Pallava dynasty ~ पल्लव वंश का इतिहास ~ Ancient India

Pallava dynasty ~ पल्लव वंश का इतिहास

पल्लव राजवंश प्राचीन दक्षिण भारत के राजवंशों में से एक था । पल्लवों ने चौथी शताब्दी में कांची में अपने राज्य की स्थापना की ओर लगभग 600 वर्षों तक तमिल तथा तेलगु क्षेत्र पर शासन किया । पल्लव प्राचीन दक्षिण भारत की एक प्रमुख शक्ति थी । पल्लवों ने कांची को अपनी राजधानी बनाया जो वर्तमान तमिलनाडु में कांचीपुरम के नाम से जाना जाता है ।

पल्लव कौन थे

पल्लवों की उत्पत्ति के विषय में विद्वानों में मतभेद हैं क्योंकि आज तक ऐसा कोई साक्ष्य प्राप्त नहीं हुआ है जो पल्लवों की उत्पत्ति के बारे में विश्वसनीय जानकारी दे सके ।

बी. एल.राइस तथा वी.वेंकैया के अनुसार ये पहलव अथवा पार्थियन हो सकते हैं जो सातवाहनों के पतन के पश्चात सिंधु घाटी तथा पश्चिम भारत से कृष्णा तथा गोदावरी नदी के मध्य स्थित आंध्रप्रदेश में घुस आए थे । कालान्तर में उन्होंने कांची पर अधिकार कर लिया था । बी.एल.राइस ने कांची के वैकुण्ठपेरुमाल मन्दिर में एक दीवार पर खुदी पल्लव शासक नन्दिवर्मा द्वितीय की एक मूर्ति की ओर ध्यान आकर्षित किया जिसमें उसने हिन्द-यवन शासक डेमेट्रियस के समान गजशीर्ष की आकृति वाला मुकुट पहन रखा है । बी. एल. राइस के अनुसार यह पल्लवों के पार्धियन मूल का होने का प्रमुख प्रमाण है ।

इतिहासकार जे.डूब्रील ने रुद्रदामन के जूनागढ़ अभिलेख में उल्लेखित सुविशाख नामक पढ़व की ओर हमारा ध्यान आकर्षित करते हुए अपना मत व्यक्त किया है । सुविशाख रुद्रदामन के समय सौराष्ट्र का राज्यपाल था । जे.डूब्रील के अनुसार सुविशाख ने बाद में कांचीपुरम पर अधिकार कर लिया और पल्लव राजवंश की स्थापना की । इस प्रकार उनकी राय में सुविशाख पल्लव वंश का आदि पुरुष था ।

इसी प्रकार फादर हेरास का विचार है कि पार्थियन कुल से सम्बन्धित होने के कारण ही पल्लव शासकों ने अपने सिक्कों के पृष्ठ भाग पर मयूर तथा चांद की आकृतियों को उत्कीर्ण करवाया था जबकि ठीक इसी प्रकार की आकृतियाँ पार्थियन राजाओं के सिक्कों पर भी प्राप्त हुई हैं ।

श्रीनिवास अय्यंगार के अनुसार पल्लव प्राचीन नागा लोगों की एक शाखा में से थे । वे मद्रास में निवास करते थे तत्पश्चात उन्होंने तंजौर तथा तिरुचिरापल्ली के कई क्षेत्रों पर अधिकार कर लिया । पल्लव तमिल राजाओं के घोर शत्रु थे यही कारण है कि तमिल भाषा में पल्लव को 'दुष्ट' कहा जाता है ।

इस प्रकार मित्रों कहा जा सकता है कि पल्लवों की उत्पत्ति के इतिहास की रूपरेखा स्पष्ट नहीं है । हालांकि विद्वानों ने पल्लवों की उत्पत्ति पर अपने-अपने मत व्यक्त किये हैं । लेकिन ये सभी मत निराधार हैं क्योंकि कोई ठोस साक्ष्य अभी तक नहीं मिला है जो यह जानकारी दे सके कि पल्लव कौन थे ।

