़ का प्राचीन नाम
प्राचीन काल में मेवाड़ को मेदपाट/प्राग्वाट व शिवि आदि नामों से भी जाना जाता था । सम्राट सिकंदर के भारत अभियान के समय इस क्षेत्र को शिवि गणराज्य के नाम से जाना जाता था जिसकी राजधानी मध्यमिका थी । इनके सिक्कों पर मझमिकाय शिविजनपदस लिखा है जिसका तात्पर्य है मज्यमिका का शिवि जनपद । झेलम व चिनाब नदी के संगम स्थल त्रिमु, जिला-झंग (पंजाब,पाकिस्तान) में शिवि जाती का शासन था जो सिकंदर के आक्रमण के समय वहां से चितौड़ के निकट मध्यमिका नामक स्थान पर आकर बस गए थे । मध्यमिका को पहले मज्यमिका नाम से भी जाना जाता था जिसे बाद में मध्यमिका और अंततः नगरी के नाम से जाना जाने लगा । मौर्यों द्वारा चितौड़ दुर्ग की स्थापना के बाद मध्यमिका का महत्व कम हो गया था । इस प्रकार शिवि जाती का शासन क्षेत्र होने के कारण इस क्षेत्र को पहले शिवि नाम से जाना जाता था ।
कालांतर में यहाँ मेद जाती निवास करने लगी थी । मेद एक लड़ाका जाती थी जिसका मलेच्छों (उत्तर-पश्चिम से आने वाले आक्रमणकारी) से निरंतर संघर्ष होता रहता था । इस क्षेत्र में मेदों की बहुलता के कारण इस क्षेत्र को मेदपाट/प्राग्वाट कहा जाने लगा तत्पश्चात इसे मेवाड़ के नाम से जाना जाने लगा ।
मेवाड़ में गुहिल वंश के संस्थापक
मेदों को पराजित कर 566 ई. में गुहिल/गुहिलोत/गुहिलादित्य नामक व्यक्ति ने यहां गुहिल वंश की स्थापना की । गुहिल की जाती अथवा वंश को लेकर सभी विद्वानों के अलग-अलग मत हैं । कुछ विद्वान उसे सूर्यवंशी कुल का मानते थे । कुछ विद्वानों के अनुसार वह ब्राह्मण था तो वहीं कुछ विद्वानों का मानना था कि वह मुसलमान था । मुहणौत नैणसी व इतिहासकार गौरी शंकर ओझा के अनुसार गुहिल सूर्यवंशी थे । उनके अनुसार गुहिल इक्ष्वाकु वंश में जन्मे भगवान श्री राम के वंशज थे । कालांतर में गुहिल के नाम को इनके वंशजों ने अपने गौत्र के रूप में अपना लिया ।
गुहिल के भील जाती के लोगों के साथ अच्छे संबंध थे । वह बचपन से ही उनके साथ खेलता, उठता-बैठता था । भीलों ने गुहिल को अपना राजा स्वीकार कर लिया था । भीलों की सहायता से गुहिल ने सेना तैयार की तथा 566 ई. में मेदों को पराजित कर मेवाड़ पर अधिकार कर लिया ।
गुहिल के उत्तराधिकारी
गुहिल के बाद के शासकों के बारे में कोई विशेष जानकारी प्राप्त नहीं हैं । ऐसा प्रतीत होता है कि यहां गुहिल वंश का एक सीमित क्षेत्र में (ईडर के आसपास) शासन रहा होगा सम्पूर्ण मेवाड़ पर नहीं । क्योंकि इनके समकक्ष मेवाड़ में मौर्यों का शासन भी था जो सम्भवतः मेवाड़ के विस्तृत क्षेत्र में था । सम्भवतः मौर्यों की राजधानी नागदा रही होगी । 7वीं शताब्दी में मौर्य शासक चित्रांगद मौर्य ने चितौड़गढ़ दुर्ग का निर्माण कराया । इस दुर्ग के निर्माण के बाद सामरिक व सुरक्षा की दृष्टि से चितौड़गढ़ का महत्व बढ़ गया तथा ये अपनी राजधानी को चितौड़गढ़ ले गए । हालांकि राजस्थान में मौर्यों के शासन की कोई विस्तृत जानकारी नहीं मिलती है और ना ही इस काल में गुहिल वंश की । कोटा के निकट कणसवा(कंसुआ) के शिवालय में 738 ई.का एक शिलालेख मिला है जिनमें मौर्यवंशी राजा धवल का नाम है ।
बप्पारावल
