Vardhan dynasty ~ पुष्यभूति वंश | वर्द्धन वंश का इतिहास ~ Ancient India

Vardhan dynasty ~ पुष्यभूति वंश | वर्द्धन वंश का इतिहास

लगभग 550 ई. में गुप्त साम्राज्य के पतन के उपरांत भारत में अनेकों छोटे-छोटे राजवंशों का उदय हुआ - कन्नौज के मौखरी, वल्लभी के मैत्रक, मालवा का यशोधर्मन, मगध के परवर्ती गुप्त/उत्तर गुप्त आदि । ये राज्य अपेक्षाकृत निर्बल थे परन्तु यदा कदा ये अपने गौरव का प्रदर्शन करते रहते थे । इन्हीं परिस्थितियों में एक नई आशा की किरण के रूप में थानेश्वर में पुष्यभूति वंश/वर्द्धन वंश का उदय हुआ । इस वंश का सबसे यशस्वी सम्राट हर्षवर्द्धन था जिसने उत्तर भारत के विशाल भू भाग को अपने साम्राज्य के अंतर्गत संगठित किया ।

वर्द्धन वंश के इतिहास को जानने के स्त्रोत

साहित्यिक स्त्रोत

हर्षचरित रचित बाणभट्ट, महायान बौद्ध ग्रंथ मंजुश्रीमूलकल्प, हर्षवर्द्धन द्वारा रचित नाटक प्रियदर्शिका, रत्नावली, नागानंद आदि । इसके अलावा चीनी बौद्ध यात्री ह्वेनत्सांग , ह्विली तथा इत्सिंग आदि के विवरणों से वर्द्धन वंश के इतिहास की जानकारी प्राप्त होती है ।

बंसखेड़ा ताम्रपत्र लेख

हर्षवर्द्धन के बंसखेड़ा अभिलेख में हर्ष संवत 22 (अर्थात 628 ई.) अंकित है । इस अभिलेख में हर्षकालीन शासन के अनेक प्रदेशों व पदाधिकारियों के नाम ज्ञात होते हैं । इसके साथ ही इस अभिलेख में राज्यवर्द्धन द्वारा मालवा के शासक देवगुप्त पर विजय तथा गौंड नरेश शशांक द्वारा राज्यर्द्धन की हत्या की जानकारी मिलती है।

मधुबन ताम्रपत्र अभिलेख

इस अभिलेख पर हर्ष संवत 25 (अर्थात 631 ई.) अंकित है । इस अभिलेख में हर्ष द्वारा श्रावस्ती भुक्ति के सोमकुण्डा नामक ग्राम को दान में देने का उल्लेख मिलता है ।

पुलकेशिन-।। का ऐहोल प्रशस्ति लेख

इस अभिलेख में चालुक्य नरेश पुलकेशिन-।। तथा हर्षवर्द्धन के मध्य हुए युद्ध का विवरण मिलता है ।

मुहर अभिलेख

हर्षवर्द्धन की दो मुहरें प्राप्त हुई हैं एक मुहर जो तांबे की है सोनीपत से तथा दूसरी मिट्टी की मुहर नालन्दा से प्राप्त हुई है । इस अभिलेख में महाराज राज्यवर्द्धन से लेकर हर्षवर्द्धन तक कि वंशावली मिलती है । सोनीपत मुहर से ही हर्ष का पूरा नाम 'हर्षवर्द्धन' मिलता है ।

प्राचीन काल में श्रीकण्ठ नाम से एक अत्यंत समृद्धशाली जनपद होता था जिसके शासन के अंतर्गत दिल्ली, पंजाब व हरियाणा के कुछ भू भाग आते थे । इसी जनपद में स्थानेश्वर/स्थाण्वीश्वर (आधुनिक थानेश्वर, जिला कुरुक्षेत्र, हरियाणा) स्थित था । यहीं से पुष्यभूति नामक व्यक्ति ने 6ठी सदी ई. एक नए राजवंश 'पुष्यभूति राजवंश' की स्थापना की । पुष्यभूति शिव का अनन्य भक्त था । वह एक शक्तिशाली एवं महत्वकांक्षी शासक था । संभवतः वह गुप्तों के अधीन सामंत रहा होगा और उपयुक्त अवसर मिलते ही उसने अपनी राजनीतिक सत्ता स्थापित कर ली ।