पल्लव पहलव मूल के थे या फिर वो नागवंशी थे या वो ब्राह्मण थे कहना मुश्किल है । तालगुंडा अभिलेख पल्लवों के क्षत्रिय होने की पुष्टि करता है । फिर भी यह कहा जा सकता है कि पल्लवों का उदय सातवाहनों तथा इक्ष्वाकुओं के पश्चात हुआ । संभवतः पल्लव शुरुआत में एक स्थानीय कबीला था । इन्होंने इक्ष्वाकुओं को पराजित कर सत्ता पर अधिकार कर लिया । जहाँ तक पल्लवों के मूल निवास स्थान का सवाल है तो सम्भावना यह जताई जा सकती है कि उनका संबंध उत्तरी भारत से रहा होगा परन्तु यह निश्चित तौर पर नहीं कहा जा सकता कि वे उत्तर भारत से ही दक्षिण आये हों । संभवतः उनका मूल निवास तोण्डैमंडलम था जहाँ वे सातवाहनों के सामंत के रूप में कार्य करते थे । सातवाहनों के पतन के पश्चात पल्लवों ने अपनी स्वतंत्र सत्ता स्थापित कर ली । कालान्तर में वे दक्षिण भारत की प्रमुख शक्ति बन बैठे ।

पल्लवों का शासन

इक्ष्वाकुओं को अपदस्थ कर पल्लवों ने सत्ता स्थापित की । पल्लव का शाब्दिक अर्थ है लता का वाचक । पल्लवों का राज्य उत्तरी तमिलनाडु से दक्षिणी आंध्र प्रदेश तक फैला हुआ था । पल्लवों ने सर्वप्रथम कांची को अपनी राजधानी बनाया । पल्लवों के प्रारंभिक इतिहास की जानकारी प्राकृत व संस्कृत भाषा में प्राप्त हुई है । पल्लव राजवंश के प्रथम संस्थापक के रूप में पल्लवों का प्रमाणिक इतिहास छठी शताब्दी ईस्वी से मिलता है जब सिंहविष्णु ने पल्लव शासन की बागडोर संभाली । हालांकि इससे पहले भी चौथी शताब्दी के आरम्भ में प्रथम शासक के रूप में स्कंदवर्मन अथवा नंदिवर्मन-। तथा चौथी शताब्दी के मध्य में दूसरे पल्लव शासक के रूप में विष्णुगोप का उल्लेख मिलता है ।

स्कंदवर्मन अथवा नंदिवर्मन-।

आरंभिक पल्लव शासकों में स्कंदवर्मन अथवा नंदिवर्मन-। सबसे प्रभावशाली शासक था । कांची से प्राप्त दो दानपत्रों के अनुसार स्कंदवर्मन ने अग्निष्टोम, वाजपेय तथा अश्वमेध यज्ञों का अनुष्ठान कर अपनी शक्ति का उत्कर्ष किया । तुंगभद्रा तथा कृष्णा नदियों द्वारा सिंचित क्षेत्र इसके शासन के अन्तर्गत आते थे । उसने कांची को अपनी राजधानी बनाया ।

विष्णुगोप

दूसरे पल्लव शासक के रूप में विष्णुगोप के नाम का उल्लेख है । इसका शासनकाल 4थी शताब्दी के मध्य में था । प्रयाग प्रशस्ति के अनुसार गुप्त सम्राट समुद्रगुप्त ने अपने दक्षिणापथ अभियान के दौरान पल्लवराज विष्णुगोप को समर्पण करने के लिए विवश कर दिया था । समुद्रगुप्त की यह यात्रा 4थी शताब्दी(350 ई.के आसपास) के मध्य में हुई थी ।

