शक कौन थे और ये भारत क्यों आये
दोस्तों पुराणों के अनुसार शकों की उत्त्पति सूर्यवंशी राजा नरिष्यन्त से हुई है । राजा सागर ने नरिष्यन्त को पदच्युत का देश से निर्वासित कर दिया था । वर्णाश्रम के नियमों के पालन नहीं करने के कारण वे ब्राह्मणों से अलग हो गए तथा ये मलेच्छ कहलाने लगे तथा बाद में इन्हीं के वंशज शक कहलाए । महाभारत, गार्गी संहिता, हर्षचरित में भी शकों का उल्लेख मिलता है ।
इतिहासकारों के अनुसार शक प्राचीन मध्य एशिया तथा सीर नदी घाटी में रहने वाली स्थिकी जाति या जनजाति का एक समूह था । तिब्बत के उत्तर-पश्चिम में तकलामकान की मरुभूमि के सीमांत पर युइशि जाती के लोग रहते थे जिन्होंने दूसरी शताब्दी ईसा पूर्व में उत्तर-पूर्व की ओर से शकों पर आक्रमण किया । हालाँकि युइशि बड़े ही वीर और बहादुर थे परन्तु प्राचीन काल में उत्तरी चीन में रह रही 'हूण' जनजाति के लोगों द्वारा युइशियों पर आक्रमण के कारण उन्हें तकलामकान मरुभूमि छोड़ने के लिए विवश होना पड़ा । हूण एक असभ्य और बर्बर जाति थी जो चीन के सभ्य राज्यों पर आक्रमण कर लूटपाट कर अपना जीवन यापन करती थी । इन्हीं हमलों से बचने के लिए चीन के तत्कालीन सम्राट शिंग-शुआंग-ती ने उत्तरी चीन में 220 ई. पू. से 206 ई. पू. में एक बहुत बड़ी दीवार का निर्माण करवाया (इसी दीवार के अवशेषों पर बाद के सम्राटों ने चीन की विशाल दीवार का निर्माण करवाया) । इसी दीवार के कारण हूणों का चीन पर आक्रमण करना असम्भव हो गया अतः उन्होंने पश्चिम का रूख किया तथा युइशियों पर आक्रमण कर दिया । इस युद्ध में युइशियों का राजा मारा गया तथा युइशि अपनी विधवा रानी के नेतृत्व में अपने तकलामक़ान मरुभूमि के क्षेत्र को छोड़कर आगे बढ़ने के लिए विवश हो गए । आगे बढ़कर युइशि शकों के राज्य सीर नदी घाटी क्षेत्र जा पहुँचे और उन पर आक्रमण कर दिया तथा शकों को परास्त कर वहां से खदेड़ दिया । इस प्रकार हूणों ने युइशियों को तथा युइशियों ने शकों को परास्त कर अपने प्रदेश छोड़ने को विवश किया ।
युइशियों से परास्त होने के पश्चात् शक जाति के लोग कई कबीलों (शाखाओं) में बंट गए । बस यही वो समय था जब शकों की एक शाखा ने बैक्ट्रिया पर आक्रमण कर यवन शासक हेलिओक्लीज़ (यूक्रेटाइडस वंश) को परास्त कर दिया तथा बैक्ट्रिया से यवन साम्राज्य समाप्त कर दिया । इस प्रकार शकों ने बैक्ट्रिया पर अधिकार कर किया था,विदित रहे शकों की इस शाखा ने हिंदुकुश पर्वत पार नहीं किया यानि ये शाखा भारत नहीं आई और यवन शासक हेलिओक्लीज़ के जो भारतीय प्रदेश थे वे बाद में भी उसके अधीन ही रहे और वह स्वतंत्र राजा के रूप में शासन करता रहा( यवनों की इसी शाखा में आगे चलकर एण्टियालकीड्स और हर्मियस नामक राजा होते हैं जिन्होंने भारत पर शासन किया था )।
बैक्ट्रिया पर विजय प्राप्त करने के पश्चात शकों ने दक्षिण-पश्चिम का रुख किया जहाँ वक्षु नदी के पार पार्थिया राज्य था । लगभग 128 ई.पू. में शकों ने पार्थिया पर आक्रमण कर दिया, यहाँ का पार्थियन राजा शकों से लड़ता हुआ मारा गया । इसके पश्चात पार्थिया का उत्तराधिकारी राजा आर्तेबानस बना । इसके शासनकाल में शकों ने पार्थिया में प्रवेश कर उसे बुरी तरह लूटा, आर्तेबानस भी शकों से लड़ता हुआ मारा गया । इसके पश्चात् मिथिदातस द्वितीय(123 ई.पू.-88 ई.पू.) ने पार्थिया का शासन संभाला । मिथिदातस द्वितीय ने शक आक्रमणों से अपने राज्य की रक्षा की तथा पार्थिया में शकों के प्रवाह को कम किया । मिथिदातस द्वितीय की शक्ति के सामने विवश होकर शकों ने अपना ध्यान पश्चिम से हटकर दक्षिण-पश्चिम की ओर कर लिया । जिसका परिणाम ये रहा की अब शकों ने भारत पर आक्रमण शुरू कर दिया । शकों का पहला भारत आक्रमण लगभग 123 ई. पू. में हुआ ।
भारत में शकों का आगमन
