275 ई. में नल्लीयक्कोडन के पश्चात प्राचीन पाण्ड्य वंश पतन हो चुका था । लेकिन 6ठी शताब्दी के अंत मे 590 ई. के आसपास पाण्ड्य वंश का पुनरोदय होता है । वर्तमान में जो क्षेत्र तमिलनाडु के मदुरा व तिन्नेवेल्ली जिले में आता है वही क्षेत्र प्राचीन समय में पाण्ड्य राज्य के नाम से जाना जाता था । पाण्ड्य राज्य (Pandya kingdom) की राजधानी मदुरा/मदुरै/मदुरई थी जो तमिल संस्कृति व साहित्य का केंद्र थी ।
पाण्ड्य वंश के शासक (Pandya kingdom)
कुंडुगोन (590 ई.-620 ई.)
कुंडुगोन को पाण्ड्य वंश का पुनर्स्थापक माना जाता है । 590 में कुंडुगोन ने पांड्यों की बिखरी हुई शक्ति को पुनर्स्थापित किया । उसने कलभ्र नामक विदेशी जाती को पराजित कर मदुरा, तिन्नेवेल्ली एवं केरल के अधिकांश भागों पर अधिकार कर लिया था । अतः उसे इतिहास में 'पाण्ड्य वंश का द्वितीय संस्थापक' भी कहा जाता है । उसने मदुरा को अपनी राजधानी बनाया । वेल्विकुडी लेख में उसकी इस सफलता का उल्लेख मिलता है । इसके अलावा कुंडुगोन के शासन की जानकारी के कोई स्त्रोत नहीं हैं ।
माड़वर्मन अवनिशूलमणि (620 ई.-654 ई.)
'माड़वर्मन अवनिशूलमणि' कुंडुगोन का पुत्र था । इसके शासन के बारे में कोई विशेष जानकारी उपलब्ध नहीं है । ऐसा माना जा सकता है कि उसने अपने पिता कुंडुगोन के शासन क्षेत्र को बनाये रखा । उसने 620 ई. से 645 ई. तक शासन किया ।
शेन्दन/जयंतवर्मन (645 ई.-670 ई.)
जयंतवर्मन इस वंश का तीसरा शासक था । उसके शासन की अवधि 645 ई. से 670 ई. के बीच मानी जाती है । उसने चेर राज्य पर विजय प्राप्त की थी । इस विजय के उपलक्ष्य जयंतवर्मन ने 'वानवन' की उपाधि धारण की । वानवन चेर राजाओं की उपाधि हुआ करती थी ।
अरिकेसरी माड़वर्मन (670 ई.-700 ई.)
अरिकेसरी माड़वर्मन प्रारंभिक पाण्ड्य राज्यों के अन्य शासकों के मुकाबले एक महान एवं प्रतापी योद्धा था । प्रारम्भ में वह जैन धर्म का उपासक था लेकिन बाद में वह शैव उपासक बन गया । उसने चोल राजकुमारी मंगैपार-करसी के साथ विवाह किया । वह शैव उपासिका थीं । रानी के आग्रह पर शैव भक्त सम्बदर राजधानी मदुरा में आये थे । सम्बदर से प्रभावित होकर अरिकेसरी माड़वर्मन ने जैन धर्म का परित्याग कर शैव धर्म अपना लिया था । अरिकेसरी माड़वर्मन ने केरल व आसपास के पड़ोसी राज्यों को जीतकर अपने राज्य की सीमाओं का विस्तार किया ।
अरिकेसरी माड़वर्मन ने पड़ोसी राज्य बादमी के चालुक्यों के साथ मैत्री सम्बन्ध स्थापित कर लिए थे जो पल्लवों के कट्टर शत्रु थे । चालुक्यों की सहायता से उसने पल्लवों की बढ़ती शक्ति क्षीण किया । उसने चालुक्य नरेश विक्रमादित्य प्रथम की सहायता से तत्कालीन पल्लव नरेश परमेश्वरम प्रथम पर आक्रमण किया । हालाँकि इस आक्रमण से अरिकेसरी माड़वर्मन को कोई विशेष साम्राज्यिक लाभ नहीं मिला ।
कोक्काडैयन (700 ई.-730 ई.)
