दोस्तों 'राष्ट्रकूट राजवंश भाग-5' हमारे द्वारा दी जा रही राष्ट्रकूट वंश के इतिहास (History of Rashtrkoot Dynasty in Hindi) की जानकारी का पांचवां और अंतिम भाग है । उम्मीद करता हूँ आपको पिछले चार भागों में दी गयी जानकारी पसंद आई होगी तथा आपके ज्ञान में इजाफा हुआ होगा । यदि आपने पिछले भागों को नहीं पढ़ा तो कृपया करके पहले पिछले भागों को पढ़ें तभी आपको राष्ट्रकूट वंश (Rashtrkoot Vansh) की पूरी जानकारी समझ आएगी । आप पोस्ट के नीचे दिए गए लिंक द्वारा पिछले भाग पर जा सकते हैं ।
Rashtrakuta Dynasty
कृष्ण तृतीय
कृष्ण तृतीय अमोघवर्ष तृतीय का पुत्र था । वह 939 ई. में राष्ट्रकूट शासक बना । उसने अकालवर्ष, वल्लभ नरेंद्र, पृथ्वीवल्लभ आदि उपाधियां धारण कीं । कांची तथा तंजौर की विजय के उपलक्ष्य में उसने कांचीयुम तंजेयम कोंड की उपाधि धारण की ।
गंगो से संघर्ष
अपने पिता अमोघवर्ष तृतीय के शासनकाल के दौरान उसने शासन के संचालन में सक्रिय भूमिका निभाई । उसे अपने पिता द्वारा शासन से संबंधित निर्णय लेने का पूरा अधिकार प्राप्त था । अमोघवर्ष तृतीय का समकालीन गंगबाड़ी का शासक राजमल्ल तृतीय था । परन्तु कृष्ण तृतीय अपने जीजा/बहनोई बुबूग को गंगवाड़ी का शासक बनाना चाहता था । बुबूग राजमल्ल तृतीय का बड़ा भाई था ।
ताकि भविष्य में गंग राज्य राष्ट्रकूटों का सहयोगी बना रहे । योजना के अनुसार कृष्ण तृतीय ने गंगवाड़ी पर आक्रमण कर दिया । 937 ई. के लगभग कृष्ण तृतीय तथा गंग राजा राजमल्ल की सेनाओं के मध्य घमासान युद्ध हुआ । इस युद्ध में राजमल्ल मारा गया । योजनानुसार कृष्ण तृतीय ने बुबूग (बुटूग) को गंगवाड़ी का शासक बना दिया । भविष्य में कई अभियानों में बुटूग ने कृष्ण तृतीय को सहायता प्रदान की ।
चेदियों से संघर्ष
चेदियों तथा राष्ट्रकूटों के मध्य बहुत पुराने समय से वैवाहिक संबंध चले आ रहे थे । अमोघवर्ष द्वितीय को सत्ताहीन करने में चेदियों ने मुख्य भूमिका निभाई । अमोघवर्ष तृतीय के समय तक भी दोनों राज्यों के मध्य मधुर संबंध थे लेकिन कृष्ण तृतीय के समय तक आते-आते इन संबंधों में कटुता आ गई । दोनों राज्य एक दूसरे के दुश्मन बन गए जिसका परिणाम यह हुआ कि राष्ट्रकूट नरेश कृष्ण तृतीय ने चेदियों पर आक्रमण कर दिया । चेदियों को राष्ट्रकूटों के इस आक्रमण की उम्मीद नहीं थी । परंतु यह संघर्ष हुआ जिसमें चेदियों की बुरी तरह हार हुई । इस प्रकार कृष्ण तृतीय ने अपने विश्वसनीय मित्र चेदियों को अपना शत्रु बना लिया ।
उत्तर भारत अभियान
कृष्ण तृतीय ने अपने पिता के शासनकाल में उत्तर भारत के गुर्जर- प्रतिहारों के विरुद्ध युद्ध छेड़ दिया । राष्ट्रकूटों की सेना ने बुंदेलखंड, कालिंजर तथा चित्रकूट के दुर्गों पर अधिकार कर लिया । कृष्ण तृतीय ने यहां स्थायी रूप से यहां अपने सैन्याधिकारी नियुक्त कर दिए । इस प्रकार राष्ट्रकूटों ने उत्तर भारत में अपनी प्रतिष्ठा स्थापित की ।