वर्द्धन वंश के शासक

बाणभट्ट पुष्यभूति के उत्तराधिकारीयों का कोई विवरण नहीं देता है परंतु बंसखेड़ा ताम्रलेख, मधुबन दान लेख, सोनीपत से प्राप्त ताम्र मुहर और नालन्दा से प्राप्त मृत्तिका मुहर से चार पूर्ववर्ती राजाओं के नाम मिले हैं ।

नरवर्द्धन-पत्नी वज्रिणीदेवी

राज्यवर्द्धन- (पत्नी अप्सरादेवी)

आदित्यवर्द्धन- (पत्नी महासेनगुप्त देवी)

महासेनगुप्त देवी उत्तर गुप्त नरेश दामोदरगुप्त की पुत्री एवं महासेनगुप्त की बहन थी ।

प्रथम तीन राजाओं ने 530 ई. से 580 ई. तक शासन किया । इन तीनों राजाओं ने 'महाराज' की उपाधि धारण कर रखी थी जिससे यह प्रतीत होता है कि ये स्वतंत्र शासक न होकर किसी अन्य सत्ता के शासन करते थे ।

प्रभाकरवर्द्धन (580 ई.-605 ई.)

प्रभाकरवर्द्धन वर्द्धन वंश का सबसे प्रतापी शासक था । 'हर्षचरित' में उसे प्रतापशीला कहा गया है । वह महाराजाधिराज की उपाधि धारण करने वाला इस वंश का प्रथम शासक था । वस्तुतः प्रभाकरवर्द्धन वर्द्धन वंश की स्वतंत्र सत्ता का जन्मदाता था । उसके द्वारा धारण की गयी उपाधियाँ 'परमभट्टारक' तथा 'महाराजाधिराज' उसकी स्वतंत्र स्थिति की सूचक है । उसकी उपाधियों का विवरण बाणभट्ट रचित 'हर्षचरित' में इस प्रकार मिलता है: वह हूण रुपी हिरण के लिए शेर ( उपाधि हूणहरिणकेसरी),सिंधुदेश के राजा के लिए ज्वर (उपाधि सिंधुराजज्वरो), गांधार राज्य रूपी मदमस्त हाथी के लिए जलता हुआ बुखार(उपाधि गान्धारदीपगंधद्वीप-कोटपालको), लाटदेश की चालाकी का अंत करने वाला ( उपाधि लाटपाटवपाटच्चरो)  तथा मालवा देश की लक्ष्मी रूपी लता को काटने वाला फरसा (उपाधि मालवलक्ष्मीलतापरशु:) इत्यादि ।

प्रभाकरवर्द्धन की इन उपाधियों से यह स्पष्ट होता है कि उसने इन राज्यों को जीतकर अपने राज्य में मिला लिया था । इस बात में कोई संदेह नहीं कि हूणों के साथ उसका युद्ध हुआ था । लगभग 604 ईसवी में अपनी वृद्धावस्था में प्रभाकरवर्द्धन ने अपने पुत्र राज्यवर्धन को हूणों से लड़ने के लिए पंजाब भेजा था जिसमें उसने हूणों को पराजित किया ।

प्रभाकरवर्द्धन की पत्नी यशोमती देवी थी जो मालवा नरेश यशोवर्मा की पुत्री थी । रानी यशोमती से दो पुत्र राजवर्द्धन एवं हर्षवर्द्धन तथा एक पुत्री राजश्री उत्पन्न हुई। अपने शासन के अंतिम दौर में प्रभाकरवर्द्धन ने अपनी पुत्री का विवाह मौखरि नरेश ग्रहवर्मा (ग्रहवर्मन) के साथ किया जिसके फलस्वरूप वर्द्धनों और मौखरियों के मध्य वैवाहिक सम्बन्ध स्थापित हो गए । मौखरियों के अलावा मगध के उत्तर गुप्त/परवर्ती गुप्त शासकों के साथ भी प्रभाकरवर्द्धन के मैत्री सम्बन्ध थे । मगध के तत्कालीन उत्तर-गुप्त शासक महासेनगुप्त रिश्ते में प्रभाकरवर्द्धन का मामा लगता था । महासेन गुप्त के दो पुत्र-कुमारगुप्त एवं माधवगुप्त प्रभाकरवर्द्धन के दरबार में निवास करते थे ।