पार्थिया की पराजय के पश्चात शकों ने भारत आना शुरू कर दिया । उन्होंने सीस्तान और सिंधु के रास्ते भारत में प्रवेश किया । भारत में पहला शक शासक माउस(मावेज) था । इन्होने सिंधु नदी के तट पर स्थित मीननगर को अपनी राजधानी बनाया जो शकों का पहला भारतीय राज्य था । यहीं से उन्होंने भारत के अन्य क्षेत्रों में अपने साम्राज्य को फैलाने का प्रयत्न किया ।
दोस्तों जैनगुरु कालक पर एक ग्रंथ लिखा गया है- कालकाचार्य कथानक । इसके अनुसार कालक मालवा के राजा गर्दभिल्ल के अत्याचारों से परेशान होकर पार्थियन के शक़ सरदार के पास आये और उनसे मालवा पर आक्रमण करने को कहा । शक सेनाओं ने सिंधु नदी पार कर कठियावाड़ पर अधिकार कर लिया इसके पश्चात उन्होंने गर्दभिल्ल को परास्त कर मालवा की राजधानी उज्जयिनी (उज्जैन) पर अधिकार कर लिया । गर्दभिल्ल को कारावास में डाल दिया गया और मालवा शकों के अधीन हो गया, यद्पि शकों की राजधानी मीननगर ही रही । शकों की कुल पाँच शाखाएँ थीं जिनमें से चार शाखाओं ने भारत में शासन किया । भारत के शक शासक स्वयं को क्षत्रप कहते थे । क्षत्रप राजा के जैसी एक उपाधि है जैसे राजा-क्षत्रप, महाराजा-महाक्षत्रप । शकों की जो चार शाखाएं भारत में थीं वो निम्न प्रकार हैं-
उत्तरी क्षत्रप राज्य
- तक्षशिला के क्षत्रप
- मथुरा के क्षत्रप
पश्चिमी क्षत्रप राज्य
- नासिक के क्षत्रप
- उज्जैन के क्षत्रप
शुरुआत में ये उत्तरी क्षत्रप और पश्चिमी क्षत्रप के रूप में जाने गए लेकिन बाद में ये दो-दो भागों में बंट गए तथा अलग-अलग वंशों में शासन किया । इनमे से पश्चिम के शक क्षत्रप अधिक प्रसिद्ध थे । नासिक के शक क्षहरात वंश के तथा उज्जैन के शक कार्दमक वंश(चष्टन वंश) के थे । जबकि उत्तरी शक शासकों का राज्य ज्यादा समय तक नहीं चला ।
तक्षशिला के शक शासक
तक्षशिला का पहला शक शासक माउस था । इसके ऐजेज प्रथम ने लगभग 5 ईस्वी से 30 ईस्वी तक शासन को संभाला । ऐजेज प्रथम बैक्ट्रियन युनानी वंश यूथीडेमस वंश का समकालीन था जिसका उस समय तक्षशिला के क्षेत्रों पर शासन था। ऐजेज प्रथम ने यूथीडेमस वंश को समाप्त करके उनके क्षेत्रों पर अधिकार कर लिया था । इसके पश्चात् ऐजेलिसेज 28 ईस्वी से 40 ईस्वी तक शासक किया तत्पश्चात ऐजेज द्वितीय ने शकों की गद्दी को संभाला । ऐजेज द्वितीय ज्यादा काबिल शासक नहीं था तथा उसके काफी क्षेत्रों पर पह्लव(पार्थियन) शासक गोंडोफर्नेस ने अधिकार लिया था । तक्षशिला के सभी शासकों ने 'राजाओं के महाराज' की उपाधि धारण की थी ।
मथुरा के शक शासक
दोस्तों मथुरा के शक शासक शुरुआत में मालवा में आये थे । उज्जैन के राजा विक्रमादित्य ने 57 ईसा पूर्व में शकों को पराजित किया और वहां से खदेड़ दिया । फिर ये शक लोग भागकर मथुरा आ गए और यहाँ नए सिरे से अपना शासन शुरू किया । मथुरा का प्रथम शक शासक राजुल अथवा राजउल था तथा अंतिम शासक शोडास था । विक्रमादित्य द्वारा इनकी शक्ति का ह्वास कर दिया गया था तथा मथुरा में ज्यादा समय तक इनका शासन नहीं चला और धीरे-धीरे मथुरा का शक शासन का पतन हो जाता है ।
क्षहरात वंश
भूमक
क्षहरात वंश का प्रथम शासक भूमक था ।महाराष्ट्र और काठियावाड़ से भूमक के अनेक सिक्के प्राप्त हुए हैं जिससे ये अनुमान लगाया जाता है कि इन दोनों क्षेत्रों पर भूमक ने शासन किया था ।
नहपान
नहपान क्षहरात वंश का सबसे प्रसिद्ध शक क्षत्रप था । भूमक के बाद नहपान ही क्षहरात वंश का वास्तविक उत्तराधिकारी था । इसका शासन काल संभवतः 119 ई. से 124 ई. तक था । उसने क्षत्रप तथा महाक्षत्रप दोनों ही उपाधियाँ धारण की थी।नहपान सातवाहन शासक गौतमीपुत्र शातकर्णी का समकालीन शासक था । नहपान के जोगलथम्बी (नासिक के पास) नामक स्थान से बड़ी संख्या में सिक्के प्राप्त हुए है जिनमे से कुछ सिक्कों को गौतमीपुत्र शातकर्णी ने पुनः खुदवाया था । नहपान के लगभग सभी सिक्के खरोष्ठी लिपि में अंकित थे ।.
