सोलंकी वंश (Solanki Dynasty) भारतीय इतिहास का एक महत्वपूर्ण वंश था । इनका शासन गुजरात के अन्हिलवाड़ा (पाटन) तथा काठियावाड़ में था । इनका शासनकाल 10वीं शताब्दी से 14वीं शताब्दी के मध्य था । इन्हें गुजरात का चालुक्य वंश भी कहा जाता था ।
सोलंकी वंश (Solanki Dynasty)
ये लोग अग्निवंशीय क्षत्रिय थे तथा मूल रूप से ये दक्षिण भारत के थे । वाडनगर अभीलेख में इस वंश की उत्पत्ति ब्रह्मा के चुलुक अथवा कमण्डलु से बताई गयी है । सोलंकी मूल रूप से शैव धर्म के अनुयायी थे परन्तु जैन धर्म के प्रति भी इनकी आस्था थी । इन्होंने अन्हिलवाड़ा को अपनी राजधानी बनाया ।
हालांकि यह निश्चित रूप से नहीं कहा जा सकता है कि दक्षिण के चालुक्य वंश से इनका कोई संबंध था या नहीं । उल्लेखनीय है कि दक्षिण में इस वंश को चालुक्य तथा गुजरात में चौलुक्य अथवा सोलंकी कहा गया है ।
सोलंकी वंश की जानकारी के स्त्रोत (Solanki Dynasty) The History of India in Hindi
अभिलेख
- वाडनगर अभिलेख- कुमारपाल से सम्बंधित
- उज्जैन अभिलेख- जयसिंह सिद्धराज से सम्बंधित
- उदयपुर अभिलेख- जयसिंह सिद्धराज से सम्बंधित
- चितौड़गढ़ अभिलेख- कुमारपाल से संबंधित
साहित्यिक रचनाएं
- प्रबंधचिन्तामणी ग्रन्थ- मेरुतुंगाचार्य द्वारा रचित
- कीर्ति कौमुदी ग्रंथ- सोमेश्वर द्वारा रचित
- कुमारपाल चरित ग्रंथ- हेमचंद्र सूरि की रचना
उपर्युक्त रचनाओं के अलावा हसन निजामी के लेखों में भी सोलंकी वंश से संबंधित जानकारी मिलती है ।
सोलंकी वंश के शासक ( Rulers of Solanki Dynasty )
मूलराज प्रथम (Mulraja Solanki)
सोलंकी वंश का प्रथम शासक मूलराज प्रथम था । मूलराज प्रथम एक पराक्रमी राजा था । मूलराज प्रथम को अपने जीवन में अनेकों युद्धों का सामना करना पड़ा । इन योद्धों द्वारा उसने न केवल अपने राज्य की सीमा का विस्तार किया बल्कि उसने अपने पड़ोसी राज्यों की सहायता से कच्छ के राजा लाखा को पराजित कर मार डाला तथा कच्छ के प्रदेश पर अपना अधिकार कर लिया । उसने प्रतिहार नरेश महिपाल के सामंत धरणिवराह को पराजित कर सौराष्ट्र पर अधिकार कर लिया ।
मेरुतुंगाचार्य की रचना प्रबन्ध चिन्तामणि के अनुसार कल्याणी के चालुक्य नरेश तैल द्वितीय ने लाट प्रदेश के शासक वारप्प के नेतृत्व में गुजरात पर आक्रमण कर दिया ।
इसी समय शाकम्भरी के चौहान शासक विग्रहराज द्वितीय ने भी मूलराज प्रथम के अधीन सारस्वत प्रदेशों पर आक्रमण कर दिया तथा अपनी सेना को लेकर वह नर्मदा तक पहुंच गया था । विवश होकर मूलराज को विग्रहराज से संधि करनी पड़ी । विग्रहराज के सहयोग से मूलराज प्रथम के पुत्र चामुंडराज ने बारप्प को युद्ध में पराजित कर मार डाला । गुजरात पर अपनी इस विजय के उपलक्ष्य में विग्रहराज द्वितीय ने भृगुकच्छ में आशापुरी देवी का मंदिर बनवाया ।