हर्षचरित के अनुसार जब राज्यवर्द्धन हूणों के साथ युद्ध करने के लिए उत्तर-पश्चिम की सीमा पर गया हुआ था तभी हर्षवर्धन भी उसके पीछे-पीछे अपनी अश्वारोही सेना के साथ निकल पड़ा । लेकिन रास्ते में ही कुरंगक नामक राजदूत ने हर्षवर्धन को उसके पिता प्रभाकरवर्द्धन के गंभीर रूप से बीमार होने की सूचना दी तो वह तुरंत राजधानी वापिस लौट गया । वापिस जाकर देखा तो हर्षवर्धन ने पाया कि उसके पिता प्रभाकरवर्द्धन मृत्यु-शय्या पर पड़े थे तथा रसायन एवं सुषेन नामक राजवैद्य उन्हें बचाने के लिए जी- जान से कोशिशें कर रहे थे । किन्तु प्रभाकरवर्द्धन की मृत्यु हो गई थी तथा रानी यशोमति ने चिता में कूदकर आत्मदाह कर लिया और सती हो गयी । राज्यवर्द्धन को वापिस बुलाने के लिए दूत भेजे गए । समाचार पाकर राज्यवर्द्धन शीघ्र ही थानेश्वर पहुंचा । परंतु वहां पहुंचने पर उसने अपने पिता को मृत तथा सम्पूर्ण नगर को शोक में डूबा पाया ।

राज्यवर्द्धन(605 -606 ई.)

राज्यवर्द्धन अपने पिता प्रभाकरवर्द्धन की मृत्यु से अत्यंत विचलित था । उसने अपने भाई हर्षवर्द्धन से सत्ता संभालने का आग्रह किया तथा स्वयं राज-पाठ से सन्यास लेने की इच्छा व्यक्त की । परन्तु उसी समय संवादक नामक राजश्री के विश्वासपात्र अनुचर ने राज्यवर्द्धन को सूचित किया कि जिस दिन राजा की मृत्यु हुई थी उसी दिन मालवा के दुष्ट शासक देवगुप्त ने महाराज ग्रहवर्मा की हत्या कर दी । राजश्री को चोरनी की भांति पैरों में बेड़ियाँ पहनाकर कारावास में डाल दिया । यह भी पता चला है कि वह दुष्ट यहां की सेना को राजाविहीन जानकर इस देश पर आक्रमण करने की योजना बना रहा है । इन्ही सब परिस्थितियों ने राज्यवर्द्धन को सिँहासन ग्रहण करने के लिए मजबूर कर दिया ।

राज्यवर्द्धन ने शीघ्र ही 10000 अश्वरोहियों की एक सेना तैयार की तथा अपने ममेरे भाई भण्डी को साथ लेकर अपनी बहिन राजश्री की रक्षा हेतु मालवा नरेश देवगुप्त से प्रतिशोध लेने के लिए कन्नौज की ओर कूच किया । हर्षवर्द्धन भी राज्यवर्द्धन के साथ जाने का इच्छुक था परन्तु राज्यवर्द्धन ने कुटुम्ब एवं राज्य की सुरक्षा हेतु उसे राजधानी में ही रहने को कहा तथा एक सेना उसके नेतृत्व में वहीं छोड़ दी ।

हर्षचरित, मधुबन दान लेख तथा बंसखेड़ा ताम्रलेख से यह ज्ञात होता है कि कन्नौज में राज्यवर्द्धन ने देवगुप्त को बड़ी ही आसानी से पराजित कर मार डाला । परंतु देवगुप्त के मित्र गौड़ नरेश शशांक ने धोखे से राज्यवर्द्धन की हत्या कर दी तथा कन्नोज पर अधिकार कर लिया ।

हर्षचरित के अनुसार कुन्तल नामक अश्वारोही ने हर्षवर्द्धन को थानेश्वर की राजसभा में आकर यह खबर दी कि राज्यवर्द्धन ने मालव सेना को खेल खेल में जीत लिया, किन्तु गौड़ नरेश देवगुप्त ने दिखावटी शिष्टाचार का विश्वास करके अकेला शस्त्रहीन कर अपने ही भवन में उसकी हत्या कर दी । ऐसा प्रतीत होता है कि देवगुप्त को मारने के बाद उसने उसके मित्र शशांक को भी समाप्त करने का निश्चय किया किन्तु शशांक ने अपनी कूटनीति से राज्यवर्द्धन को अपने जाल में फंसा लिया और उसकी हत्या कर दी । राज्यवर्द्धन की मृत्यु के पश्चात 606 ई. में उसका छोटा भाई हर्षवर्द्धन थानेश्वर की गद्दी पर बैठा ।