नहपान ने अपनी पुत्री दक्षमित्रा का विवाह दीनिक के पुत्र ऋषभदत्त (ऊषभदात)से किया था जो नहपान के साम्राज्य विस्तार और शासनसंचालन में बहुत सहयोग करता है । नासिक के एक गुहा शिलालेख से यह ज्ञात होता है की भट्टारक (संभवतः नहपान या नहपान का भी कोई स्वामी अर्थात कोई कुषाण शासक) ने ऊषभदात को मालवों के विरुद्ध (119 ईस्वी से 123 ईस्वी के बीच) उत्तमभद्रों की सहायता के लिए भेजा था ।उत्तमभद्र उस समय अजमेर-पुष्कर क्षेत्रों में निवास करते थे । उसके पड़ोस में प्रथम ईसवी शताब्दी के अंत तक मालवों ने वर्तमान जयपुर तथा टोंक के क्षेत्रों में अपना स्वतंत्र गणराज्य स्थापित कर लिया था । इन्ही मालवो से उत्तमभद्रों का झगड़ा हुआ और मालवों ने उत्तमभद्रों के मुखिया को बंदी बना लिया । इस युद्ध में मालवों की करारी पराजय हुई तथा शकों ने पुष्कर-अजमेर को अपने अधीन कर साम्राज्य विस्तार किया । ऋषभदत्त के एक लेख से यह उल्लेख मिलता है कि अजमेर क्षहरात वंश के शासक नहपान के अधीन था । इस विजय के पश्चात शक मुखिया दीनिक के पुत्र ऋषभदत्त ने पुष्कर सरोवर में स्नान किया तथा एक गांव और गायों का दान दिया । पुष्कर से बड़ी संख्या में बैक्ट्रियन यूनानी तथा शक क्षत्रपों के सिक्के प्राप्त हुए हैं जिससे यह अनुमान लगाया जा सकता है कि पुष्कर उस समय एक समृद्ध नगर रहा होगा । अभिलेखों के अनुसार नहपान का साम्राज्य गोवर्धन आहार (नासिक), मामाल आहार (पूना), कोंकण, भड़ौंच से सोपारा तक, कायूर आहार (बड़ौदा के पास),दक्षिण और उत्तरी गुजरात, दशपुर (मालवा में) प्रभास (दक्षिणी काठियावाड़) तथा पुष्कर (अजमेर) क्षेत्रों तक था। संभवतः इसके प्रभावक्षेत्र में ताप्ती, बनास और चंबल की घाटियाँ भी थीं ।
यद्धपि नहपान का शासनकाल थोड़े ही समय का था तथापि उसके शासनकाल में अनेकों घटनाएं घटीं । उसके राज्य में अनेकों युद्ध हुए,अनेकों अभियान भेजे गए तथा पुण्यार्थ ब्राह्मणों को सोना और गायें दान दी । उसके सभी कार्यों में उसके दामाद ऊषभदात ने बहुत सहायता की । यह भी बताया जाता है कि उसकी पत्नी ने धार्मिक ख्याति के लिए एक गुफा-निवास दान में दिया था ।
गौतमीपुत्र शातकर्णी तथा नहपान की सेनाओं के मध्य भयंकर युद्ध होता है जिसमे सम्भवतः नहपान और उसका दामाद ऊषभदात दोनों मारे जाते हैं ।
कार्दमक वंश(चष्टन वंश)
कार्दमक वंश का शासन संभवतः 130 ईस्वी से 388 ईस्वी तक था । इस वंश का प्रथम शक क्षत्रप चष्टन था । दोस्तों कहा जाता है कि चष्टन ने ही 78 ई. पू. में शक संवत जारी किया था जो एक कैलेंडर की तरह है जो आज भी भारत में विद्यमान है । कार्दमक वंश के शासनकाल के शुरू होने से पहले चष्टन ने कुषाणों के सामंत के रूप में सिंध पर शासन किया था । लेकिन इस वंश के शासनकाल की वास्तविक शुरुआत रुद्रदामन प्रथम से मानी जाती है जो चष्टन का पौत्र व जयदामन का पुत्र था ।
रुद्रदामन प्रथम (130 ईस्वी से 150 ईस्वी)