इसके अलावा परमार व कलचुरि शासकों के साथ भी उसके युद्ध हुए । इन युद्धों में मूलराज को पराजित होना पड़ा । चामुंडराज का समकालीन कलचुरि शासक लक्ष्मणराज था । परमार नरेश मुंज ने उसके राज्य पर आक्रमण दिया था । अपनी जान बचाकर मूलराज को अपने परिवार सहित मारवाड़ में शरण लेनी पड़ी । हालांकि कुछ समय पश्चात वह अपने राज्य को पुनः प्राप्त करने में सफल रहा । मूलराज प्रथम ने 942 ई. से 995 ई. तक शासन किया। हालांकि उसके शासनकाल की तिथि को लेकर इतिहासकारों में मतभेद हैं । मूलराज प्रथम के पश्चात उसका पुत्र चामुंडराज सोलंकी वंश की गद्दी पर बैठा ।
चामुंडराज
अपने पिता की तरह चामुंडराज का शासनकाल भी अनवरत युद्धों से भरा था । परमार व कलचुरि राज्यों के साथ उसके अनेकों युद्ध हुए । उसने परमार नरेश सिन्धुराज को युद्ध में पराजित किया । ऐसा कहा जाता है कि सिन्धुराज के पुत्र भोज ने अपने पिता की इस हार के अपमान का बदला कुछ इस ढंग से लिया था । काफी समय बाद एक बार चामुंडराज तीर्थ यात्रा के लिए वाराणसी जा रहा था तब उसे मालवा राज्य से होकर गुजरना था । भोज ने चामुंडराज को इस शर्त पर वहां से गुजरने दिया कि वह अपनी राजसी वेशभूषा उतार कर साधारण कपड़े पहन कर यहां से गुजरे ।
कलचुरि नरेश कोक्कल्ल के हाथों चामुंडराज को पराजित होना पड़ा । चामुंडराज का शासनकाल 995 ई. से 1008 के बीच था ।
दुर्लभराज
चामुंडराज के बड़े पुत्र वल्लभराज की अपने पिता के शासनकाल के दौरान ही मृत्यु हो गई थी । अतः चामुंडराज के छोटे पुत्र दुर्लभराज को उत्तराधिकारी बनाया गया । दुर्लभराज का शासनकाल 1008 ई. से 1022 के मध्य था । दुर्लभराज ने लाट प्रदेश के चालुक्य राजा कीर्तिराज को पराजित किया ।
भीमदेव प्रथम
भीमदेव प्रथम का शासनकाल 1022 ई. से 1064 ई. के मध्य था । उसके पिता का नाम नागराज था । वह दुर्लभराज का भतीजा था । 1025 ई. में भीमदेव प्रथम के शासनकाल में ही महमूद गजनवी ने सोमनाथ मंदिर पर आक्रमण किया था । महमूद गजनवी की सेनाओं ने अन्हिलवाड़ा में जमकर लूटपाट मचाई । महमूद गजनवी की सेना भारी तादाद में थी जिसे भीमदेव प्रथम की सेना रोकने में असफल रही । भीमदेव प्रथम को किले में शरण लेनी पड़ी । हालांकि भीमदेव प्रथम ने बाद में महमूद गजनवी का पीछा किया । उसे घेरने के उद्देश्य से भीमदेव प्रथम ने अपनी सेना को राजस्थान की सीमा पर तैनात किया लेकिन महमूद गजनवी को इस बात का आभास हो चुका था अतः उसने अपना रास्ता बदल दिया तथा कच्छ के रण के रास्ते होता हुआ गजनी वापिस लौट गया ।
उस समय आबू प्रदेश पर परमार वंश के सामंत धंधुक का शासन था । भीमदेव प्रथम ने धंधुक को पराजित कर आबू पर अधिकार कर लिया । इससे नाराज मालवा के परमार शासक भोज ने राजधानी अन्हिलवाड़ा पर आक्रमण कर खूब लूटपाट मचाई । अपनी राज्य को बचाने के लिए भीमदेव प्रथम ने कलचुरि शासक कर्ण के साथ मिलकर भोज के विरुद्ध एक संघ बनाया । इसके पश्चात 1055 ई. के लगभग दोनों की संयुक्त सेनाओं ने मालवा पर आक्रमण कर उस पर अधिकार कर लिया । हालांकि बाद में लूटी गई सम्पति के बंटवारे को लेकर यह संघ बिखर गया । भीमदेव प्रथम ने भोज के उत्तराधिकारी जयसिंह द्वितीय को अपने पक्ष में मिलाकर कर्ण के विरुद्ध नया संघ बनाया ।
