गुरु अर्जुन देव का जन्म 15 अप्रेल 1563 को गोइन्दवाल में हुआ । वह चौथे सिख गुरु रामदास जी तथा माता भानी जी के बेटे थे । इनका पालन-पोषण इनके नानाजी गुरु अमरदास जी की देख-रेख में हुआ । गुरु अर्जुनदेव की निर्मल परवर्ती तथा धार्मिक व मानवीय मूल्यों के प्रति समर्पण भाव देखते हुए 1581 ई. में इनके पिता गुरु रामदास साहिब ने इन्हें पाँचवें सिख गुरु के पद से सुशोभित किया ।
उन्होंने अपने पिता गुुरू रामदास के द्वारा सौंपे गए धर्म प्रचार के कार्य को आगे बढ़ाया। इन्हे बाणी का जहाज भी कहा जाता है । गुरु अर्जुन देव ने भाई गुरुदास व बाबा बुड्डा सिंह के सहयोग से प्रथम बार गुरु ग्रन्थ साहिब का संपादन किया । गुरु ग्रन्थ साहिब सिख धर्म का पवित्र ग्रन्थ है । गुरु अर्जुन देव ने पूर्व सिख गुरुओं व अपनी वाणियों, शब्दों को इस ग्रन्थ में एकत्रित किया । इस ग्रन्थ का अंतिम बार संपादन 10वें गुरु गोविन्द साहिब ने किया ।
बाबा बुढ़ा सिंह के आग्रह पर उन्होंने तरनतारन में एक सरोवर बनवाया जहां कोढ़ रोगियों का उपचार किया जाता । धर्म प्रचार के दौरान उन्होंने जालंधर के दोआब क्षेत्र में 1593 ई. आस-पास करतारपुर नामक नगर बसाया । गुरु अर्जुन देव ने गुरुद्वारा हरमिंदर साहिब अमृतसर का निर्माण कार्य पूरा करवाया । 1597 ई. में लाहौर में अकाल के दौरान वहां गुरु अर्जुन देव ने लंगर,पानी व दवाइयों की व्यवस्था की ,उन्होंने वहां पानी की बावड़ी का भी निर्माण करवाया । उन्होंने दस्वंद प्रथा शुरू की जिसका तातपर्य था कि सिखों को अपनी नेम कमाई में से दसवां हिस्सा धर्म के कार्यों में लगाना चाहिए । गुरु ग्रन्थ साहिब को लेकर एक बार कुछ असामाजिक तत्वों ने बादशाह अकबर से यह शिकायत कर दी कि ग्रन्थ में इस्लाम के खिलाफ कुछ बातें लिखीं गयीं हैं, लेकिन बाद में जब अकबर को गुरु ग्रन्थ साहिब की महानता का पता चला तो वह बहुत प्रसन्न हुआ और इनाम स्वरूप उसने भाई गुरुदास व बाबा बुड्डा सिंह को 51 मुहरें प्रदान की तथा लाहौर में दी गयी सेवाओं के लिए उनका धन्यवाद किया ।
गुरु अर्जुन देव की शहादत को सिख इतिहास की पहली शहादत माना जाता है । उनकी शहादत की याद में आज भी सिख अनुयायी इस दिन को बलिदान दिवस के रूप में मनाते हैं। ऐसा माना जाता है कि गुरु अर्जुन देव के तीन दुश्मन थे पहला उनका भाई पृथ्वी चंद जो उन्हें गुरु गद्दी दिए जाने की वजह से उनसे नफरत करता था ,दूसरा मुगल बादशाह जहाँगीर का मंत्री चंदू जो अपनी पुत्री का विवाह अर्जुन देव के पुत्र से करना चाहता था परंतु गुरु अर्जुन देव ने ऐसा करने से इन्कार कर दिया ,इस बात का चंदू उनसे बदला लेना चाहता था तथा तीसरा शत्रु बादशाह जहाँगीर था जो अपने बागी शहजादे खुसरो को अर्जुन देव द्वारा शरण दिए जाने के कारण उनसे नाराज था । पृथ्वी चंद तथा चंदू ने गुरु अर्जुन देव के विरुद्ध बादशाह जहांगीर के कान भर दिए । बादशाह जहांगीर ने गुरु अर्जुन देव को बुलावा भेजा । गुरु अर्जुन देव ने अपना अंतिम समय निकट जान गुरु गद्दी अपने बेटे हरगोबिन्द को सौंपकर 5 सिख सदस्य दल के साथ मुगल बादशाह जहाँगीर के पास लाहौर पहुंचे । गुरु अर्जुन देव को शहजादा खुसरो को शरण देने के आरोप में कारावास में दाल दिया । मंत्री चंदू ने गुरु जी से अपनी पुत्री का विवाह उनके पुत्र हरगोबिन्द सिंह से करने की शर्त मानने को कहा । लेकिन गुरु अर्जुन देव ने ऐसा करने से इंकार किया तो चंदू ने उन्हें यातनाएं देना शुरू कर दिया । उन्हें लोहे के गर्म तवे पर बैठाया गया,तपती हुई रेत उनके सिर पर डाली गई । गुरु अर्जुन देव जी का शरीर पूरी तरह से जल चुका था । गुरु जी ने रावी नदी में स्नान करने की इच्छा प्रकट की । 30 मई,1606 को रावी नदी में प्रवेश कर उन्होंने अपना शरीर त्याग दिया । लाहौर में रावी नदी के इस तट पर गुरुद्वारा डेरा साहिब की स्थापना की गई ।
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