हर्षवर्द्धन (606 -647 ई.) ~ Emperor Harshvardhan

हर्षवर्द्धन का प्रारंभिक जीवन

हर्षवर्द्धन का जन्म 591 ई.के लगभग हुआ। उसके पिता का नाम प्रभाकरवर्द्धन तथा माता का नाम यशोमती था । हर्ष का बचपन उसके ममेरे भाई भण्डी तथा मगधराज महासेनगुप्त के दो पुत्रों कुमारगुप्त एंव माधवगुप्त के साथ बीता । उसे राजकुमारों के अनुरूप शिक्षा-दीक्षा दी गई । वह समस्त शास्त्रों को चलाने में निपुण हो गया था । हर्षवर्द्धन की सैनिक शिक्षा की ओर संकेत करते हुए बाणभट्ट ने लिखा है कि 'दिन-प्रतिदिन शस्त्राभ्यास के चिंन्हो से उसके हाथ काले पड़ गए थे मानो वे सभी राजाओं के प्रताप की अग्नि को शांत करने में मलिन हो गए हों ।युद्ध विद्या के अतिरिक्त उसे अन्य विद्याओं की भी शिक्षा प्राप्त हुई थी ।

हर्षवर्द्धन का राज्यारोहण

राज्यवर्द्धन की मृत्यु के पश्चात स्थानेश्वर के राजदरबारियों नें पर्याप्त परामर्श के बाद हर्षवर्द्धन को राजा बनाया । बाणभट्ट की रचना 'हर्षचरित' से ज्ञात होता है कि पहले तो हर्षवर्द्धन सिंहासन लेने से संकोच कर रहा था परन्तु सेनापति सिंहनाद के इन शब्दों ने उसे प्रेरित किया:"कायरोचित शोक का परित्याग कर राजकीय गौरव को,जिस पर आपका पैतृक अधिकार है उसी प्रकार ग्रहण कीजिये ,जिस प्रकार एक सिंह मृगशावक को ग्रहण कर लेता है । चूंकि अब हमारे राजा राज्यवर्द्धन की दुष्ट गौड़राजरूपी सर्प के दंश से मृत्यु हो चुकी है,अतः इस घोर विपत्ति में पृथ्वी का भार ग्रहण करने के लिए आप ही अकेले शेषनाग हैं " । राज्यारोहण के समय हर्षवर्द्धन की आयु मात्र सोलह वर्ष थी ।

हर्षवर्द्धन के सैन्य अभियान

राजश्री की मुक्ति तथा थानेश्वर से कन्नौज का राजधानी में परिवर्तन हर्षवर्द्धन के राज्यारोहण के समय उसके समक्ष पहली बड़ी समस्या थी राज्यश्री को खोजकर शशांक से बदला लेना तथा कन्नौज के लिए किसी उत्तराधिकारी को चुनना । अपने भाई की हत्या का समाचार पाकर हर्षवर्द्धन दुख और क्रोध से भर जाता है । उसने प्रतिज्ञा की कि "यदि कुछ ही दिनों में धनुष चलाने की चपलता से भरे हुए समस्त उद्वत राजाओं के पैरों में बेड़ियो की झंकार से पूर्ण करके पृथ्वी को गौड़ों से रहित ना बना दूँ तो घी से धधकती हुई आग में पतंगे के रूप में पातकी की तरह अपने आप को जला दूंगा" । उसने शीघ्र ही एक सेना तैयार करता की और युद्ध के लिए कूच किया ।

हर्षचरित में हर्षवर्द्धन की विजय-यात्रा का बड़ा ही विचित्र वर्णन मिलता है । इस रचना के अनुसार हर्ष की सेना प्रतिदिन 8 कोस ( 16 मील अथवा 25 किमी.) की दूरी तय करती थी । पहली दिन की यात्रा के बाद हर्षवर्द्धन से कामरूप (असाम) के राजा भास्करवर्मा का भेजा हुआ दूत हँसवेग मिला जो बहुमूल्य उपहारों के साथ मैत्री का प्रस्ताव लेकर आया था । हर्षवर्द्धन ने प्रस्ताव स्वीकार कर लिया । दोनों के मध्य शशांक के विरुद्ध एक संधि भी हुई । तत्पश्चात हर्ष अपनी सेना के साथ आगे बढ़ा ।