जानकारी के अनुसार अपने शासन के अंतिम समय में भीमदेव प्रथम ने भीनमाल के राजा कृष्णराज को पराजित कर बंदी बना लिया । भीमदेव प्रथम ने 1064 ई. तक शासन किया । अपने शासनकाल के दौरान उसने मोढेरा में एक सूर्य मंदिर का निर्माण करवाया । उससे पहले भीमदेव प्रथम ने महमूद गजनवी के आक्रमण से ध्वस्त हुए सोमनाथ मंदिर का भी पुनर्निर्माण करवाया।
कर्णदेव
भीमदेव प्रथम के पश्चात उसका पुत्र कर्ण शासक बना । कर्ण का शासनकाल 1064 ई. से 1094 ई. के मध्य था । कर्ण के शासनकाल में परमारों से निरंतर युद्ध चलता रहा । कल्याणी शाखा के चालुक्य नरेश सोमेश्वर द्वितीय के साथ मिलकर कर्ण ने मालवा पर आक्रमण किया । यहां का परमार शासक जयसिंह युद्ध में मारा गया । हालांकि कुछ समय पश्चात जयसिंह के उत्तराधिकारी उदयादित्य ने शाकम्भरी के चौहान शासक विग्रहराज तृतीय की सहायता से मालवा पर पुनः अधिकार कर लिया था । मालवा के परमार शासकों ने धारा नगरी को अपनी राजधानी बना रखा था । ऐसा उल्लेख भी मिलता है कि उदयादित्य के पुत्र जगददेव ने कर्ण को एक युद्ध में पराजित किया था ।
इस पराजय के अलावा भी कर्ण को कई जगह मुंह की खानी पड़ी । नाड़ोली के चौहान शासक पृथ्वीपाल तथा उसके भाई एवं उत्तराधिकारी जोज्जलदेव ने भी कर्ण को पराजित किया था । यह जानकारी चाचिगदेव के सुन्धा पहाड़ी अभिलेख से प्राप्त होती है । इस प्रकार कर्ण मारवाड़ की तरफ अपनी पकड़ बनाने में असफल रहा । अश्वाल / आशा पल्ली (अहमदाबाद) के भील राजा को कर्ण ने पराजित किया था । इसके पश्चात कर्ण ने यहां कर्णावती नामक नगर की स्थापना की । कर्णावती को आज मणिनगर के नाम भी जाना जाता है जो अहमदाबाद में ही है । इसी स्थान पर उसने कर्णेश्वर महादेव मंदिर भी बनवाया । हालांकि सामरिक दृष्टि से कर्णदेव इतना अधिक शक्तिशाली नहीं था लेकिन वास्तुकला की दृष्टि से वह एक अच्छा शासक था।
ऐसा कहा जाता है कि इस मंदिर में बैठकर कर्णदेव ग्रामवासियों को दान दिया करते थे इसी कारण इस मंदिर का नाम कर्णेश्वर महादेव मंदिर पड़ा ।
राजधानी अन्हिलवाड़ा में उसने कर्णमेरु मंदिर का निर्माण करवाया । कर्णदेव ने लोककल्याण के लिए कर्ण जलाशय का निर्माण भी करवाया । कर्णदेव की रानी मयणल्ल देवी थी जो गोआ के कदम्ब नरेश जयकेशिन की पुत्री थी । कर्णदेव की उपाधियों में त्रैलोक्यमल्ल का उल्लेख भी मिलता है । 1094 ई. के लगभग कर्णदेव की मृत्यु हो गई थी ।
जयसिंह सिद्धराज
कर्णदेव की मृत्यु के बाद उसका अल्पवयस्क पुत्र जयसिंह सिद्धराज अन्हिलवाड़ा की गद्दी पर बैठा । हालांकि अल्पवयस्क होने के कारण उसकी माता मयणल्ल देवी ने संरक्षिका के रूप में शासन चलाया । जयसिंह सिद्धराज इस वंश का सबसे प्रतिष्ठित शासक था । उसने अपने राज्य की शक्ति व सीमाओं का विस्तार किया ।
