Fort of Rajasthan ~ Bhatner fort / भटनेर दुर्ग ~ Ancient India

Fort of Rajasthan ~ Bhatner fort / भटनेर दुर्ग

नमस्कार दोस्तों, स्वागत है आपका इतिहास की हिंदी वेबसाइट 'Ancient India' पर । दोस्तों, आज हम आपको जानकारी देंगे एक ऐसे किले की जो भारत के सबसे प्राचीन किलों में शुमार है जिसने सदियों तक मध्य एशिया की तरफ से होने वाले विदेशी आक्रमणों को रोकने के लिए एक प्रहरी की भूमिका निभाई । जिसने महमूद गजनवी, तैमूर व उसके जैसे ना जाने कितने ही विदेशी आक्रांताओं के दंश को झेला, जिसे अनेकों बार लूटा और बर्बाद किया गया । दोस्तों ये है हनुमानगढ़ का भटनेर किला ।

भटनेर का इतिहास (Bhatner fort)

भटनेर दुर्ग राजस्थान के उत्तर में घग्घर नदी(प्राचीन सरस्वती नदी) के बाएं तट पर तथा बीकानेर से 244 किलोमीटर दूर उत्तर-पूर्व में स्थित है । इसका निर्माण भाटी राजवंश के शासक भूपत ने 295 ईसवी में करवाया था । इस दुर्ग का शिल्पी केकैया था । भाटी राजवंश द्वारा निर्मित होने के कारण इस दुर्ग का नाम भटनेर रखा गया ।

यह दुर्ग पक्की ईंटों और चूने से निर्मित होने के कारण तत्कालीन समय का सबसे मजबूत दुर्ग माना जाता था । तैमूर ने  भटनेर में रहते हुए अपनी जीवनी 'तुजुक-ए-तैमूरी' में इस दुर्ग के बारे में लिखा है की मैंने अपने जीवन में भटनेर के समान मजबूत किला कहीं नहीं देखा । इस किले में एक भूमिगत सुरंग भी बनवाई गई थी जो भटनेर से बठिंडा तथा सिरसा के किलों तक जाती थी । 12वीं शताब्दी में इस दुर्ग का पुनः निर्माण महारावल शालिवाहन के वंशज अभय सिंह भाटी ने करवाया ।

भटनेर के शासक (Ruler of Bhatner)

भटनेर दुर्ग पर सर्वाधिक विदेशी आक्रमण हुए । 1001 ईसवी में महमूद गजनवी ने इस दुर्ग पर आक्रमण किया ।13वीं शताब्दी में यह दुर्ग गुलाम वंश के शासक गयासुद्दीन बलबन (बहाउदीन) के अधीन रहा । बलबन का चचेरा भाई शेरखाँ यहाँ का हाकिम था जिसने यहाँ रहते हुए मंगोल आक्रमणकारियों का मुकाबला किया । ऐसा कहा जाता है की शेरखाँ की मृत्यु यहीं पर हुई थी तथा उसकी कब्र भी इसी दुर्ग में बनाई गई ।