734 ई. के आसपास यहां मौर्य शासक मान सिंह का शासन था । धवल इससे पूर्व में शासक रहा होगा । 8वीं शताब्दी की पूर्वार्द्ध में गुहिल वंश का शासक नागादित्य था । भीलों ने शिकार पर जाते समय राजा नागादित्य की हत्या कर दी थी । भीलों ने नागादित्य पर अत्याचार व शोषण का आरोप लगाया । नागादित्य के एक पुत्र था जिसका नाम मालभोज/कालभोज(बप्पारावल) था । भील कालभोज की भी हत्या करना चाहते थे लेकिन नागादित्य के सेवकों ने उसे कैलाशपुरी स्थित हारित ऋषि के आश्रम पहुंचा दिया जहां उसका पालन-पोषण हुआ । कालभोज यहां हारित ऋषि की गायें चराया करता था । यहां भीलों के साथ कालभोज के अच्छे संबंध थे ।
अरब आक्रमणकारियों ने भारत में घुसपैठ शुरू कर दी थी । सिंध में अपनी सफलता से उत्साहित अरब आक्रमणकारी मरुभूमि पर लूटपाट मचाने लगे थे । 734 ई.में भीलों के सहयोग से बप्पारावल ने मानसिंह मौर्य को पराजित कर चितौड़ पर अधिकार कर लिया । इसके पश्चात भीलों की एक बड़ी सेना के बल पर बप्पारावल ने अरबों को अफगानिस्तान तक खदेड़ दिया । अरबों के विरुद्ध इस अभियान में प्रतिहार शासक नागभट्ट,चालुक्य शासक विक्रमादित्य द्वितीय, बप्पारावल की संयुक्त सेनाएं थीं । बप्पारावल को गुहिल साम्राज्य का वास्तविक माना जाता है ।
इस लेख द्वारा हमारा ध्येय आपको रावल वंश अथवा सिसोदिया वंश के बारे में बताना है । कैसे गुहिल वंश को आगे चलकर रावल वंश अथवा सिसोदिया वंश के नाम से जाना जाने लगा । हालांकि बप्पारावल के बाद जो शासक हुए उनके बारे में कोई विशेष जानकारी उपलब्ध नहीं है लेकिन आगे चलकर इस वंश (951 ई.) में एक शासक हुए अल्हर/अल्हड़ । अल्हड़ ने अपनी राजधानी को नागदा से आहड़ स्थानांतरित किया। अल्हड़ ने आलू-रावल की उपाधि धारण की । इन्होंने हूण जाती की कन्या हरिया देवी से विवाह किया । ऐसा माना जाता है कि नौकरशाही की शुरूआत इन्हीं के शासनकाल में हुई थी । यानी घर में नौकर रखने का सिलसिला इसी काल में शुरू हुआ था । अल्हड़ के द्वारा आहड़ में वराह मंदिर का निर्माण कराया गया ।
इसी वंश में आगे चलकर (1158 ई.में) रण सिंह नामक शासक हुए । इनके शासनकाल में गुहिल वंश दो भागों में बंट गया । राजा रण सिंह के दो पुत्र थे क्षेम सिंह व राहप । क्षेम सिंह ने रावल शाखा जबकि राहप ने सिसोदिया शाखा यानी सिसोदिया वंश की स्थापना की ।
रावल शाखा व सिसोदिया शाखा का उदय
गुहिल शाखा दो शाखाओं में बंटने के कारण क्षेम सिंह के वंशज रावल शाखा के जबकि राहप के वंशज सिसोदिया शाखा के राजपूत कहलाए । गुहिल वंश की मुख्य शाखा का शासक क्षेम सिंह था जिसमें आगे चलकर सामंत सिंह,जेत्र सिंह,समर सिंह व रावल रतन सिंह नामक शासक हुए । यह शाखा 1303 ई. तक चलती है । रावल रतन सिंह की हत्या कर अल्लाउद्दीन खिलजी चितौड़ पर अधिकार कर लेता है ।
1326 ई. सिसोदिया वंश के महाराण हमीर सिंह ने चितौड़ पर अधिकार कर मेवाड़ की खोई हुई प्रतिष्ठा को पुनः स्थापित किया । इस शाखा में आगे चलकर महाराणा कुम्भा, महाराणा संग्राम सिंह, महाराणा उदय सिंह व महाराणा प्रताप सिंह जैसे महान यौद्धाओं ने जन्म लिया । याद रखिये सिसोदिया शाखा राहप के वंशज थे । इस बात को भी समझना आवश्यक है कि ये दोनों ही गुहिल वंश की शाखाएं हैं।