चौलुक्य अभिलेखों से ज्ञात होता है कि जयसिंह सिद्धराज ने परमारों को पराजित कर मालवा पर अधिकार कर लिया था । सोमेश्वर द्वितीय की रचना कीर्तिकौमुदी, हेमचंद्राचार्य की रचना द्वाश्रयकाव्य तथा वाडनगर प्रशस्ति में भी इस विजय का उल्लेख मिलता है । सम्भवतः उस समय मालवा पर नारवर्मा / नरवर्मन के उत्तराधिकारी यशोवर्मा / यशोवर्मन का शासन था।
मालवा की इस विजय के उपलक्ष्य में जयसिंह सिद्धराज ने 'अवन्तिनाथ' की उपाधि धारण की । 1136-1137 ई. के गला अभिलेख में इस उपाधि का उल्लेख मिलता है । इसके अलावा उसकी त्रैलोक्यमल्ल तथा सिद्धचक्रवर्ती आदि उपाधियों का उल्लेख मिलता है ।
मेरुदंग की रचना प्रबंधचिन्तामणी के अनुसार सौराष्ट्र में ही काठियावाड़ के आसपास आभीर शासक नवघण अथवा खंगार से जयसिंह का युद्ध हुआ । ऐसा माना जाता है कि जयसिंह को खंगार का दमन करने के लिए बारह बार सौराष्ट्र के इस क्षेत्र पर आक्रमण करना पड़ा । अंततः खंगार युद्ध में मारा गया । जयसिंह ने यहां अपने एक मंत्री सज्जन को प्रान्तपाल नियुक्त किया। 1138-1139 ई. के उज्जैन अभिलेख में बरबरकजिष्णु की उपाधि का उल्लेख मिलता है । द्वाश्रयकाव्य में जयसिंह द्वारा बर्बरक नामक किसी विद्रोही के दमन का उल्लेख मिलता है । ऐसा कहा जाता है कि बर्बरक श्रीस्थल (सिद्धपुर) तीर्थ में ब्राह्मणों को तंग किया करता था । इस अभिलेख से स्पष्ट होता है कि बर्बरक के दमन के पश्चात ही जयसिंह सिद्धराज ने बरबरकजिष्णु की उपाधि धारण की होगी ।
उत्तर-पूर्व में अन्हिलवाड़ा राज्य की सीमा शाकम्भरी चौहानों के राज्य के साथ लगती थी । सीमावर्ती विवाद को लेकर जयसिंह तथा चौहान शासक अर्णोराज के संघर्ष हुआ । ऐसा कहा जाता है कि जयसिंह ने अपनी पुत्री कांचन देवी का विवाह अर्णोराज के साथ कर इस संघर्ष को विराम लगाया । सोमेश्वर की रचनाओं में जयसिंह की सिंध विजय का भी उल्लेख मिलता है । यही जानकारी दोहद अभिलेख से भी प्राप्त हुई है । इतिहासकारों के अनुसार सिंध में उस समय सुमरा जाती कोई सरदार शासन करता था ।
जयसिंह सिद्धराज अपने समय का एक महान विजेता था । उसकी प्रमुख उपाधियों में 'सिद्धराज' प्रमुख थी । उसने अपनी विजयों के द्वारा अपने पैतृक राज्य का विस्तार किया ।
जयसिंह धार्मिक दृष्टि से उदार व धर्म निरपेक्ष शासक था । उसने अपनी माता के साथ सोमनाथ की यात्रा की तथा अपनी माँ के कहने पर श्रद्धालुओं के लिए तीर्थ यात्रा कर भी माफ कर दिया । खम्भात में हिन्दुओं द्वारा कुछ मुसलमानों को मार दिया गया था तथा एक मस्जिद भी गिरा दी गई । जयसिंह ने न केवल इसके अपराधियों को दंडित किया बल्कि मस्जिद के पुननिर्माण के लिए अपने राजकोष से धन राशि भी दी ।
