Gorishankar Hirachand Ojha ~ राजस्थान के इतिहासकार ~ Ancient India

Gorishankar Hirachand Ojha ~ राजस्थान के इतिहासकार

प्रारम्भिक जीवन

भारत के सर्वप्रमुख इतिहासकारों में से एक हैं डॉ.गौरीशंकर हीराचंद ओझा । डॉ.गौरीशंकर हीराचंद ओझा का जन्म 15 सितम्बर 1863 ई. को राजस्थान के सिरोही जिले के रोहिड़ा ग्राम में हुआ । उनके पिता का नाम हीराचंद ओझा था । ओझा जी ब्राह्मण परिवार से थे । इन्होंने अपनी प्रारंभिक शिक्षा रोहिड़ा ग्राम में ही प्राप्त की । इसके पश्चात वे उच्च शिक्षा प्राप्ति के लिए 14 वर्ष की आयु में 1877 ई. में मुम्बई चले गए । वे पढ़ाई में बहुत ही होशियार थे। 1885 ई. में उन्होंने मुम्बई के 'एलफिंस्टन हाईस्कूल' (Elphinstone High School) से मेट्रिक की परीक्षा पास की। उन्होंने कानून की पढ़ाई की थी लेकिन उनकी ज्यादा रूचि इतिहास को जानने में थी । उन्होंने इतिहासकार कर्नल टॉड की पुस्तक का अध्ययन किया जो इतिहास के क्षेत्र में उनकी प्रेरणा स्त्रोत रही । हालांकि गौरीशंकर ओझा ने बाद में कर्नल टॉड की इस चर्चित पुस्तक 'एनाल्स एंड एंटीक्विटीज ऑफ राजस्थान' में इतनी गलतियां निकालीं कि अंग्रेज इतिहासकार भी दंग रह गए थे ।

बहरहाल 1888 ई. में गौरीशंकर ओझा उदयपुर आ गए । यहां उनकी मुलाकात कविराज श्यामलदास जी से होती है । कविराज श्यामलदास इनसे बहुत प्रभावित थे । कविराज श्यामलदास के आग्रह पर मेवाड़ के शासक महाराणा फतेह सिंह ने ओझा जी को उदयपुर के इतिहास विभाग में सहायक मंत्री के रूप में रख लिया । गौरीशंकर हीराचंद ओझा श्यामलदास जी को अपना गुरु मानते थे । ओझा जी श्यामलदास जी के साथ मेवाड़ के भिन्न भिन्न ऐतिहासिक स्थलों पर घूमे और वहां से ऐतिहासिक सामग्री एकत्रित की । ओझा जी की मेहनत और काबिलियत को देखते हुए कुछ समय बाद उन्हें उदयपुर के पुस्तकालय व संग्रहालय का अध्यक्ष बना दिया गया । इस पद पर रहते हुए उन्होंने पुरातत्व विभाग के लिए विभिन्न ऐतिहासिक स्थालों से शिलालेख, सिक्के,मूर्तियां आदि ऐतिहासिक सामग्रीयां संग्रहित कीं । इस पद पर वे 20 वर्षों तक रहे ।

1903 में वायसराय लार्ड कर्जन महाराणा फतेह सिंह को दिल्ली दरबार का निमंत्रण देने उदयपुर पहुंचे जहां उसकी मुलाकात ओझा जी से हुई । लार्ड कर्जन ने ओझा जी की विद्वता से प्रभावित होकर उन्हें भारतीय पुरातत्व विभाग का उच्च देना चाहा । लेकिन ओझा जी ने यह पद लेने से इन्कार कर दिया क्योंकि वह मेवाड़ में ही रहकर अपनी सेवाएं देना चाहते थे । 1908 ई. में लार्ड कर्जन के निर्देशानुसार अजमेर में पुरातत्व विभाग की स्थापना हुई जहां ओझा जी को विभाग का अध्यक्ष नियुक्त किया गया ।

गौरीशंकर ओझा की रचनाएं

ओझा जी ने राजस्थान के इतिहास से संबंधित अनेकों ग्रंथों की रचना की । उन्होंने अपनी मातृभूमि सिरोही राज्य का इतिहास (1911) लिखा । उनकी रचना भारतीय प्राचीन लिपिमाला ने पुरातत्व जगत में उन्हें विशेष ख्याति प्रदान की । यह रचना 1894 ई. में प्रकाशित हुई थी । इस रचना ने भाषा और लिपि के क्षेत्र में क्रांति ला दी । इस रचना के माध्यम से ओझा जी ने विश्व के समक्ष यह विचार रखा कि यदि ब्राह्मी लिपि को अच्छी तरह समझ लिया जाए तो अन्य लिपियों को आसानी से समझा जा सकता है । प्राचीन भारतीय अभिलेखों और सिक्कों पर अंकित लेखों के अध्ययन के लिए यह रचना प्रथम प्रमाणिक रचना सिद्ध हुई । यह रचना आज 'गिनीज बुक ऑफ वर्ड रिकॉर्ड' में शामिल है । संयुक्त राष्ट्र संघ ने इस रचना को विश्व निधि घोषित किया है । गौरीशंकर ओझा ने हिंदी साहित्य के सामने दुनिया को नतमस्तक कर दिया। इस रचना का संशोधित संस्करण 1918 ई. में प्रकाशित हुआ । इसके अलावा उन्होंने सोलंकियों का प्राचीन इतिहास (1907) तथा राजपूताना इतिहास की श्रृंखला में बीकानेर राज्य का इतिहास (प्रथम भाग 1937 तथा दूसरा भाग 1940),उदयपुर राज्य का इतिहास(प्रथम भाग 1928 तथा दूसरा भाग 1932), डूंगरपुर राज्य का इतिहास (1936), बांसवाड़ा राज्य का इतिहास(1936), प्रतापगढ़ राज्य का इतिहास (1940),जोधपुर राज्य का इतिहास (प्रथम भाग 1938 तथा दूसरा भाग 1941) आदि अनेकों ऐतिहासिक ग्रंथों की रचना की ।

ओझा जी की रचना 'मध्यकालीन भारतीय संस्कृति' भारतीय संस्कृति पर प्रकाश डालती है । फारसी ग्रंथों का अनुवाद, विदेशी यात्रियों के विवरण,संस्कृत,राजस्थानी, गुजराती व मराठी भाषाओं के काव्य ग्रंथ ,शिलालेख, दानपात्र, सिक्के इत्यादि उनके इतिहास लेखन के आधार रहे हैं । उन्होंने प्रत्येक घटना की सत्यता को प्रमाणित करने का यथासंभव प्रयास किया है इसके लिए उन्होंने हर उस स्त्रोत का उपयोग किया है जो उस घटना का वर्णन करता है ।

उपाधियां तथा पुरुस्कार

1914 में गौरीशंकर ओझा को रायबहादुर की उपाधि प्रदान की गई । 1927 के अखिल भारतीय हिंदी साहित्य सम्मेलन में उन्हें महामहोपाध्याय की उपाधि से नवाजा गया । 1935 में ओझा जी को साहित्य वाचस्पति की पदवी दी गई तथा 1935 में ही काशी विश्वविद्यालय ने ओझा जी को डी. लिट्ट.(D.Litt.) की उपाधि प्रदान की ।

20 अप्रैल 1947 को 84 वर्ष की आयु में गौरीशंकर जी ओझा का अपनी जन्मभूमि रोहिड़ा में निधन हो गया ।

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