विष्णुगोप (4थी शताब्दी ई. के मध्य काल-350 ई .) से लेकर सिंहवर्मन (लगभग 6ठी शताब्दी ई. के उत्तरार्ध-575 ई.) के बीच लगभग आठ शासकों ने शासन किया । हालांकि यह निर्धारित कर पाना बहुत ही मुश्किल है कि कौनसा शासक पहले हुआ और कौनसा बाद में क्योंकि पल्लवों के प्रारंभिक इतिहास को जानने के लिए उत्कीर्ण अभिलेखों के अलावा कोई अन्य साधन नहीं है । विष्णुगोप के बाद पांचवीं से छठीं शताब्दी तक का पल्लव वंश का इतिहास अंधेरे में था अर्थात इस काल के पल्लव वंश के इतिहास की जानकारी के सम्पूर्ण साधन उपलब्ध नहीं हैं । संभवतः समुद्रगुप्त द्वारा विष्णुगुप्त को पराजित किए जाने के बाद पल्लव राज्य विघटन के कागार पर पहुँच गया था। विभिन्न पल्लव शासकों ने भिन्न-भिन्न प्रदेशों में अपनी स्वतंत्रता घोषित कर स्वतंत्र शाखाओं की स्थापना कर ली थी । इन शासकों में कुमार विष्णु प्रथम, बुद्ध वर्मा, कुमार विष्णु द्वितीय, स्कन्दवर्मन द्वितीय, सिंहवर्मन, स्कंदवर्मन तृतीय, नन्दिवर्मन प्रथम तथा शान्तिवर्मन चण्डदण्ड आदि प्रमुख थे । सिंहवर्मन प्रथम के काल में प्रसिद्ध जैन ग्रंथ लोक विभाग की रचना हुई थी ।

एक शक्तिशाली पल्लव राज्य का आरम्भकर्ता सिंहविष्णु (575 ई. से) को माना जाता है जिसके साथ पल्लवों के वैभव का भी समय आरम्भ होता है ।

सिंहविष्णु (575-600 ई.)

सिंहविष्णु पल्लव वंश का प्रमुख शासक था । सिंहविष्णु के पिता का नाम सिंहवर्मन था । उसने अवनि सिंह की उपाधि धारण की । सिंहविष्णु एक वीर और पराक्रमी राजा था । उसने चेर,चोल,पांड्य, मलय, मालव ,कलभ्रह तथा सिंहल के राजा को युद्ध मे पराजित कर अपनी शक्ति का विस्तार किया था । उसने सम्पूर्ण तमिल क्षेत्र में अपनी सत्ता स्थापित की तथा उसके राज्य की सीमा कावेरी नदी तक विस्तृत हो गई थी । सिंहविष्णु ने मामलपुरम के आदिवराह गुहा मंदिर का निर्माण करवाया । इस मंदिर में सिंहविष्णु व उसकी दो रानियों की मूर्तियां स्थापित की गई थी ।

महेन्द्रवर्मन-। (600-630 ई.)

सिंहविष्णु का उत्तराधिकारी महेन्द्रवर्मन-। बहुमुखी प्रतिभा का धनी था । उसने विचित्रचित्त, मतविलास, गुणभर, शत्रुमल्ल, ललितांकर, चैत्याकारी, अवनिभाजन, संकीर्ण जाती आदि उपाधियां धारण की थीं ।

पल्लव-चालुक्य संघर्ष

महेन्द्रवर्मन-। का समकालीन चालुक्य शासक पुलकेशिन-।। था । दोनो राज्यों के मध्य लम्बे समय तक संघर्ष चलता रहा । पुलकेशिन-।। एक महान शासक था । उसने महेन्द्रवर्मन-। के राज्य पर आक्रमण कर उसके उत्तरी भाग पर अधिकार कर लिया और पल्लवों की बढ़ती शक्ति पर अंकुश लगाया । हालांकि कसकुड्डी ताम्रपत्रों से ज्ञात होता है कि महेन्द्रवर्मन-। ने भी किसी युद्ध में पुलकेशिन-।। को परास्त किया था । इस बात में कोई संदेह नहीं कि पुलकेशिन-।। ने पल्लवों को परास्त कर उनके अनेक प्रदेशों पर स्थिर रूप से अधिकार कर लिया था । वेंगी को पल्लवों से जीतकर पुलकेशिन-।। ने अपने छोटे भाई कुब्ज विष्णुवर्द्धन को वहाँ का शासक नियुक्त किया । आगे चलकर यहां के चालुक्य शासक 'वेंगी के पूर्वी चालुक्य' के नाम से प्रसिद्ध हुए । पुलकेशिन-।। से अपने अनेकों प्रदेश खोने के बावजूद भी महेन्द्रवर्मन-। कांची में अपनी स्वतंत्र सत्ता को बनाये रखने में सफल रहा ।