जयसिंह सिद्धराज को जितना उसकी वीरता के लिए जाना जाता है उतना ही उसके कला प्रेम के लिए भी जाना जाता है । जयसिंह अनेकों विद्वानों का आश्रयदाता था । हेमचंद्राचार्य, श्रीपाल तथा रामचंद्र जैसे उच्च कोटि के विद्वान उसके दरबार में आश्रय प्राप्त थे । इसके अतिरिक्त आचार्य जयमंगल, यशश्चन्द्र तथा श्वेताम्बर सम्प्रदाय के विद्वान देवसूरि जयसिंह के समकालीन थे । उसने सिद्धपुर में रुद्रमहाल्य नामक नामक शिव मंदिर का निर्माण करवाया । जयसिंह ने सरस्वती नदी के तटवर्ती क्षेत्रों में दशावतार नारायण मंदिर बनवाये । इसके अलावा जयसिंह ने ज्योतिष-शास्त्र, न्याय-शास्त्र व पुराणों के अध्ययन के लिए अनेकों विद्यालयों व छात्रावासों का निर्माण करवाया । इस प्रकार जयसिंह सिद्धराज अपने वंश का सबसे प्रतापी व बहुमुखी प्रतिभा से सम्पन्न शासक था । जयसिंह सिद्धराज ने 1094 ई. से 1142 ई. तक शासन किया । 1142 ई. में कुमारपाल सोलंकी वंश का शासक बना ।
कुमारपाल चौलुक्य
कुमारपाल 1142 ई. में गद्दी पर बैठा । कुमारपाल जयसिंह का पुत्र नहीं था बल्कि उसी के वंश से उसका कोई संबंधी था । हालांकि कहीं-कहीं पर उसके निम्न कुल का होने के उल्लेख मिलते हैं । उल्लेखनीय है कि जयसिंह सिद्धराज का कोई पुत्र नहीं था ।
हालांकि उत्तराधिकार का प्रश्न जयसिंह के जीवनकाल में ही खड़ा हो गया था लेकिन किसी भी परिस्थिति में वह कुमारपाल को उत्तराधिकारी नहीं बनाना चाहता था । यही कारण था कि जयसिंह ने अपने मंत्री उदयन के पुत्र वाहड (वाग्भट) को अपना उत्तराधिकारी घोषित किया । लेकिन जयसिंह की मृत्यु के पश्चात कुमारपाल ने शासन पर अधिकार कर लिया तथा वाहड को अपना प्रधानमंत्री नियुक्त कर दिया ।
जयसिंह की तरह कुमारपाल भी वीरता व बहुमुखी प्रतिभा का धनी था । हेमचंद्राचार्य के प्रभाव में आकर कुमारपाल भी जैन धर्म का अनुयायी बन गया । उसने राज्य में आखेट, शराब-सेवन, जुआ तथा पशुयुद्ध पर प्रतिबंध लगा दिया । कसाई की दुकानों को बन करवा दिया गया तथा किसी भी प्रकार की पशु बलि पर रोक लगा दी । वह धर्म सहिष्णु शासक था । उसने सोमनाथ मंदिर का जीर्णोद्धार करवाया ।
कुमारपाल का शाकम्भरी के चौहान शासकों के साथ दीर्घकाल तक युद्ध चलता रहा । उस समय कुमारपाल का समकालीन चौहान शासक अर्णोराज था । इनके मध्य लगभग 12 वर्षों तक युद्ध चला । अंततः दोनों के मध्य संधि हो गई । अर्णोराज ने अपनी पुत्री राजकुमारी जल्हणा देवी से कुमारपाल का विवाह करवा दिया । कुमारपाल की इस सफलता का उल्लेख वाडनगर प्रशस्ति व वेरावल प्रशस्ति में मिलता है ।
विवरण के अनुसार कुमारपाल द्वारा गद्दी को हथियाए जाने पर वाहड ने इसका विरोध किया तथा वहां से भागकर शाकम्भरी चला गया । शाकम्भरी के शासक अर्णोराज ने वाहड का साथ देते हुए उज्जैन के शासक बल्लाल की सहायता से कुमारपाल के विरुद्ध गुजरात पर आक्रमण कर दिया । इस युद्ध में अर्णोराज घायल हो गया । वाहड को बंदी बना लिया गया । इसके बाद दोनों पक्षों के मध्य संधि हो गई जिसके अनुसार अर्णोराज ने अपनी पुत्री का विवाह कुमारपाल से कर दिया । सम्भवतः तभी कुमारपाल ने वाहड को संतुष्ट करने के लिए अपना सबसे महत्वपूर्ण पद प्रधानमंत्री का पद दे दिया हो ।