कुछ दूरी तय करने के बाद हर्ष का ममेरा भाई भण्डी मिला जो राज्यवर्द्धन की शशांक द्वारा हत्या के बाद सेना के साथ वापिस राजधानी लौट रहा था । उसने हर्ष को राज्यवर्द्धन की हत्या का पूरा वृतान्त सुनाया और बताया कि गुप्त नामक व्यक्ति ने कन्नौज पर अधिकार कर लिया है तथा राज्यश्री कारागार से निकलकर विंध्याचल के जंगलों में सती होने के लिए चली गई है । परिणामस्वरूप अपनी सेना को भण्डी के नेतृत्व में छोड़कर हर्ष माधवगुप्त तथा कुछ चुंनिन्दा सामंतों के साथ राजश्री की तलाश में विंध्याचल के जंगलों की ओर चला जाता है। विंध्यवन मैं हर्ष ने वहां के प्रमुख व्याघ्रकेतु एवं भूकंप से संपर्क स्थापित किया जहां उनके भतीजे निर्घात ने राजश्री के बारे में जानकारी प्राप्त करने के लिए दिवाकरमित्र नामक बौद्ध भिक्षु के पास हर्ष को भेजा । अंततः बड़ी मुश्किल से दिवाकरमित्र की सहायता से राजश्री को उस वक्त खोज निकाला जब वह चिता बनाकर उसमें जलने जा रही थी । राजश्री को बचाकर हर्ष हर्ष पुनः गंगा नदी के तट पर वापस आ गया जहां उसकी सेना भण्डी के नेतृत्व में हर्ष के आने की प्रतीक्षा कर रही थी ।

हर्षचरित का विवरण अचानक इसी स्थान पर समाप्त हो जाता है इसलिए आगे की घटनाओं के बारे में हर्षचरित द्वारा हमें कोई जानकारी प्राप्त नहीं होती है । ऐसा प्रतीत होता है कि शशांक ने बिना किसी युद्ध के ही कन्नौज हर्ष को दे दिया था । इसके दो कारण हो सकते हैं पहला उसका मित्र देव गुप्त पहले ही मारा जा चुका था अतःएव मालवा से उसे कोई सहायता नहीं मिल सकती थी तथा दूसरा कारण हर्ष और भास्करवर्मा के बीच मैत्री हो जाने से शशांक का गौड़ स्थित राज्य पश्चिम में हर्ष तथा पूर्व में भास्करवर्मा से घिर चुका था । ऐसी परिस्थिति में जो शशांक के अनुकूल नहीं थी युद्ध करना ठीक नहीं समझा और बिना युद्ध किए ही कन्नौज छोड़ दिया ।

इस प्रकार कन्नौज ने पुनः अपनी स्वतंत्रता प्राप्त कर ली । चूंकि मौखरी के राजा ग्रहवर्मा की कोई संतान नहीं थी अतः उसकी मृत्यु के पश्चात मौखरी राज्य का कोई उत्तराधिकारी नहीं था । वहां के मंत्रियों ने हर्षवर्द्धन से कन्नौज का सिंहासन स्वीकार करने का आग्रह किया । लेकिन हर्ष नें इस प्रस्ताव को अस्वीकार कर दिया। ह्वैंनत्सांग के अनुसार हर्षवर्द्धन ने अवलोकितेश्वर बोधिसत्व से परामर्श किया। उसने हर्ष से सिंहासन पर बैठने तथा महाराज की उपाधि धारण करने से इन्कार किया । हर्ष ने अपने आप को 'राजपुत्र' कहा तथा अपना उपनाम 'शिलादित्य' रखा । राजश्री को ही शासिका बनाया गया जिसने अपने भाई हर्षवर्द्धन की देखरेख में शासन का संचालन स्वीकार किया । चीनी स्त्रोतों से ज्ञात होता है कि राजश्री और हर्ष साथ-साथ सिंहासन पर बैठते थे । हर्ष ने अपनी राजधानी को थानेश्वर से कन्नौज स्थानांतरित कर लिया था ताकि राजश्री को प्रशासनिक कार्यों में सहायता प्रदान की जा सके । कन्नौज हर्ष के विस्तृत साम्राज्य पर शासन करने के लिए उपयुक्त स्थान था । यहाँ से वह सफलतापूर्वक अपने अभियान का संचालन कर सकता था । उसने मौखरी राज्य की शक्ति और साधनों का पूर्ण रूप से उपयोग किया ।