अरिकेसरी माड़वर्मन के पश्चात् लगभग 700 ई. में कोक्काडैयन (रणधीर) पाण्ड्य वंश का शासक बना । उसने वाणवन तथा शेम्बियम (शोलान) नामक कई उपाधियां धारण की थीं । उसे मदुर कर्नाटकन (मधुर कर्णाटक) तथा कोंगार-कोमान (कोंगु जनता का अधिपति) भी कहा जाता था । इन उपाधियों के अलावा कोई विशेष जानकारी इस शासक के बारे में उपलब्ध नहीं है ।
माड़वर्मन राजसिंह प्रथम (730 ई.-765 ई.)
कोक्काडैयन के पश्चात् लगभग 700 ई. में माड़वर्मन राजसिंह प्रथम पाण्ड्य वंश का शासक बना । उसने कुदाल , वंजी तथा कोली का पुनरुद्धार किया । उसने कोंगुऔं व भालाकोंगम को पराजित किया । मालव सेनापति ने भी उसके समक्ष आत्मसमर्पण कर दिया था । इसके बाद माड़वर्मन राजसिंह प्रथम ने गंग शासक श्रीपुरुष तथा चालुक्य नरेश कीर्तिवर्मन द्वितीय की संयुक्त सेना को वेनभई के युद्ध में पराजित किया था । इसके परिणामस्वरूप गंग सामन्त ने अपनी पुत्री का विवाह पाण्ड्य राजकुमार जटिल परांतक से कर दिया । उसने पल्लव-भंजन की उपाधि धारण की थी क्योंकि ऐसा माना जाता है कि उसने पल्लवमल्ल को भी युद्ध में पराजित किया था । माड़वर्मन राजसिंह प्रथम ने अनेकों बार गोसाहार, हिरण्यभार तथा तुलाभर यज्ञ करवाये थे ।
जटिल परांतक नेंडुजडैयन /वरगुण प्रथम (765 ई.-815 ई.)
माड़वर्मन राजसिंह प्रथम के बाद उसका पुत्र जटिल परांतक नेंडुजडैयन 765 ई. में पाण्ड्य वंश की गद्दी पर बैठा । वह पान्डेय वंश का सफल और महान शासक सिद्ध हुआ । उसने अनेकों शक्तिशाली राजाओं को पराजित कर एक महान साम्राज्य का निर्माण किया था । वेलविक्कुड़ी अभिलेख से ज्ञात होता है की उसने पेण्णागडम् (तंजौर के निकट) के युद्ध में पल्लव शासक नंदिवर्मन प्रथम तथा उसके सहयोगी नट्टक्कूरुम्बु के शासक आयवेल की संयुक्त सेना को पराजित किया था । उसने अपने सभी शत्रुओं को परास्त करने के पश्चात 'परांतक' की उपाधि धारण की । वह अपने समय में तमिल देश का सर्वाधिक पराक्रमी व प्रभावशाली शासक था ।
जटिल परांतक नेंडुजडैयन ने विद्यानुरागी व विद्वानों का महान सरंक्षक होने के कारण 'पण्डितवत्सल' की उपाधि धारण की । उसने अनेकों प्रकार के यज्ञ व दान-पुण्य किये । उसने कांजीवयप्पेरुर में एक विशाल विष्णु मंदिर का निर्माण करवाया एंव 'परम वैष्णव' की उपाधि धारण की । उसने करवंडपुरम (तीनेवली का कलक्काड) एक दुर्ग का भी निर्माण करवाया ।
श्रीमाड़ श्रीवल्लभ (815 ई.-862 ई.)