कला व साहित्य प्रेमी

पल्लव वंश के इतिहास में महेन्द्रवर्मन-। का बहुत अधिक महत्व है । उसने कला व साहित्य को सरंक्षण प्रदान किया । मंदिर स्थापत्य कला की द्रविड़ शैली को आरम्भ करने का श्रेय महेन्द्रवर्मन-। को ही जाता है । उसके द्वारा शुरू की गई द्रविड़ शैली को उसके नाम ' महेन्द्रवर्मन शैली' के नाम से भी जाना जाता है । उसने अपने राज्य में ब्रह्मा,विष्णु,महेश के अनेकों मन्दिर बनवाये और 'चेत्यकारी' की उपाधि धारण की । महेन्द्रवर्मन-। कविता और साहित्य का बहुत बड़ा प्रेमी था । उसकी नाट्य रचना 'मतविलास प्रहसन' उसकी काव्यप्रियता का परिचय देती है । इस रचना में एक कापालिक एवं उसकी पत्नी बौद्ध भिक्षुणी एवं पाशुपत सम्प्रदाय के एक अनुयायी के माध्यम से तत्कालीन शैव और बौद्ध सम्प्रदाय में प्रचलित तंत्रवाद एवं पंचमकारों के गुण दोषों का वर्णन किया गया है । ऐसा माना जाता है कि महेन्द्रवर्मन-। ने 'भगवदज्जुकीयम' नामक ग्रंथ की रचना भी की थी । कुछ विद्वानों का मानना है कि संस्कृत के महाकवि भारवि ने पल्लव शासक महेन्द्रवर्मन-। के राजाश्रय में रहकर ही 'किरातार्जुनीयम' नामक ग्रंथ की रचना की थी ।

धर्मसहिष्णु

आरम्भ में महेन्द्रवर्मन-। की रुचि जैन धर्म में थी परंतु बाद में नायनार संत अप्पर के प्रभाव में आकर शैव धर्म अपना लिया । वह एक धर्मसहिष्णु शासक था ।

नरसिंहवर्मन-। (630-668 ई.)

महेन्द्रवर्मन-। के बाद उसका पुत्र नरसिंहवर्मन-। कांची की गद्दी पर बैठा ।

पल्लव-चालुक्य संघर्ष

नरसिंहवर्मन-। पल्लव वंश का सर्वाधिक महत्वपूर्ण शासक था । उसने पल्लवों की सैन्य शक्ति को पुनः संगठित किया और चालुक्य शासक पुलकेशिन-।। के विरुद्ध अपने पिता की पराजय का बदला लेने के लिए उत्तर दिशा में विजय यात्रा आरम्भ कर दी । नरसिंहवर्मन-। ने पुलकेशिन-।। को तीन युद्धों- परियाल का युद्ध,शूरमार का युद्ध और मणिमंगलम के युद्ध मे बुरी तरह हराया । इसके पश्चात नरसिंहवर्मन-। ने पुलकेशिन-।। की राजधानी वातापी (बादामी) पर आक्रमण कर कब्जा कर लिया । युद्ध में नरसिंहवर्मन-। की सेना के साथ लड़ता हुआ पुलकेशिन-।। मारा गया (642 ई.) । चालुक्य शासक पुलकेशिन-।। को पराजित कर वातापी पर अधिकार कर लेना नरसिंहवर्मन-। के जीवन की बड़ी ही गौरवमयी घटना थी । उस गौरवमयी विजय के उपलक्ष्य में उसने वातापिकोंड (वातापि का विजेता) तथा महामल्ल/मामल्ल की उपाधि धारण की । नरसिंहवर्मन-। एकमात्र पल्लव शासक था जिसने चालुक्यों पर चढ़कर आक्रमण किया क्योंकि बाकी के शासक तो मात्र अपने राज्य को बचाने के लिए चालुक्यों को अपने राज्य से खदेड़ने तक ही सीमित रहे ।