चौहानों के साथ युद्धों के दौरान आबू के परमार नरेश विक्रमसिंह ने कुमारपाल पर आक्रमण कर दिया था । कुमारपाल ने उसे पराजित कर वहां यशोधवल को नियुक्त कर दिया था । इसके पश्चात कुमारपाल ने अपने दूसरे शत्रु मालवा शासक बल्लाल के विरुद्ध अभियान शुरू किया । इस युद्ध में यशोधवल की सेनाएं भी कुमारपाल के साथ थीं । दोनों सेनाओं ने मालवा के विरुद्ध निर्णायक जीत हासिल की । उज्जैन पर अधिकार कर लिया गया । इस युद्ध में बल्लाल मारा गया । अभिलेखों में कुमारपाल की उपाधि 'मालवाधिपति' का उल्लेख मिलता है ।
इन तीनों विजयों के अलावा अभिलेखों में उसके कई युद्धाभियानों व विजयों उल्लेख है । सौराष्ट्र में उसने सुम्वर के विद्रोह का दमन किया । इस युद्धाभियान में कुमारपाल का मंत्री उदयन मारा गया । अंततः कुमारपाल ने सुम्वर को पराजित कर दिया तथा उदयन के पुत्र को सौराष्ट्र का भार सौंपा ।
कुमारपाल ने कोंकण के शासक मल्लिकार्जुन के विरुद्ध अभियान किया । मल्लिकार्जुन को कुमारपाल द्वारा मार गिराया गया अतः कोंकण पर कुमारपाल का अधिकार हो गया ।
अर्णोराज की मृत्यु के पश्चात शाकम्भरी चौहानों व कुमारपाल के मध्य पुनः शत्रुता हो गई । उस समय शाकम्भरी का शासक विग्रहराज चतुर्थ था जिसने 1150 ई. में कुमारपाल के विरुद्ध युद्ध छेड़ दिया । विग्रहराज चतुर्थ ने कुमारपाल द्वारा संरक्षित चितौड़ पर अधिकार कर लिया तथा यहां के प्रान्तपाल सज्जन सिंह को मार डाला । विग्रहराज चतुर्थ ने नाडौल व जालौर के क्षेत्रों पर अपना स्थायी अधिकार कर लिया । हालांकि कुमारपाल ने इन क्षेत्रों को पुनः प्राप्त करने का प्रयास नहीं किया । ऐसा माना जाता है कि इन दोनों के मध्य संधि हो गई थी ।
जैन विद्वानों के अनुसार वह जैन धर्म का अनुयायी था लेकिन अभिलेखों में उसके शैव मतावलम्बी होने की जानकारी भी मिली है । सम्भवतः वह पहले शैव मतावलम्बी रहा होगा लेकिन बाद में वह जैन धर्म के प्रभाव में आ गया हो । हालांकि उसके द्वारा कई जैन व शिव मंदिर बनवाये जाने की जानकारी प्राप्त हुई है । उसके शासन की अवधि 1142 ई. से 1171 ई.के मध्य थी। 1171 ई. में कुमारपाल की मृत्यु हो गई थी ।
अजयपाल
कुमारपाल के पश्चात उसका भतीजा अजयपाल शासक बना । हालांकि कुमारपाल का भांजा प्रतापमल्ल भी गद्दी का कठोर दावेदार था । गद्दी को लेकर दोनों के मध्य संघर्ष हुआ जिसमें अजयपाल विजयी रहा । अजयपाल शैव धर्म का अनुयायी था । उसने शासक बनते ही शैव अनुयायियों को पड़े पदों नियुक्त किया । उसमें जैन धर्म के प्रति कटुता थी । जैन ग्रंथो में उस पर आरोप लगाया गया है की उसने अपने राज्य में स्थित जैन धर्म के कई मंदिरों को तुड़वा दिया था । उसने जैन धर्म के विद्वान रामचंद्र को मरवा दिया तथा बहुसंख्यक जैन मतावलम्बियों को कठोर यातनाएं दीं ।