इसके आलावा मंगोलों और तैमूरों ने भी भटनेर दुर्ग को खूब लूटा और हजारों लोगों को मौत के घाट उतार दिया ।तैमूर लंग इस्लाम धर्म का कट्टर अनुयायी तथा एक क्रूर और महत्वाकांक्षी शासक था ।1393 ईसवी में तैमूर ने बग़दाद तथा मेसोपोटामिया पर अधिकार करने के पश्चात भारत पर आक्रमण करने का निर्णय लिया । हालाँकि उसके लड़ाके सैनिक भारत जैसे दूरस्थ देश में जाने को तैयार नहीं हुए परंतु तैमूर ने इस्लाम धर्म के प्रचार हेतु भारत में प्रचलित मूर्तिपूजा को ध्वस्त करना अपना परम लक्ष्य बताकर उन्हें मना लिया । अप्रैल 1398 में तैमूर एक विशाल सेना लेकर रवाना हुआ तथा सितम्बर 1398 में उसने सिंधु ,झेलम और रावी नदी पार करते हुए अक्टूबर 1398 में तुलुंबा पर कब्जा कर लिया । इसके पश्चात वह आगे बढ़ा ओर भटनेर पर कब्जा कर लिया । दुर्ग का घेरा डाला और धोखे से इस दुर्ग पर आक्रमण कर देता है (पहले थोड़ी-बहुत लूट के बाद भटनेर से चला जाता है पर जब भटनेर का शासक राव दुलचंद आश्वस्त हो जाता है की तैमूर चला गया लेकिन तैमूर वापिस आता है और धोखे से भटनेर पर दुबारा आक्रमण कर देता है ) । यहाँ तैमूर अत्यधिक लूट-पाट करता है और हजारों लोगों को क्रूरतापूर्वक मौत के घाट उतार देता है । तैमूर ने अपनी आत्मकथा में लिखा है की "मैंने भटनेर के तमाम लोगों को तलवार की धार से मौत के घाट उतार दिया,कुछ ही समय में लगभग दस हजार लोगों के सर काट दिए, इस प्रकार इस्लाम की तलवार ने काफिरों के रक्त से स्नान किया" । दुर्ग की हजारों हिन्दू -मुस्लिम औरतों ने अपनी अस्मत की रक्षा के लिए स्वंय को जौहर की आग में झोंक दिया ।

इसके अलावा कुतुबुद्दीन ऐबक, पृथ्वीराज चौहान मुगल शासक अकबर, मुगल शासक जहांगीर तथा राठौड़ शासकों ने भी भटनेर पर शासन किया । ऐसा माना जाता है की दिल्ली सल्तनत की एकमात्र महिला शासक रजिया सुल्तान को भटनेर दुर्ग में कुछ समय के लिए रखा गया ।

इस प्रकार यह भटनेर पर कई शासकों ने शासन किया और अंतिम बार बीकानेर के शासक सूरत सिंह ने 1805 ईसवी में भटनेर पर कब्जा कर लिया । दोस्तों महाराजा सूरत सिंह ने जिस दिन इस किले पर अधिकार किया उस दिन मंगलवार था यानि भगवान हनुमान जी का वार था बस उसी दिन से इस जगह को भटनेर की बजाय हनुमानगढ़  (प्राचीन नाम भटनेर) के नाम से जाने जाना लगा । इसी उपलक्ष में भटनेर दुर्ग में हनुमान मंदिर का निर्माण भी करवाया गया ।

दोस्तों भटनेर पर इतने अधिक विदेशी आक्रमण होने का कारण था इसका दिल्ली-मुलतान मार्ग पर स्थित होना । मध्य एशिया से जो भी आक्रांता दिल्ली पर आक्रमण करने के लिए आते उन्हें भटनेर किले का सामना करना पड़ता था ।यही कारण था कि भटनेर किले ने सबसे ज्यादा विदेशी आक्रमणों को झेला ।

भटनेर दुर्ग की वर्तमान स्थिति (Current situation of Bhatner)

दोस्तों वर्तमान में यह किला प्रशासन और पुरातत्व विभाग की अनदेखी के कारण जर्जर अवस्था में है । आज शायद किसी को इस प्राचीन धरोहर की जरूरत महसूस नहीं हो रही जबकि यह हमारे देश के हजारों वर्ष के इतिहास को संजोए हुए है । 1700 वर्षों से भी अधिक पुरानी ये इमारत इतनी आपदाओं को सहन करने के बाद भी आज खड़ी है, जिसका कारण है, तत्कालीन शासकों द्वारा इसका पुनर्निर्माण करना । यदि ऐसा न होता तो ये इमारत कभी की ढहकर खंडहर बन गई होती । आज ये दुर्ग इतनी जर्जर अवस्था में है की इसकी दीवारें कभी भी टूटकर नीचे आ सकती है । जान-माल का भी नुकसान हो सकता है क्योंकि किले के आस-पास बस्तियां हैं । यदि इस धरोहर को सलामत रखना है तो जल्द से जल्द हमें इसकी जर्जर अवस्था को सुधारने की दिशा में कदम उढ़ाने की आवश्यकता है ।


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