हर्षवर्द्धन का पूर्वी अभियान

कन्नौज को जीतने के बाद हर्ष प्रथम पूर्वी अभियान के लिए निकल पड़ा जिसके अंतर्गत उसने समस्त उत्तर प्रदेश तथा पश्चिमी बिहार के कुछ भाग जीत लिये । परन्तु वह शशांक के प्रदेश जिसमें मगध, बंगाल और उड़ीसा शामिल थे नहीं जीत सका । लगभग इसी समय हर्ष ने मालवा पर भी अधिकार कर लिया था ।

वल्लभी से युद्ध

वल्लभी का राज्य आधुनिक गुजरात में स्थित था जहां का शासक ध्रुवसेन-।। था । 629 ई. के आसपास वल्लभी नरेश ध्रुवसेन-।। तथा हर्ष के मध्य युद्ध हुआ । हर्ष ने ध्रुवसेन-।। को पराजित कर दिया । ध्रुवसेन-।। ने भागकर भड़ौच के गुर्जर शासक दद्द-।। के दरबार में शरण ली । इस घटना की जानकारी जयभट्ट के नासौरी (जिला बड़ौदा, गुजरात) से प्राप्त दान पत्र(706 ई.) में मिलती है । दद्द-।। का शासनकाल 629-640 ई. के बीच था । अतः यह कहा जा सकता है कि ध्रुवसेन तथा हर्ष के मध्य युद्ध 629-640 ई. के बीच हुआ होगा ।

दोस्तों यहाँ विचार करने योग्य यह है कि यदि दद्द-।। एक साधारण स्थिति का शासक था तो वह हर्ष जैसे शक्तिशाली शासक के समक्ष कैसे खड़ा हो गया । ऐसा सम्भव है कि इस कार्य के लिए उसे पुलकेशिन-।। ने सहायता दी होगी । पुलकेशिन-।। के ऐहोल प्रशस्ति अभिलेख के अनुसार दद्द-।। उसका सामंत था । इस बात से यह स्पष्ट होता है कि नासौरी अभिलेख में जो श्रेय दद्द-।। को दिया गया है उसका वास्तविक अधिकारी पुलकेशिन-।। था । कालांतर में यह घटना हर्षवर्द्धन तथा पुलकेशिन-।। के मध्य युद्ध का कारण बनती है ।

हर्ष ने वल्लभी नरेश को अपनी ओर मिलाने के लिए अपनी पुत्री का विवाह भी उसके साथ कर दिया जिसके फलस्वरूप दद्द-।। हर्ष का मित्र एवं सहयोगी बन गया । ऐसा करने के पीछे हर्ष की कूटनीति था क्योंकि हर्ष के समक्ष नर्मदा नदी घाटी को सुरक्षित रखने की समस्या थी । नर्मदा घाटी के दक्षिण में चालुक्यों का राज्य था जो अवसर पाते ही उत्तर भारत पर आक्रमण कर सकते थे । अतः उसने वल्लभी नरेश को जीत लेने के बाद भी उससे अपनी पुत्री का विवाह कर अपने साम्राज्य की पश्चिमी सीमा को सुरक्षित कर लिया ।

सिंध पर आक्रमण

वल्लभी के बाद हर्ष ने हर्ष ने सिंध पर आक्रमण किया । हर्षचरित के अनुसार हर्ष ने सिंधुराज को युद्ध में पराजित कर दिया और उसका राज्य छीन लिया । ह्वेनत्सांग के विवरण के अनुसार सिंधु राजा शूद्र जाति का था तथा उसकी बौद्ध धर्म में आस्था थी । हर्षवर्द्धन ने समुद्रगुप्त के दक्षिणापथ अभियान की भांति धर्मविजय की नीति अपनाई अर्थात उसने सिंधु नरेश से भेंट-उपहार आदि लेकर उसे उसका राज्य वापिस लौटा दिया ।