कुछ वर्षों पश्चात जब कृष्ण तृतीय सम्राट बन चुका था उत्तर भारत में राजनीतिक उथल पुथल के फलस्वरूप वहां चंदेलों का उदय हो गया था। चंदेलों ने बुंदेलखंड, कालिंजर तथा चित्रकूट के क्षेत्रों पर अधिकार कर लिया था । कृष्ण तृतीय ने उत्तर भारत में आक्रमण की योजना बनाई । इस अभियान में गंगवाड़ी शासक मारसिंह ने कृष्ण तृतीय को सैन्य सहायता प्रदान की । मारसिंह भी पूर्व गंग शासक बुटूग की ही भांति कृष्ण तृतीय के प्रति वफादार था । बुटूग कृष्ण तृतीय का बहनोई था जिसकी मृत्यु के पश्चात मारसिंह गंगवाड़ी का शासक बना । पूरी तैयारी के पश्चात लगभग 963 ई. में राष्ट्रकूट सेना ने बुंदेलखंड पर आक्रमण कर दिया ।
मध्य प्रदेश में सतना जिले से प्राप्त एक अभिलेख से ऐसा अनुमान लगाया जाता है कि राष्ट्रकूटों ने पुनः बुंदेलखंड पर अधिकार कर लिया था । कुछ विद्वानो का मत है कि कालिंजर तथा चित्रकूट को राष्ट्रकूट चन्देलों से छीन नहीं पाए थे । इसके पश्चात कृष्ण तृतीय ने मालवा पर आक्रमण कर दिया जहां के परमार शासक सीयक को पराजित कर उसने उज्जैन तथा उसके आस-पास के क्षेत्रों पर अधिकार कर लिया था । इसी अभियान के दौरान मारसिंह ने राष्ट्रकूट सेना के सहयोग से गुर्जर-प्रतिहारों की सेनाओं को पराजित कर गुर्जरराज की उपाधि धारण की । लगभग 964 ई. में उत्तर भारत के इस अभियान को पूरा कर राष्ट्रकूट सैना वापिस मान्यखेत लौट आई ।
वेंगी-राष्ट्रकूट संबंध
कृष्ण तृतीय का समकालीन वेंगी शासक भीम था जिसके पश्चात उसका अल्पवयस्क पुत्र अभा द्वितीय वेंगी सिंहासन पर बैठा । उस समय उसकी आयु मात्र 12 वर्ष की थी । कृष्ण तृतीय उत्तर व दक्षिण भारत के अभियानों में व्यस्त रहने के कारण वेंगी के राजनीतिक मामलों में हस्तक्षेप नहीं कर पाया । वह राष्ट्रकूट समर्थक युद्धामल्ल द्वितीय के पुत्र बाड़प को वेंगी की गद्दी पर बैठना चाहता था । उसने 956 ई. में बाड़प के समर्थन में अपनी सेना भेज अभा को वेंगी की गद्दी से हटाकर बाड़प को बैठा दिया । बाड़प लगभग 970 ई.तक राष्ट्रकूटों के समर्थन में शासन करता रहा ।
कृष्ण तृतीय राष्ट्रकूट वंश का अंतिम महान एव प्रतापी शासक था । उसने अपनी सूझबूझ व बाहुबल से राष्ट्रकूट साम्राज्य को दक्षिण भारत में अजेय बना दिया था । हालांकि उसे उत्तर भारत में कोई विशेष सफलता नहीं मिली क्योंकि उसका राज्य दक्षिण में था अतः उसने अपना ज्यादा ध्यान दक्षिण के अभियानों में लगाया । 967 ई. में कृष्ण तृतीय की मृत्यु के समय उसका पुत्र अल्पवयस्क था अतः सभी के समर्थन से कृष्ण तृतीय के भाई खोट्टीग (अमोघवर्ष चतुर्थ) को राष्ट्रकूट शासक बनाया गया ।
खोट्टीग (अमोघवर्ष चतुर्थ)
967 ई. में कृष्ण तृतीय की मृत्यु के बाद काफी वृद्धावस्था में खोट्टीग राष्ट्रकूट गद्दी पर बैठा । खोट्टीग अमोघवर्ष तृतीय का सबसे छोटा पुत्र तथा कृष्ण तृतीय का भाई था । उसकी माता का नाम कंदक देवी था । अपने राज्याभिषेक के समय उसने नित्यवर्ष की उपाधि धारण की । उसके शासनकाल के दौरान 972 ई. में परमार शासक सीयक (हर्षदेव) ने राष्ट्रकूटों की राजधानी मान्यखेट पर आक्रमण कर दिया था । सीयक ने यह आक्रमण 964 ई. में राष्ट्रकूटों द्वारा मालवा क्षेत्र के परमारों पर आक्रमण के फलस्वरूप किया था । परमारों व राष्ट्रकूट सेनाओं के मध्य भयंकर युद्ध हुआ लेकिन सीयक राजधानी मान्यखेत पर घेरा डालने में कामयाब रहा । उसने राजधानी मान्यखेत के खजाने को लूट लिया । अंततः गंग शासक मारसिंह के सैन्य सहयोग से परमारों को वहां से खदेड़ा गया ।
