काकतीय वंश का इतिहास
बेता प्रथम काकतीय वंश का प्रधान व्यक्ति था । ऐसा माना जाता है कि बेता प्रथम ने आन्ध्र प्रदेश के नलगोंडा में 1000 ई. के आसपास काकतीय वंश की स्थापना की । उसने अनुमाकोण्डा को अपनी राजधानी बनाया । इनके शासन के शुरुआती इतिहास की स्पष्ट जानकारी नहीं प्राप्त है लेकिन ऐसा प्रतीत होता है कि 11वीं सदी के शुरुआत में बेता प्रथम चालुक्यों का सामंत था । अतः ऐसा कहा जा सकता है की शुरुआत में काकतीयों ने चालुक्यों के अधीन शासन किया था । बेता प्रथम के शासन की अवधि 1000 ई. से 1050 ई. तक मानी जाती है ।
इसके पश्चात निम्न शासकों ने काकतीय वंश के शासन को आगे बढ़ाया-
प्रोलराज प्रथम (1050 ई.- 1080 ई.)
प्रोलराज प्रथम बेता प्रथम का पुत्र था । चालुक्यों का वफादार सामंत होने के कारण उसकी वफ़ादारी से प्रभावित होकर चालुक्य नरेश सोमेश्वर प्रथम ने अनुमाकोण्डा की जागीर प्रोलराज प्रथम को स्थायी रूप से दे दी । इस प्रकार काकतीय वंश का सबसे मुख्य संस्थापक प्रोलराज प्रथम को कहा जा सकता है क्योंकि वह चालुक्यों का सामन्त अवश्य था परन्तु अनुमाकोण्डा की जागीर पर उसका स्वयं का शासन था ।
बेतराज द्वितीय (1080 ई.-1115 ई.)
बेतराज द्वितीय प्रोलराज प्रथम का पुत्र था। बेतराज द्वितीय के पश्चात उसका पुत्र दुर्गानृपति काकतीय वंश का शासक बना । इन दोनों शासकों के विषय में कोई विशेष ऐतिहासिक सामग्री उपलब्ध नहीं है ।
प्रोलराज द्वितीय (1115 ई.-1158 ई.)
प्रोलराज द्वितीय काकतीय इतिहास में काफी महत्वपूर्ण हैं । उसने चालुक्यों से अपने राज्य को स्वतंत्र घोषित कर दिया । उपर्युक्त काकतीय शासक चालुक्यों के अधीन शासन करते थे परन्तु प्रोलराज द्वितीय ने अपना स्वतंत्र राज्य स्थापित किया ।
रुद्रदेव (1158 ई.-1197 ई.)
रुद्रदेव काकतीय वंश के सबसे साहसी व योग्य राजाओं में से एक था । अनुमाकोण्डा अभिलेख में प्राप्त जानकारी के अनुसार रुद्रदेव ने अपने पड़ोसी राज्यों के अतिरिक्त अनेकों छोटे-छोटे राज्यों को पराजित कर अपने राज्य की सीमाओं का विस्तार गोदावरी के तट तक कर लिया था । उसने दक्षिण में तेलुगु चोड़ा मूल के चार शासकों को भी पराजित किया था । उसने वेंगी पर भी आक्रमण किया परन्तु यहाँ उसे वेलानाडु के प्रधान के विरोध का सामना करना पड़ा । रुद्रदेव काकतीय वंश का महान शासक था निरन्तर युद्धों द्वारा उसने उसने अपने राज्य की सीमाओं का काफी हद तक विस्तार कर लिया था । अपने शासनकाल के अंतिम दिनों में उसने देवगिरी के यादवों के साथ युद्ध किया जिसमे उसकी पराजय हुई तत्पश्चात उसकी मृत्यु हो गयी ।
कला व साहित्य का संरक्षक
रुद्रदेव कला व् साहित्य प्रेमी था । उसने अपने राज्य में भगवान शिव के अनेकों मंदिरों का निर्माण करवाया । उसने अनुमाकोण्डा में एक हजार स्तम्भों वाले मंदिर (रुद्रेश्वर स्वामी मन्दिर) का निर्माण करवाया था । उसके शासनकाल में संस्कृत भाषा को काफी महत्त्व दिया जाता था, उसके दरबार में अनेकों संस्कृत कवि व लेखक थे । अचिंतेन्द्र नामक लेखक को रुद्रदेव ने अनुमाकोण्डा अभिलेख प्रशस्ति लिखने का कार्य सौंपा । हालाँकि उस समय का प्रसिद्ध प्रशस्ति लेखक ईशवारसूरी था जिसने बोथपुर अभिलेख लिखा । रुद्रदेव ने अनुमाकोंडा के पास ओरुगाल्लु (वर्तमान वारंगल) नामक शहर बसाया जो उसके उत्तराधिकारियों के समय काकतीय प्रदेश की राजधानी बना ।
महादेव (1197 ई.-1198 ई.)