जटिल परांतक नेंडुजडैयन की मृत्यु के पश्चात उसका पुत्र श्रीमाड़ श्रीवल्लभ पाण्ड्य वंश का शासक बना । उसने श्रीलंका पर आक्रमण कर उसकी राजधानी को नष्ट कर दिया था । पल्लव नरेश नंदिवर्मन तृतीय ने उसे तेलारू में पराजित किया । लेकिन कुछ ही समय पश्चात श्रीमाड़ श्रीवल्लभ ने उसे कुंभमोजय के युद्ध में पराजित किया । पल्लव और पाण्ड्य नरेश में मध्य युद्ध का यह सिलसिला चलता रहा ओर कुछ ही समय पश्चात पुनः पल्लव नरेश नृपतुंग ने श्रीमाड़ श्रीवल्लभ को अरिचित के युद्ध में हरा दिया । धीरे-धीरे श्रीमाड़ श्रीवल्लभ की शक्ति कमजोर पड़ गई । श्रीलंका की सेना ने पांड्यों के राज्य पर हमला कर दिया और राजधानी मदुरा पर अधिकार कर लिया ।
इसने 'पराचक्रकोलहल' ,'एकवीर' तथा 'अवनियशेखर' आदि उपाधियां धारण कीं ।
वरगुणवर्मन द्वितीय (862 ई.-880 ई.)
श्रीमाड़ श्रीवल्लभ की मृत्यु के पश्चात उसका ज्येष्ठ पुत्र वरगुणवर्मन द्वितीय लगभग 862 ई. में पाण्ड्य वंश का शासक बना । वरगुणवर्मन द्वितीय ने पल्लवों की बढ़ती शक्ति को रोकने का प्रयास तो किया लेकिन पल्लव, चोल और गंग राज्यों की सम्मिलित सेनाओं ने पांड्य नरेश को श्रीयुरंबियम के युद्ध में पराजित किया । उसने लगभग 18 वर्षों तक शासन किया तत्पश्चात परांतक वीरनारायण ने उसे पाण्ड्य राजसत्ता अपदस्थ कर दिया ।
परांतक वीरनारायण (880 ई.-900 ई.)
वरगुणवर्मन द्वितीय को सत्ता से हटाने के बाद परांतक वीरनारायण ने पाण्ड्य शासन को अपने अधीन कर लिया । परांतक वीरनारायण ने कांगु प्रदेश तथा कावेरी के दक्षिणी भू-भाग को जीतकर अपने राज्य में मिला लिया था ।
माडवर्मन राजसिंह द्वितीय (900 ई.-920 ई.)
परांतक वीरनारायण के पश्चात माडवर्मन राजसिंह द्वितीय ने पाण्ड्य शासन की गद्दी संभाली । चोल शासक परांतक प्रथम(907 ई.-955 ई.) ने पाण्ड्य राज्य पर आक्रमण कर माडवर्मन राजसिंह द्वितीय को पराजित कर दिया ओर पाण्ड्य राज्य को अपने राज्य में मिला लिया । माडवर्मन राजसिंह द्वितीय ने भागकर सिंहलद्वीप में शरण ली । परंतु परांतक प्रथम ने सिंहलद्वीप पर भी आक्रमण कर दिया , हालांकि इसका उसे कोई लाभ नहीं मिला ।
चोलों के हाथों माडवर्मन राजसिंह द्वितीय की निरन्तर पराजय के कारण पांड्यों की शक्ति क्षीण होती चली गई । माडवर्मन राजसिंह द्वितीय की मृत्यु के पश्चात पाण्ड्य राज्य पर पूरी तरह से चोलों का वर्चस्व स्थापित हो गया ।
माडवर्मन राजसिंह द्वितीय की पराजय के बाद पाण्ड्य शासन एक बार फिर से पतन की गर्त में चला गया ओर एक लंबी अवधि ,लगभग 300 वर्षों तक (920 ई.-1190 ई.) पाण्ड्य चोलों के सामंत बनकर रह गए ।