कुछेक इतिहासविदों के अनुसार सीयक स्वंय मान्यखेत से लौट गया था क्योंकि उसका उद्देश्य राष्ट्रकूटों से बदला था । इसी कारण उसने राजधानी मान्यखेत को लूटा और अपनी शक्ती का प्रदर्शन किया । लौटते समय परमार सैनिकों ने सचिवालय में रखे दान पत्रों को भी लूट लिया । इस प्रकार राष्ट्रकूट साम्राज्य का रुतबा और शोहरत जो खट्टीग को विरासत में मिला था उसे बचा नहीं पाया । खट्टीग इस जिल्लत और अपमान को सह नहीं पाया । 972 ई. में इसी दुख के साथ उसने प्राण त्याग दिये । इस प्रकार खट्टीग (अमोघवर्ष चतुर्थ) प्रशासनिक जिम्मेदारियों को संभालने में विफल रहा । खट्टीग साम्राज्य विस्तार की सोच भी नहीं सकता था क्योंकि वह अपने विरासत में मिले साम्राज्य को भी नहीं संभाल सका । खट्टीग के काल से ही राष्ट्रकूट साम्राज्य पतन की ओर अग्रसर होने लगा । इस वंश का अंतिम ज्ञात शासक कर्क द्वितीय था जो खट्टीग की मृत्यु के पश्चात 972 ई. में राष्ट्रकूट शासक बना ।
कर्क द्वितीय
कर्क द्वितीय, कृष्ण तृतीय के पुत्र निरुपम का पुत्र था । निरुपम जो खट्टीग (अमोघवर्ष चतुर्थ) का भाई था यानी कर्क द्वितीय खट्टीग का भतीजा था । सम्भवतः खट्टीग के कोई संतान नहीं थी इसी कारण कर्क द्वितीय को राष्ट्रकूट गद्दी पर बैठाया गया । उसने अमोघवर्ष चतुर्थ की मृत्यु के पश्चात 972 ई. में शासन संभाला । अपने राज्यारोहण के समय उसने अमोघवर्ष नृपतुंग, वीरनारायण तथा राजत्रिनेत्र आदि उपाधियाँ धारण कीं । कर्क द्वितीय के अभिलेखों में उसे हूण, गुर्जर, पाण्ड्य तथा चोलों को पराजित करने वाला बताया गया है । लेकिन इतिहासकारों की धारणा है कि अभिलेखों में नितांत,काल्पनिक तथ्यों का समावेश है । उनके अनुसार मात्र एक वर्ष के शासनकाल में कर्क द्वितीय इतना सब कुछ नहीं कर सकता है ।
कर्क द्वितीय एक निर्बल व अयोग्य शासक था । वह न केवल सामंतों व मंत्रियों में बल्कि राष्ट्रकूट जनता में भी सहानुभूति खो चुका था । कर्क द्वितीय की निर्बलता का लाभ उठाकर कई सामंतो ने स्वयं को स्वतंत्र घोषित कर दिया । चालुक्य वंशीय सामंत तैलप द्वितीय की महत्वकांक्षाएं परवान चढ़ने लगीं । वह सम्पूर्ण दक्षिण भारत में अपना आधिपत्य स्थापित करना चाहता था । तैलप द्वितीय यह भली भांति जनता था कि गंगवाड़ी से कर्क द्वितीय को कोई मदद नहीं मिलेगी क्योंकि गंग नरेश भी कर्क द्वितीय के व्यवहार से नाराज हो गया था तथा उसके साम्राज्य के मंत्री व सामंत भी उसका साथ छोड़ चुके थे । सभी परिस्थितियां अपने अनुकूल पाकर तैलप द्वितीय ने राष्ट्रकूटों के विरुद्ध युद्ध की तैयारी कर ली । 973 ई. के अंतिम माह में दोनों सेनाओं के मध्य उत्तरी कर्नाटक के आसपास भयंकर युद्ध हुआ जिसमें कर्क द्वितीय की बुरी तरह पराजय हुई ।
Downfall of Rashtrakuta
इस प्रकार इस हार के साथ ही राष्ट्रकूट साम्राज्य का अंतिम रूप से पतन हो गया था । युद्ध क्षेत्र से भागकर कर्क द्वितीय वर्तमान शिमोगा जिले के सोरब तालुका नामक स्थान पर आ गया और यहीं पर एक छोटी सी रियासत बनाकर 991 ई. तक राज्य करता रहा । राष्टकूटों के पतन के पश्चात ही कल्याणी के चालुक्य वंश का उदय हुआ जिसकी स्थापना तैलप प्रथम ने की थी । राष्टकूटों को परास्त करने के बाद इसका वास्तविक स्वतंत्र शासक तैलप द्वितीय बना।
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