हालांकि वह अपने शासन की गतिविधियों में जैन मतावलम्बियों के हस्तक्षेप को समाप्त करना चाहता था । ऐसा कहा जाता है कि शासनारोहण के समय जैन मत के सभी मंत्री व विद्वानों ने अजयपाल की बजाय कुमारपाल के भांजे प्रतापमल्ल का साथ दिया था । वे सभी प्रतापमल्ल को राजा बनाये जाने के पक्ष में थे । अजयपाल ने परममाहेश्वर की उपाधि धारण की ।
अजयपाल का शासनकाल 1171 ई. से 1176 ई. तक था । अपने इस शासनकाल में उसने कोई विशेष सामरिक उपलब्धि हासिल नहीं की थी । उसने शाकम्भरी के चाहमान (चौहान) नरेश सोमेश्वर पर आक्रमण कर उसे पराजित किया । सोमेश्वर का पालन-पोषण अन्हिलवाड़ा में ही कुमारपाल के संरक्षण में हुआ था । मेवाड़ के गुहिल शासक सामंतसिंह ने गुजरात पर आक्रमण अजयपाल को पराजित कर दिया था । इसके पश्चात आबू के परमार नरेश प्रह्लादन ने सामंतसिंह को गुजरात से खदेड़ दिया । 1176 ई. में अजयपाल की मृत्यु हो गई । ऐसा कहा जाता है कि अजयपाल के सेनापति जगदेव प्रतिहार ने उसकी हत्या कर दी थी ।
मूलराज द्वितीय (माता नायकी देवी के संरक्षण में) ~ The History of India in Hindi
अजयपाल की मृत्यु के बाद मूलराज द्वितीय को गद्दी पर बैठाया गया । मूलराज द्वितीय अजयपाल का पुत्र था जो उस समय अल्पवयस्क था । अजयपाल के दो पुत्र थे मूलराज द्वितीय तथा भीम द्वितीय । मूलराज सबसे बड़ा पुत्र था इसलिए उसे अजयपाल का उत्तराधिकारी चुना गया । मूलराज द्वितीय का शासनकाल अल्पकालीन (मात्र 2 वर्ष) था । मूलराज द्वितीय की संरक्षिका के रूप में उसकी माता नायकी देवी ने शासन सम्भाला ।
नायकी देवी गोआ के कदम्ब राजा महामंडलेश्वर पर्मांडी की पुत्री थी । रानी नायकी देवी तलवारबाजी व घुड़सवारी, सैन्य रणनीति व युद्धकला में प्रशिक्षित थीं । उसका विवाह सोलंकी/चौलुक्य वंश के अजयपाल के साथ हुआ था । जब अजयपाल की मृत्यु हुई तो उसके अल्पवयस्क पुत्र मूलराज द्वितीय का राज्याभिषेक किया गया तथा स्वंय राजमाता के पद पर आसीन हुईं । उसके शासनकाल में तुर्क आक्रमणकारी मुहम्मद गोरी की नजर गुजरात पर पड़ी । गोरी इस बात से आश्वस्त था कि एक विधवा और बच्चे द्वारा शासित राज्य को वह आसानी से अपने अधीन कर लेगा । इसी लालसा में सन्न 1178 ई. में अपनी सेना को लेकर वह अन्हिलवाड़ा की तरफ बढ़ा ।
जब नायकी देवी को इस विपदा का आभास हुआ तो उसने उत्तर भारत के कई राजाओं से मदद के लिए अपने दूत भेजे । राजस्थान के इतिहासकार कर्नल जेम्स टॉड तथा डॉक्टर दशरथ शर्मा की पुस्तकों में यह दावा किया गया है कि दिल्ली नरेश सम्राट केल्हानदेव चौहान ने नाहरवाल के महाराजा राय, जालोर के महाराजा कीर्तिपाल चौहान तथा अर्बुदा के परमार राजा धारावर्ष को नायकी देवी की सहायता करने के लिए भेजा था । नायकी देवी ने तुर्क आक्रांता मुहम्मद गोरी का मुकाबला करने के लिए आबू पर्वत के समीप गदर्घाट नामक स्थान को चुना । यह स्थान दुर्गम पहाड़ियों से घिरा था । जहां युद्ध करने का गोरी सेना को विशेष अनुभव नहीं था ।