आज हमने आपको जानकारी दी गुहिल वंश के शुरुआती महत्वपूर्ण शासकों के बारे में । रावल शाखा व सिसोदिया शाखा के मुख्य व महत्वपूर्ण शासकों के बारे में हम मेवाड़ का इतिहास सीरीज में विस्तार से बताएंगे ।
गुहिल वंश की वंशावली
शासक | शासनकाल |
बप्पारावल /कालभोज | 734 ई. – 753 ई. |
रावल खुमान | 753 ई. – 773 ई. |
मत्तट | 773 ई. – 793 ई. |
भर्तभट्ट | 793 ई. – 813 ई. |
रावल सिंह | 813 ई. – 828 ई. |
खुमाण सिंह | 828 ई. – 853 ई. |
महायक | 853 ई. – 878 ई. |
खुमाण सिंह तृतीय | 878 ई. – 903 ई. |
भर्तभट्ट द्वितीय | 903 ई. – 951 ई. |
अल्लट | 951 ई. – 971 ई. |
नरवाहन | 971 ई. – 973 ई. |
शालिवाहन | 973 ई. – 977 ई. |
शक्ति कुमार | 977 ई. – 993 ई. |
अम्बा प्रसाद | 993 ई. – 1007 ई. |
शुची वर्मा | 1007 ई. – 1021 ई. |
नर वर्मा | 1021 ई. – 1035 ई. |
कीर्ति वर्मा | 1035 ई. – 1051 ई. |
योगराज | 1051 ई. – 1068 ई. |
वैरठ | 1068 ई. – 1088 ई. |
हंसपाल | 1088 ई. – 1103 ई. |
वैरी सिंह | 1103 ई. – 1107 ई. |
विजय सिंह | 1107 ई. – 1127 ई. |
अरि सिंह | 1127 ई. – 1138 ई. |
चौड सिंह | 1138 ई. – 1148 ई. |
विक्रम सिंह | 1148 ई. – 1158 ई. |
रण सिंह (कर्ण सिंह) | 1158 ई. – 1168 ई. |
क्षेम सिंह | 1168 ई. – 1172 ई. |
सामंत सिंह | 1172 ई. – 1179 ई. |
कुमार सिंह | 1179 ई. - 1192 ई. |
मंथन सिंह | 1192 ई. - 1213 ई. |
जेत्र सिंह | 1213 ई. - 1252 ई. |
तेज सिंह | 1252 ई. - 1273 ई. |
समर सिंह | 1273 ई. - 1302 ई. |
रतन सिंह | 1302 ई. – 1303 ई. |
राजा अजय सिंह | 1303 ई. – 1326 ई. |
महाराणा हमीर सिंह | 1326 ई. – 1364 ई. |
महाराणा क्षेत्र सिंह | 1364 ई. – 1382 ई. |
महाराणा लाखासिंह | 1382 ई. – 1421 ई. |
महाराणा मोकल | 1421 ई. – 1433 ई. |
महाराणा कुम्भा | 1433 ई. – 1469 ई. |
महाराणा उदा सिंह | 1468 ई. – 1473 ई. |
महाराणा रायमल | 1473 ई. – 1509 ई. |
महाराणा सांगा (संग्राम सिंह) | 1509 ई. – 1527 ई. |
महाराणा रतन सिंह | 1528 ई. – 1531 ई. |
महाराणा विक्रमादित्य | 1531 ई. – 1534 ई. |
महाराणा उदय सिंह | 1537 ई. – 1572 ई. |
महाराणा प्रताप | 1572 ई. – 1597 ई. |
महाराणा अमर सिंह | 1597 ई. – 1620 ई. |
महाराणा कर्ण सिंह | 1620 ई. – 1628 ई. |
महाराणा जगत सिंह | 1628 ई. – 1652 ई. |
महाराणा राजसिंह | 1652 ई. – 1680 ई. |
महाराणा अमर सिंह द्वितीय | 1698 ई. – 1710 ई. |
महाराणा संग्राम सिंह | 1710 ई. – 1734 ई. |
महाराणा जगत सिंह द्वितीय | 1734 ई. – 1751 ई. |
महाराणा प्रताप सिंह द्वितीय | 1751 ई. – 1754 ई. |
महाराणा राजसिंह द्वितीय | 1754 ई. – 1761 ई. |
महाराणा हमीर सिंह द्वितीय | 1773 ई. – 1778 ई. |
महाराणा भीमसिंह | 1778 ई. – 1828 ई. |
महाराणा जवान सिंह | 1828 ई. – 1838 ई. |
महाराणा सरदार सिंह | 1838 ई. – 1842 ई. |
महाराणा स्वरूप सिंह | 1842 ई. – 1861 ई. |
महाराणा शंभू सिंह | 1861 ई. – 1874 ई. |
महाराणा सज्जन सिंह | 1874 ई. – 1884 ई. |
महाराणा फ़तेह सिंह | 1883 ई. – 1930 ई. |
महाराणा भूपाल सिंह | 1930 ई. – 1955 ई. |
महाराणा भगवत सिंह | 1955 ई. – 1984 ई. |
महाराणा महेन्द्र सिंह | 1984 ई. – निरंतर... |
मेवाड़ का इतिहास भाग-2
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