रुद्रदेव के पश्चात उसका भाई महादेव काकतीय राज्य की गद्दी पर बैठा हालाँकि उसने बहुत ही अल्पकाल (मात्र 2 वर्ष) तक शासन किया । उसने अपने शासनकाल में सेउना राज्य पर आक्रमण किया । उसने यादवों की राजधानी देवगिरि पर भी आक्रमण किया जिसमे उनकी मृत्यु हो गयी तथा उसके पुत्र गणपति को बंदी बना लिया गया ।
गणपति देव (1198 ई.-1261 ई.)
गणपति देव का शासनकाल काकतीय राज्य के लिए गौरवपूर्ण था । वह काकतीय वंश का सबसे महान शासक था । हालाँकि उसने काफी प्रतिकूल परस्थितियों में शासन आरम्भ किया था । उसने अपने 63 वर्षों के शासनकाल में संपूर्ण तेलुगु प्रदेश पर अपना शासन स्थापित कर लिया था ।
गणपति देव ने विजयवाड़ा तथा दिवी द्वीप पर अधिकार कर लिया । पृथ्वीश्वर की मृत्यु के बाद वेलनती प्रमुखों का सारा क्षेत्र काकतीय राज्य में मिला लिया गया । दक्षिण की तरफ भी गणपति ने अपनी सीमाओं का विस्तार किया । तेलुगु चोड़ों के पारिवारिक कलह का फायदा उठाकर गणपति ने नेल्लोर पर आक्रमण किया तथा टिक्का को बैठा दिया । टिक्का की मृत्यु के पश्चात उसके पुत्र मनुमा सिद्दी द्वितीय को नेल्लोर की गद्दी पर बैठाया । विजयगंदगोपाल के विद्रोह के कारण जब नेल्लोर में अव्यवस्था व अराजकता फैल गई तो सम्राट गणपति देव ने कवि तिक्कना की सलाह पर मनुमा सिद्दी की उसके घरेलू शत्रुओं से रक्षा की तथा उसे मजबूती से पुनः नेल्लोर की गद्दी पर बैठाया ।
गणपति ने अपने राज्य का विस्तार गोदावरी जिले के चिंगेलपुट तथा येलगंडाल से समुद्री तट तक किया । उसने व्यापार तथा कृषि के क्षेत्र में अनेकों सुधार किये । उसका विदेशी व्यापार समुद्री मार्ग से होता था । कृष्णा जिले में स्थित मोटुपल्ली बन्दरगाह के रास्ते विदेशी व्यापारी उसके राज्य में आते थे । गणपति ने वारंगल में कई महलों का निर्माण करवाया तथा अपनी राजधानी को अनुमाकोंडा से वारंगल स्थानांतरित किया ।
गणपति देव के कोई पुत्र नहीं था । उसके दो पुत्रियां थीं रुद्रमा तथा जनपमा । गणपति देव ने अपनी पुत्री रुद्रमा को अपने उत्तराधिकारी के रूप में चुना ।
रुद्रमा देवी ~ Rudrma devi (1261 ई.-1296 ई.)