नायकी देवी की सेनाओं ने गोरी सेना पर इतनी तीव्रता से आक्रमण किया की गोरी की सेना में हड़कंप मच गया । दोनों पक्षों में भयंकर युद्ध व रक्तपात हुआ । नायकी देवी ने अपने दोनों पुत्रों को अपनी गोद में लेकर शत्रुओं का संहार करती हुई मुहम्मद गोरी के पास पहुंच गई । ऐसा कहा जाता है कि नायकी देवी ने अपनी तलवार से मुहम्मद गोरी जैसे हवसी दरिंदे के जनानंगों पर वार किया । मोहम्मद गोरी युद्ध क्षेत्र से घायलवस्था में अपनी जान बचाकर भाग गया । इसी प्रकार नायकी देवी की इस युद्ध में निर्णायक जीत हुई ।
मूलराज द्वितीय के समय मालवा चालुक्यों के हाथों से चला गया । परमार नरेश विंध्यवर्मन ने मूलराज द्वितीय को पराजित कर मालवा छीन लिया था । 1178 ई. में मूलराज द्वितीय की मृत्यु हो गई थी ।
भीम द्वितीय
मूलराज द्वितीय के पश्चात उसका छोटा भाई भीम द्वितीय चौलुक्य वंश की गद्दी पर बैठा । ऐसा अनुमान है कि उसने 1178 ई. से 1241 ई. तक शासन किया था । उस समय वह अल्पवयस्क था । उसकी अल्पव्यस्तता का लाभ उठाकर कई शत्रु राज्यों ने गुजरात पर आक्रमण किया । भीमपल्ली का बाघेल वंश का अर्णोराज भीम द्वितीय की रक्षा करता हुआ मारा गया । इसके पश्चात अर्णोराज के पुत्र लवणप्रसाद ने भीम द्वितीय की रक्षा का भार उठाया। लवणप्रसाद भीम द्वितीय का सामंत था ।
पृथ्वीराजविजय के अनुसार पृथ्वीराज चौहान तथा भीम द्वितीय के मध्य संघर्ष हुआ था जिसमें भीम द्वितीय मारा गया था । पृथ्वीराजविजय की उक्ति सत्य प्रतीत नहीं होती है । गुजराती साहित्यों में यह जानकारी मिलती है कि पृथ्वीराज चौहान ने गुजरात पर आक्रमण अवश्य किया था लेकिन वह राजधानी अन्हिलवाड़ा तक नहीं पहुंच पाया था । भीम द्वितीय के सामंत लवणप्रसाद ने उसे वहां से खदेड़ दिया था ।
1197 ई. में तुर्क आक्रमणकारी कुतुबुद्दीन ऐबक ने अन्हिलवाड़ा पर आक्रमण कर वहां लूटपाट की । हालांकि कुतुबुद्दीन ऐबक लूटपाट कर वहां से चला गया था ।
परमार वंश के शासक सुभटवर्मन ने भी गुजरात पर आक्रमण कर दिया था जिसे लवणप्रसाद ने नाकाम कर दिया। देवगिरी के यादवों के साथ भी सोलंकियों का संघर्ष हुआ जिसमें लवणप्रसाद ने समझदारी दिखाते हुए दोनों पक्षों में संधि करवा दी । इन संघर्षों के अतिरिक्त अन्हिलवाड़ा के विरुद्ध कई ऐसे छोटे-बड़े संघर्ष हुए जिन्हें नाकाम करने में मुख्य भूमिका के तौर पर लवणप्रसाद को जाना जाता है ।
लवणप्रसाद भीम द्वितीय का विश्ववासपात्र बन गया था । धीरे-धीरे लवणप्रसाद और उसके पुत्र वीरधवल का चौलुक्य सत्ता में प्रभाव बढ़ने लगा था । चौलुक्य सत्ता धीरे-धीरे पतन की ओर अग्रसर होने लगी थी । आंतरिक दुर्बलता का लाभ उठाकर उसके चालुक्य सामंतों ने अपनी स्वतंत्र सत्ता स्थापित कर ली थी । लवणप्रसाद और उसके पुत्र वीरधवल चालुक्य सत्ता के अधीन रहकर स्वतंत्र आचरण करने लगे थे । भीम द्वितीय की मृत्यु के पश्चात वीरधवल के पुत्र बीसलदेव ने अन्हिलवाड़ा पर अधिकार कर लिया ।
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