गुरु अंगदेव सिखों के दूसरे गुरु थे । गुरु की गद्दी धारण करने से पहले उन्हें भाई लहना के नाम से जाना जाता था । उनका जन्म गांव हरिके (फिरोजपुर) में बैसाख पंचमी 1561 संवत् ( 13 मार्च 1504 ) को हुआ। उनके पिता का नाम फेरुमल था जो एक व्यापारी थे । उनकी माता का नाम रामो था। गुरुनानक देव से मिलने से पहले गुरु अंगदेव सनातन धर्म को मानते थे । वह मां दुर्गा के पुजारी थे । वह माता दुर्गा की मूर्ति की पूजा-अर्चना किया करते थे । वह प्रतिवर्ष माता ज्वालामुखी के मंदिर भी जाया करते थे ।
1520 ईसवी में उनका विवाह हो गया । उनकी पत्नी का नाम खिवि था । खिवि से उन्हें दो बेटे तथा दो बेटियां हुईं । उनके बेटों का नाम दासु तथा दातु था तथा उनकी बेटियों का नाम अमरो व अनोखी था । उनके पिता फेरुमल मुगल लुटेरों से बचने के लिए हरिके छोडकर परिवार सहित तरन-तारन के पास खडूर साहिब नामक गाँव में चले आये ।
यहाँ आकर लहना जी की मुलाकात गुरुनानक देव जी के शिष्य भाई जोधा से हुई । उन्होंने जोधा जी के मुख से गुरु नानक देव जी के प्रवचन सुने जिनसे वो बड़े प्रभावित हुए । लहना जी ने करतारपुर जाकर गुरुनानक देव से मिलने का निश्चय बना लिया । गुरु नानक देव ने उन्हें परमेश्वर प्राप्ति का भेद बताया । गुरुनानक देव ने बताया कि परमेश्वर निराकार है,वह किसी मूर्त में नहीं बल्कि तुम्हारे अपने अंदर है । लहना जी के जीवन में क्रांति आ गई । गुरुनानक देव से मिलकर उन्हें आत्म ज्ञान की प्राप्ति हुई । भाई लहना गुरु नानक देव के शिष्य बन गए ओर करतारपुर में ही रहने लगे । गुरुनानक देव ने मिशन के प्रति लहना की भक्ति, लगन व ज्ञान को देखते हुए उन्हें 7 सितंबर 1539 को गुरुपद प्रदान किया और उन्हें गुरुमत प्रचार का जिम्मा सौंपा । गुरुनानक देव ने उन्हें एक नया नाम दिया गुरु अंगद देव ।
22 सितंबर 1539 को गुरु अंगद देव करतारपुर छोड़कर खडूर साहिब गांव आ गए । उन्होंने गुरुनानक देव जी के विचारों का प्रचार किया । गुरु अंगद देव ने विद्यालय व साहित्य केंद्रों की स्थापना की। उन्होंने 62 श्लोकों की रचना की जो गुरू ग्रंथ सहिब में अंकित हैं । उन्होंने गुरु नानक देव द्वारा चलाई गई लंगर प्रथा को ओर अधिक प्रभावी बनाया । उन्होंने गुरु नानक देव द्वारा स्थापित महत्वपूर्ण केंद्रों का दौरा किया और वहां जाकर उन्होंने प्रवचन दिए । उन्होंने सिख धर्म के आधार को बल दिया । गुरुनानक देव द्वारा स्थापित परम्परा के अनुसार मृत्यु से पहले उन्होंने अपना पद गुरु अमरदास को सौंप दिया । उन्होंने खडूर साहिब के निकट गोइंदवाल नामक शहर बसाया तथा इसके निर्माण का जिम्मा उन्होंने गुरु अमरदास को सौंपा । 29 मार्च 1552 में 48 वर्ष की आयु में उनका निधन हो गया ।
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