नरसिंहवर्मन-। की अन्य विजय

नरसिंहवर्मन-। ने चोल,चेर,पाण्ड्य तथा कदम्ब शासकों को भी युद्ध में पराजित किया था । उसने सिंहल(श्रीलंका) के राजा मानवर्मन (मानवम्म) को भी युद्ध में पराजित किया था जिसने चालुक्यों को युद्ध में हराने के लिए नरसिंहवर्मन-। को नौसैनिक सहायता प्रदान की थी ।

ह्वेनत्सांग का कांची आगमन

641 ई. में नरसिंहवर्मन-। के शासनकाल में चीनी यात्री ह्वेनत्सांग कांची दरबार में आया । उसने कांची के राजा और वहां की जनता की प्रशंसा की । उसने पल्लव प्रदेश को 'रत्नों का आकार' कहा है ।

कला व साहित्य का संरक्षक

नरसिंहवर्मन-। साहित्य व साहित्यकारों का संरक्षक था । उसके राज्याश्रय में रहकर ही महाकवि दण्डिन नें 'काव्यदर्श' व 'दशकुमारचरित' नामक ग्रन्थों की रचना की । नरसिंहवर्मन-। ने महाबलीपुरम नामक एक नए नगर की स्थापना की । इस नगर में उसने अनेकों विशाल मन्दिरों का निर्माण करवाया जिसमें से एक धर्मराज मन्दिर आज भी विद्यमान है । यह मन्दिर पल्लवों के गौरव और महत्ता का साक्षी है । उसने द्रविड़ शैली के जिस रूप का आरंभ किया था उसे 'मामल्ल शैली' के नाम से जाना जाता है ।

महेंद्रवर्मन-।। (668-670 ई.)

नरसिंहवर्मन-। के पश्चात उसका पुत्र महेंद्रवर्मन-।। पल्लव वंश की गद्दी पर बैठा । हालांकि उसने महज 2 वर्षों तक ही शासन किया क्योंकि एक युद्ध में पुलेकिशन-।। के पुत्र विक्रमादित्य-। के हाथों वह मारा गया । काशाककृदिलेख के आधार पर यह कहा जाता है उसने घटिका (ब्राह्मण विद्वानों की संस्था) का विस्तार किया । कुछ लेखों में महेंद्रवर्मन-।। को 'मध्यम लोकपाल' भी कहा गया है ।

परमेश्वरवर्मन-। (670-695 ई.)

महेंद्रवर्मन-।। की मृत्यु के बाद परमेश्वरवर्मन-। पल्लव राज्य का शासक बना ।

पल्लव -चालुक्य संघर्ष

पल्लव -चालुक्य संघर्ष परमेश्वरवर्मन-। के शासनकाल की सबसे प्रमुख घटना थी । परमेश्वरवर्मन-। का समकालीन चालुक्य शासक विक्रमादित्य-। था जो अपने पिता पुलेकिशन-।। के समान वीर और विजेता था । विक्रमादित्य-। ने न केवल वातापी को पल्लवों की अधीनता से मुक्त कराया बल्कि परमेश्वरवर्मन-। को युद्ध में पराजित कर कांची को भी अपने अधीन कर लिया । परन्तु जिस तरह पल्लव वातापी पर स्थायी रूप से शासन नहीं कर पाए उसी प्रकार चालुक्य भी कांची में ज्यादा समय तक नहीं टिक पाये । शीघ्र ही परमेश्वरवर्मन-। ने अपनी सैन्य शक्ति को पुनः संगठित कर लिया और पेरुवडनंल्लुर के युद्ध में चालुक्य नरेश विक्रमादित्य-। को पराजित होकर भागने को मजबूर होना पड़ा । इस प्रकार परमेश्वरवर्मन-। ने विक्रमादित्य-। से अपनी पराजय का बदला लिया ।

कला व साहित्य का सरंक्षक

परमेश्वरवर्मन-। ने ' विद्याविनोद पल्लव महेश्वर' की उपाधि धारण की । उसके समय में मामल्लपुरम का प्रसिद्ध गणेश मंदिर का निर्माण हुआ ।

नरसिंहवर्मन 'राजसिंह' (695-720 ई.)