पुलकेशिन-।। से युद्ध

पुलकेशिन द्वितीय (610 ई.-643 ई.) बादामी की चालुक्य वंश का शक्तिशाली राजा था हर्षवर्द्धन की विजय के फलस्वरूप उसके राज्य की पश्चिमी सीमा नर्मदा नदी तक पहुंच गई थी । अतः वह दक्षिण की ओर प्रसार करना चाहता था । उधर पुलकेशिन द्वितीय भी उत्तर में अपने राज्य की सीमाओं का प्रसार करना चाहता था । ऐसी स्थिति में दोनों राज्यों के मध्य युद्ध आवश्यक हो गया । हर्षवर्द्धन तथा पुलकेशिन द्वितीय की सेनाओं के मध्य नर्मदा नदी के तट पर भयंकर युद्ध हुआ जिसमें हर्षवर्द्धन की पराजय हुई । यह हर्षवर्द्धन के जीवन की प्रथम पराजय थी । इस युद्ध की जानकारी हमें ऐहोल प्रशस्ति लेख, ह्वेनत्सांग के यात्रा विवरण तथा ह्वेनत्सांग की जीवनी(ह्वी ली) से प्राप्त होती है । इस युद्ध की तिथि के विषय में विद्वानों में मतभेद है । अल्तेकर के विचार में इस युद्ध की तिथि 630 ई. से 634 ई. के मध्य हो सकती है ।

हर्ष का द्वितीय पूर्वी अभियान

पुलकेशिन-।। से हर्ष की पराजय ने हर्ष के नर्मदा नदी के दक्षिण में साम्राज्य विस्तार को रोक दिया । इसके बाद हर्ष ने पूर्वी भारत की विजय के निमित एक सैनिक योजना बनाई जिसका उद्देश्य शशांक के राज्य जिसके अंतर्गत उड़ीसा,बंगाल तथा मगध (बिहार) के कुछ भूभाग शामिल थे को जीतना था । ह्वेनत्सांग के विवरण से पता चलता है कि शशांक की मृत्यु 637 ई. के कुछ ही पूर्व हुई थी । चीनी लेखक मा-त्वाग-लिन के अनुसार सर्वप्रथम 641 ई. में हर्षवर्द्धन ने मगधराज की उपाधि धारण की थी । ह्वेनत्सांग के अनुसार इससे पूर्व शशांक मगध में शासन करता था । उसने बोधगया के बोधिवृक्ष को कटवा कर गंगा में फिंकवा दिया था । ह्वेनत्सांग की जीवनी के अनुसार हर्ष ने कोंगोद (गंजाम,उड़ीसा) पर आक्रमण कर वहां अधिकार कर लिया था । यहां भी पहले शशांक का शासन था । हर्ष ने उड़ीसा में जयसेन नामक बौद्ध विद्वान को 80 बड़े गांव दान दिए थे । यह तभी संभव था जब उड़ीसा पर हर्ष का अधिकार हो । ह्वेनत्सांग के अनुसार जब वह कामरूप असम के राजा भास्कर वर्मा के निमंत्रण पर वहां जा रहा था तो उसने हर्ष को थे जंगल नामक स्थान में सैनिक शिविर डाले हुए देखा था इससे यह भी सूचना मिलती है किस समय तक हर्ष ने बंगाल पर भी अधिकार कर लिया था इस प्रकार की है कहा जा सकता है कि हर्षवर्धन ने अपने पुराने चित्र शशांक के जीवन काल में उसे किसी भी प्रकार की क्षति नहीं पहुंचा सकता किंतु शांति मृत्यु के पश्चात उसमें उसके बंगाल उड़ीसा मगध बिहार पर अधिकार कर लिया । यह सब 637 ईसवी 643 ईसवी के बीच किया ।