रुद्रदामन प्रथम इस वंश का सबसे शक्तिशाली तथा योग्य शासक था ।रुद्रदामन प्रथम ने कुषाणों को पराजित कर सिन्ध पर अधिकार कर लिया था । रुद्रदामन प्रथम के बारे में जूनागढ़ अभिलेख ( शक संवत 72 अथवा 150 ईसवी) में विस्तृत जानकारी मिलती है । जूनागढ़ अभिलेख के अनुसार रुद्रदामन ने सातवाहन शासक वशिष्ठी पुत्र पुलुमावी को दो बार युद्ध में पराजित किया था लेकिन निकट सम्बन्धी होने के कारण उसे छोड़ दिया। रुद्रदामन प्रथम न केवल एक अच्छा प्रजापालक शासक था बल्कि संगीत, व्याकरण, राजनीति और तर्कशास्त्र का महापंडित था । दोस्तों गुजरात के गिरनार पर्वत के पास स्थित कठियावाड़ में एक अर्धशुष्क सुदर्शन झील है जिसके बारे में जूनागढ़ अभिलेख से यह जानकारी मिलती है कि रुद्रदामन ने मौर्य काल में बनवाई गयी इस झील का भी पुनः निर्माण भी करवाया था (पुष्यगुप्त वैश्य ने इस झील का निर्माण करवाया था जो उस समय चन्द्रगुप्त मौर्य का मंत्री तथा गुजरात का प्रान्तपति था, यवनराज तुषाष्य द्वारा अशोक के समय इसी झील से एक सहायक नहर भी निकाली गयी थी उस समय तुषाष्य भी गुजरात का प्रान्तपति था) । अन्धो अभिलेख(कच्छ की खाड़ी) से यह जानकारी मिलती है कि रुद्रदामन ने चष्टन के साथ सहशासक के रूप में शासन किया था । वह वैदिक धर्म का अनुयायी था। रुद्रदामन के शासनकाल में ही विशुद्ध संस्कृत भाषा में सबसे लम्बा अभिलेख(जूनागढ़) जारी किया गया था हालांकि इससे पहले भी कई शासकों द्वारा लम्बे-लम्बे अभिलेख जारी किये गये थे लेकिन वो प्राकृत भाषा में थे । रुद्रदामन के शासन काल में संस्कृत साहित्य का अत्यधिक विकास हुआ । उसके समय में उज्जयिनी(उज्जैन) शिक्षा का प्रमुख केंद्र बन गया था । जूनागढ़ अभिलेख के अनुसार रुद्रदामन के साम्राज्य में पूर्वी और पश्चिमी मालवा, द्वारका के आस-पास के क्षेत्र, सौराष्ट्र, कच्छ, सिन्धु नदी का मुहाना, उत्तरी कोंकण आदि थे । शक-सातवाहन काल में सोने व चांदी के सिक्कों की विनियम दर 1:35 थी ।
इस वंश का अन्तिम शासक रुद्रसिंह तृतीय था । चौथी शताब्दी के अंत तक गुप्त शासक चंद्रगुप्त द्वितीय (विक्रमादित्य अथवा चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य) ने शकों का उन्मूलन कर उनके साम्राज्य को गुप्त साम्राज्य में मिला लिया था । शकों के उन्मूलन के पश्चात् चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य ने व्याघ्र शैली में चांदी की सिक्के चलवाए ।
दोस्तों इस प्रकार शकों के शासन का तीन बार में विनाश होता है जैसा की आपने पढ़ा । मथुरा का शक साम्राज्य जो पहले मालवा में था उज्जैन के राजा विक्रमादित्य ने इनका विनाश किया और वहां से खदेड़ दिया जो रहे-बचे शक लोग थे वो भागकर मथुरा आ जाते हैं । क्षहरात वंश के शकों का विनाश गौतमी पुत्र शातकर्णी ने नहपान को पराजित करके किया था तथा कार्दमक वंश के शकों का शासन चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य ने रुद्रसिंह तृतीय को पराजित करके किया था । इस प्रकार चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य (गुप्त शासनकाल में) ने शकों का पूरी तरह से उन्मूलन कर दिया था ।
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