परमेश्वरवर्मन-। के प्रताप और पराक्रम से पल्लवों की शक्ति इतनी अधिक बढ़ गई थी कि जब उसकी मृत्यु के पश्चात नरसिंहवर्मन-।। पल्लव साम्राज्य की गद्दी पर बैठा तो उसे किसी बड़े युद्ध से जूझने की आवश्यकता नहीं पड़ी ।

नरसिंहवर्मन-।। का काल शांति और व्यवस्था का काल था इसी कारण उसने अपने शासनकाल में निश्चनततापूर्वक अनेकों मंदिरों का निर्माण करवाया । कांची का कैलाशनाथ मंदिर, ऐरावतेश्वर के विशाल मंदिर तथा मामल्लपुरम के अनेकों प्रसिद्ध मंदिरों का निर्माण नरसिंहवर्मन-।। के द्वारा करवाया गया था । उसने संस्कृत भाषा को संवर्द्धित किया । नरसिंहवर्मन-।। ने कांची में घटिका (संस्कृत महाविद्यालय) की स्थापना की । नरसिंहवर्मन-।। संगीत का भी संरक्षक था । उसने ने आगमप्रिय, वाद्यविद्याधर, वीणानारद, अंतोतय-तुम्बरू आदि उपाधियां धारण कीं जो नरसिंहवर्मन-।। के साहित्य और संगीत प्रेमी होने का परिचय देती हैं । नरसिंहवर्मन-।। ने अपना एक दूत मंडल चीन भेजा(720 ई.) था ।

परमेश्वरवर्मन-।। (720 -730 ई.)

परमेश्वरवर्मन-।। नरसिंहवर्मन-।। का छोटा पुत्र तथा उसका उत्तराधिकारी था । परमेश्वरवर्मन-।। को चालुक्य नरेश विक्रमादित्य-।। के साथ अपमानजनक संधि करने को विवश होना पड़ा । जब परमेश्वरवर्मन-।। ने इस संधि का प्रतिकार करने का प्रयत्न किया तो विक्रमादित्य-।। ने अपने सहयोगी गंग शासक दुर्विनित ऐरयप्प की सहायता से उसे युद्ध में पराजित कर मार डाला । परमेश्वरवर्मन-।। में बैकुण्ठ पेरुमल मंदिर का निर्माण भी करवाया था । परमेश्वरवर्मन-।। शैव धर्मावलम्बी था । उसने तिरुवाड़ी में शैव मंदिर का निर्माण करवाया ।

नंदिवर्मन-।। (730-795 ई.)

परमेश्वरवर्मन-।। निःसंतान था । परमेश्वरवर्मन-।। की मृत्यु के पश्चात पल्लव राजसत्ता के लिए गृहयुद्ध छिड़ गया । अंततः सिंहविष्णु के भाई के वंशज हिरण्ड वर्मन (पल्लवों की दूसरी शाखा से संबद्ध) के पुत्र नंदिवर्मन-।। को जनता द्वारा शासक चुना गया । नंदिवर्मन-।। जब राजा बना तब उसकी आयु महज 12 वर्ष थी ।

पल्लव-चालुक्य संघर्ष

नंदिवर्मन-।। को बार-बार वातापि के चालुक्यों के आक्रमणों का सामना करना पड़ा । चालुक्य नरेश विक्रमादित्य-।। ने कांची पर आक्रमण कर उसे अपने अधीन कर लिया । चालुक्यों से कई बार परास्त होने के बाद भी अडिग रहा । नंदिवर्मन-।। ने पल्लव सैन्य शक्ति को पुनः संगठित किया और कांची को विक्रमादित्य-।। की अधीनता से मुक्त कराया । उसनें गंग शासकों को युद्ध मे पराजित किया । उसने पाण्ड्य नरेश राजसिंह पर भी आक्रमण किया परंतु पराजित हुआ । नंदिवर्मन-।। विष्णु धर्म का उपासक था । तिरुवंगई आलवर नामक वैष्णवाचार्य उसी के समकालीन थे ।