रुद्रमा देवी (Rudrma devi) के राज्यारोहण के समय उन्हें कई कठिनाइयों का सामना करना पड़ा । गद्दी संभालते ही रुद्रमा देवी (Rudrma devi) को अभिजात वर्ग के विद्रोह का सामना करना पड़ा जो एक महिला के शासन से खुश नहीं थे । इसके अलावा कई मंत्री व सामंत भी रुद्रमा देवी (Rudrma devi) को गद्दी दिए जाने के पक्ष में नहीं थे । रुद्रमा देवी ने इन सभी विद्रोहों का दमन कर राज्य में शान्ति व्यवस्था स्थापित की । लगभग उसी समय यादव नरेश महादेव ने काकतीय राज्य पर आक्रमण कर दिया । काकतीय व चालुक्य वीरभद्र की संयुक्त सेना ने यादव सेना को पराजित कर दिया तथा महादेव को बंदी बना लिया गया ।
समय समय पर काकतीय सामंत विद्रोह कर रुद्रमा देवी (Rudrma devi) को संकट में डालते रहते थे। सबसे अधिक संकट रुद्रमा देवी के समक्ष 1289 ई. में तब उत्पन्न हुआ जब काकतीय सामंत अंबादेव ने मनुमा गंदगोपाल को नेल्लोर की गद्दी पर बैठा दिया । रुद्रमा देवी के पोते प्रतापरुद्र/कुमार रुद्रदेव ने इस संघर्ष में कूदते हुए काकतीय सेना ने अंबादेव तथा उसके सहयोगियों पर तीन तरफ से आक्रमण किया । रुद्रमा देवी (Rudrma devi) ने स्वंय एक विशाल सेना का संचालन किया तथा अंबादेव को पराजित कर त्रिपुरान्तकम व उसके आसपास के क्षेत्रों पर अधिकार कर लिया । रुद्रमा देवी आंध्र क्षेत्र की एक महान महिला शासक थी । उनकी प्रशासन में काफी रुचि थी तथा कई मौकों पर स्वंय भी सेना का संचालन करती थीं ।
रुद्रमा देवी (Rudrma devi) ने अपने पिता गणपति देव के साथ सहभागी शासिका के रूप में संयुक्त शासन प्रारम्भ किया तथा 1261 ई. पूर्ण संप्रभुता ग्रहण की । बचपन से ही उनका लालन-पालन, अस्त्र-शस्त्र की शिक्षा तथा वस्त्र, पहनावा सब एक राजकुमार की भांति दिया गया । अपने पिता गणपति देव के शासनकाल में साम्राज्य की उन्नति के लिए रुद्रमा देवी अनेकों कार्य करवाये । उन्होंने वर्षा का जल संचय करने के लिए अनेकों बड़े-बड़े तालाबों का निर्माण करवाया । रुद्रमा देवी ने प्रजा की आक्रमणों से रक्षा के लिए किले के चारों तरफ चूने, पत्थर व काँटों की ऊँची ऊँची 7 दीवारों का निर्माण कार्य पूरा करवाया । उसने राज्य में उत्पन्न अनेकों उपद्रवों का सफलतापूर्वक दमन किया । उसने कलिंग शासक नरसिंह देव तथा पाण्ड्य शासक को पराजित कर युद्ध क्षेत्र से भागने को विवश किया ।
इतालवी यात्री मार्को पोलो ने अपनी रचना में रुद्रमादेवी के साम्राज्य की प्रशंसा की है। वह 1292 ईस्वी में भारत आया था । इन पर आधारित फिल्म 'रुद्रमादेवी' 2015 में रिलीज हुई । इस फिल्म का निर्देशन गुनसेखर ने किया तथा मुख्य भूमिका के रूप में रुद्रमा देवी का किरदार अनुष्का शेट्टी ने निभाया । रुद्रमा देवी (Rudrma devi) भारत की महान महिला शासिकाओं में से एक थीं । रुद्रमा देवी ने अपने बचपन के मित्र चालुक्य वंश के राजकुमार वीरभद्र चालुक्य से विवाह किया। ऐसा माना जाता है कि वीरभद्र से रुद्रमा देवी (Rudrma devi) के दो बेटियां हुईं जिनमें से एक का पुत्र प्रतापरुद्र था जो रुद्रमा देवी की मृत्यु के पश्चात काकतीय वंश की गद्दी पर बैठा ।
प्रतापरुद्र देव (1296 ई.-1323 ई.)