हर्ष और नेपाल

हर्षचरित में यह उल्लेख मिलता है की हर्ष ने हिमाच्छादित पर्वतों के दुर्गम प्रदेशों से कर प्राप्त किया था इस उल्लेख से बलूर जैसे विद्वानों ने यह निष्कर्ष निकाला है की हर्ष ने नेपाल पर भी विजय प्राप्त कर ली थी राधा कुमुद मुखर्जी का मानना है कि नेपाल में हर्ष द्वारा प्रचलित किए गए हर्ष संवत का भी प्रयोग किया जाता था अतः निश्चित रूप से उसने नेपाल पर आधिपत्य स्थापित कर लिया था लेकिन केवल संवत के प्रचलन से ही हम यह नहीं मान सकते कि हर्ष ने नेपाल पर अधिकार कर लिया था क्योंकि संवत प्रचलन सांस्कृतिक संपर्क का भी परिणाम भी हो सकता है अतः इस सम्बन्ध में निश्चित रूप से कुछ नहीं कहा जा सकता है ,क्योंकि ऐसा कोई स्पष्ट प्रमाण नहीं मिला है जो हर्ष की नेपाल विजय को दर्शाता हो ।

हर्ष और कश्मीर

कश्मीर पर हर्ष का शासन था या नहीं था यह संदिग्ध है क्योंकि इस दावे के कोई पुख्ता सबूत नहीं हैं । कश्मीर का शासक बौद्ध मतानुयायी था । ह्वेनत्सांग की जीवनी के अनुसार हर्ष ने यह सुना था कि भगवान बुद्ध का एक दाँत कश्मीर में है इस दाँत के दर्शन व उसकी उपासना हेतु वह कश्मीर की सीमा तक आ गया । इसके लिए हर्ष ने कश्मीर नरेश से अनुमति माँगी परंतु बौद्ध संघ ने इसकी अनुमति नहीं दी । इस पर स्वंय कश्मीर नरेश ने मध्यस्थता कर दाँत को हर्ष के सम्मुख प्रस्तुत कर दिया । दाँत को देखते ही शिलादित्य (हर्ष) श्रद्धातिरेक हो उठा और बल प्रयोग द्वारा दाँत उठा ले गया । इस उल्लेख के आधार पर राधा कुमुद मुखर्जी ने कश्मीर पर हर्ष का अधिकार होना माना है ।

हर्ष और कामरूप

अपनी विजय यात्रा के प्रथम चरण के दौरान ही हर्ष को कामरूप नरेश भास्करवर्मा (630 -650 ई.) द्वारा भेजा हुआ एक दूत हंसवेग मिला जो हर्ष के पास कामरूप नरेश का मैत्री संदेश तथा कुछ उपहार लेकर आया था । ऐसा प्रतीत होता है कि भास्करवर्मा शशांक से भयभीत था ।

ह्वेनत्सांग की जीवनी में ऐसा उल्लेख मिलता है कि भास्करवर्मा हर्ष से प्रभावित था । इस ग्रंथ के अनुसार एक बार ह्वेनत्सांग जब भास्करवर्मा के दरबार में ठहरा हुआ था तो हर्ष ने उसे बुलाने के लिए अपना एक दूत भेजा । इस पर भास्करवर्मा ने कहलवा भिजया की चीनी मेहमान के बदले हम अपना सिर देना पसंद करेंगे । इस पर हर्ष अत्यंत क्रोधित हुआ और तुरंत सिर भेजने को कहा । यह सुनकर भास्करवर्मा भयभीत हो गया और तुरंत ह्वेनत्सांग के साथ हर्ष के सम्मुख प्रस्तुत हो गया । ह्वेनत्सांग के अनुसार भास्करवर्मा कन्नोज तथा प्रयाग के समारोहों में भी उपस्थित हुआ था ।

हर्ष तथा दक्षिण भारत

कुछ इतिहासकारों का मानना है कि हर्ष ने कुन्तल, कांची तथा सुदूर दक्षिण भारतीय राज्यों पर भी आक्रमण किया था । इस मत का आधार मयूर नामक एक कवि के श्लोक तथा गदेमन्ने(केरल) से प्राप्त एक लेख है । मयूर में अपने श्लोक में हर्ष को कुन्तल, चोल तथा कांची के पल्लव राज्यों का विजेता बताया है । कुछ विद्वान मयूर के श्लोक की संगति ह्वेनत्सांग के विवरण से बैठाकर यह निष्कर्ष निकालते हैं कि हर्ष कोंगोद (गंजाम जिला, उड़ीसा) पर विजय प्राप्त करके चोल तथा कांची की ओर बढ़ा । परन्तु इस विषय में में कोई सुनिश्चित निष्कर्ष नहीं निकाला जा सकता है ।


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