पल्लव-राष्ट्रकूट संघर्ष

नंदिवर्मन-।। के समय में एक ओर महत्वपूर्ण बदलाव आया । पल्लव-चालुक्य का पल्लव-राष्ट्रकूट संघर्ष में बदलाव । 8वीं सदी के मध्य में दंतिदुर्ग ने बादामी के चालुक्यों की सत्ता का अंत कर दिया और मान्यखेद (कर्नाटक) के राष्ट्रकूट वंश की सत्ता की स्थापना की । इस प्रकार चालुक्यों के स्थान पर अब राष्ट्रकूटों के साथ पल्लवों का संघर्ष शुरू हो गया । दंतिदुर्ग ने 750 ई. कांची पर आक्रमण कर उसे अपने कब्जे में ले लिया परंतु एक शान्ति संधि के अंतर्गत दंतिदुर्ग अपनी पुत्री रेवा का विवाह नंदिवर्मन-।। के साथ करने के पश्चात वापिस चला जाता है । नंदिवर्मन-।। के उत्तराधिकारी पुत्र दंतिवर्मन का जन्म इसी राष्ट्रकूट राजकुमारी रेवा से हुआ । इस वैवाहिक संबंध के पश्चात भी पल्लव-राष्ट्रकूट संघर्ष जारी रहा ।

नंदिवर्मन-।। की अन्य विजयें

इस बात में कोई संदेह नहीं कि नंदिवर्मन-।। इस वंश के वीर और महत्वकांक्षी शासक था । उसने न केवल पल्लवों की स्वतंत्र सत्ता को बनाये रखा अपितु उसने दक्षिण दिशा में विजययात्राएँ कर चोल व पाण्डेय देशों को भी अपनी शक्ति का परिचय दिया ।

कला व साहित्य को संरक्षण

नंदिवर्मन-।। को कला से अत्यंत लगाव था । उसके काल में कला व साहित्य के क्षेत्र में अत्यंत उन्नति हुई । इसी लगाव के फलस्वरूप उसने संभवतः कांची के मुक्तेश्वर मन्दिर तथा बैकुंठ के पेरुमाल मंदिर का निर्माण करवाया ।

नंदिवर्मन-।। के उत्तराधिकारी

  • दंतिवर्मन (795-845 ई.)-दंतिवर्मन नंदिवर्मन-।। का पुत्र तथा प्रथम उत्तराधिकारी था । उसने लगभग 51 वर्षों तक शासन किया । इसने राष्ट्रकूट नरेश ध्रुव को पराजित किया था । वैलूरपालयम अभिलेख में उसे 'विष्णु का अवतार' भी कहा गया है । दंतिवर्मन के काल से ही पल्लव वंश का पतन आरम्भ हो गया था ।
  • नंदिवर्मन-।।। (845-866 ई.)-नंदिवर्मन-।।। दंतिवर्मन का पुत्र था । उसने पाण्डेय नरेश श्रीमार श्रीवल्लभ के विरुद्ध एक संघ बनाया । इस संघ में गंग, चोल और राष्ट्रकूट राज्य नंदिवर्मन-।।। के सहयोगी थे । इस संघ की मदद से नंदिवर्मन-।।। ने श्रीमार श्रीवल्लभ को तेल्लरू के युद्ध में पराजित किया । इसके अलावा उसने तमिल कवि पेरुन्देवनार का सरंक्षण तथा महाभारत का 'भारत वेणवा' नाम से तमिल भाषा में अनुवाद किया । नंदिवर्मन-।।। के पास एक शक्तिशाली जहाजी बेड़ा था । इस बेड़े की सहायता से उसने दक्षिण पूर्व एशिया के देशों से संपर्क स्थापित किया ।
  • नृपतुंगवर्मन (866-879 ई.)- नृपतुंगवर्मन नंदिवर्मन-।।। का पुत्र था । उसने पाण्डेय नरेश श्रीमार को पराजित किया ।
  • अपराजित (879-897 ई.) -अपराजित द्रविड़ वास्तुकला की 'अपराजित शैली' का प्रवर्तक था । अपराजित चोल वंश के शासक आदित्य प्रथम के हाथों मारा गया । अपराजित पल्लव शासन की अंतिम कड़ी था । अपराजित की मृत्यु के साथ ही पल्लव वंश का पूर्णतया पतन हो जाता है ।

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