प्रतापरूद्र देव काकतीय वंश का अंतिम राजा था । प्रतापरुद्र के राज्य का इतिहास मुस्लिम आक्रमणों के क्रम का इतिहास है जो 1303 ई. से प्रथम मुस्लिम आक्रमण से शुरू होता है । 1303 ई. में अलाउद्दीन खिलजी ने मलिक छज्जू के नेतृत्व में ने काकतीय राज्य पर असफल आक्रमण किया । अलाउद्दीन खिलजी की सेना को प्रतापरुद्र के हाथों पराजित होकर वापिस लौटना पड़ा । 1310 ई. में फिर से काकतीय राज्य को मुस्लिम आक्रमण का दंश झेलना पड़ा । इस बार प्रतापरुद्र द्वारा अलाउद्दीन खिलजी के सेनापति मलिक काफूर के साथ संधि करनी पड़ी जिसके फलस्वरूप प्रताप रुद्रदेव ने मलिक काफूर को 100 हाथी, 700 घोड़े व अतुल धनराशि प्रदान की इसके साथ ही प्रताप रुद्रदेव द्वारा अलाउद्दीन खिलजी को वार्षिक कर देना भी स्वीकार कर लिया । 1321 में गयासुद्दीन तुगलक ने भारी सेना के साथ वारंगल पर आक्रमण कर दिया परंतु उसे पराजित होकर वापिस लौटना पड़ा । 1323 ई. में गयासुद्दीन तुगलक ने अपने पुत्र 'जौना खान' (मोहम्मद बिन तुगलक) को दक्षिण भारत पर आधिपत्य स्थापित करने के लिए भेजा । 1323 ई. में जौना खान ने वारंगल पर आक्रमण कर दिया तथा प्रतापरुद्र को पराजित कर बंदी बना लिया । प्रतापरुद्र को जब बंदी बनाकर दिल्ली ले जा रहे थे तो रास्ते में ही उसकी मृत्यु हो गई । इस प्रकार रुद्रप्रताप की मृत्यु के साथ ही काकतीय वंश समाप्त हो गया तथा वारंगल को दिल्ली सल्तनत में शामिल कर लिया गया ।
दोस्तों, जैसा कि मैनें आपको बताया कि 1323 ई. में प्रतापरुद्र की मृत्यु के बाद काकतीय वंश समाप्त हो गया था । लेकिन दोस्तों इस वंश का साम्राज्य सिर्फ वारंगल में समाप्त हुआ था । 1324 ई. में अन्नाम देव ने बस्तर में काकतीय वंश की पुनर्स्थापना की । अन्नाम देव प्रतापरुद्र का भाई था जो वारंगल छोड़कर बस्तर आ जाता है तथा यहां अपना शाही साम्राज्य स्थापित करता है । यह साम्राज्य भारत की आजादी के पश्चात 1948 ई. तक रियासतों के विलय तक चला । इतिहास में इन्हें 'वारंगल का काकतीय वंश' तथा 'बस्तर का काकतीय वंश' के नाम से जाना जाता है ।
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