12वीं शताब्दी में एक बार फिर से पांड्यों का वर्चस्व स्थापित हुआ । 1190 ई. से 1216 ई. के बीच जटावर्मन कुलशेखर ने पुनः पाण्ड्य राज्य की स्थापना की । 12वीं शताब्दी के अंत तक चोलों की स्थिति कमजोर पड़ने लगी । इसी स्थिति का लाभ उठाकर जटावर्मन कुलशेखर ने स्वयं को स्वतंत्र घोषित कर दिया । हालांकि उसका यह शासन ज्यादा समय तक टिक नहीं पाया ओर चोल नरेश कुलोत्तुंग तृतीय ने पुनः उस पर अधिकार कर लिया ।
जटावर्मन कुलशेखर के छोटे भाई माडवर्मन सुंदर पाण्ड्य (1216 ई.-1238 ई.) ने फिर से पाण्ड्य सत्ता को बनाने का प्रयत्न किया जिसमें उसे सफलता मिली । उसने चोल राज्य पर आक्रमण कर वर्तमान चिदम्बरम तक के क्षेत्र को विजित कर लिया था । किन्तु हयोसल वंश के शासक संभवतः वीर नरसिंह द्वितीय ने इसमें हस्तक्षेप कर इस क्षेत्र पर माडवर्मन सुंदर पाण्ड्य को अपने अधीन चोल शासन रखने तक सीमित कर दिया । कुछ समय पश्चात जब चोलों का शासक राजराज तृतीय हुआ तो उसने यहां से अपने आप को स्वतंत्र कर लिया । पाण्ड्य नरेश ने चोलों पर पुनः आक्रमण कर उन्हें पराजित कर दिया लेकिन पिछली बार की तरह इस बार भी हयोसल शासक के हस्तक्षेप की वजह से माडवर्मन सुंदर पाण्ड्य चोल राज्य स्थायी अधिकार नहीं बना सका ।
माडवर्मन सुंदर पाण्ड्य द्वितीय (1238 ई.-1251 ई.)
पाण्ड्य वंश का यह शासक चोल नरेश राजेंद्र तृतीय के हाथों पराजित हुआ । लेकिन इस बार हयोसल राजा ने हमेशा की तरह चोल राज्य का साथ नहीं दिया बल्कि इसके विपरीत उन्होंने पांड्यों का साथ दिया और चोल नरेश को मनमानी करने से रोका ।
जटावर्मन सुंदर पाण्ड्य प्रथम (1251 ई.-1268 ई.)
जटावर्मन सुंदर पाण्ड्य प्रथम अपने समय में पाण्ड्य वंश का सबसे महान शासक था । उसकी गणना दक्षिण भारत के प्रसिद्ध विजेताओं में की जाती थी । उसने चोल ,मैसूर व कोंगु राज्यों को पराजित कर अपने साम्राज्य में मिला लिया । उसने लगभग संपूर्ण दक्षिणी भारत का आधिपत्य स्थापित कर लिया था । जटावर्मन सुंदर पाण्ड्य प्रथम ने अपने शासनकाल में हयोसल व चेर शासकों के विरुद्ध अनेकों युद्ध किये जिसमे उसे लगभग सभी युद्धों में सफलता मिली । जटावर्मन सुंदर पाण्ड्य प्रथम ने अपने शासन के प्रारंभ में चेरों के विरुद्ध युद्ध में चेर शासक वीर रवि उदयमार्तड़ वर्मन व उसकी सेना को भारी क्षति पहुंचाई । उसने मलाईनाडु को पूरी तरह नष्ट कर दिया था ।
जटावर्मन सुंदर पाण्ड्य प्रथम सिंहल पर आक्रमण कर वहां से भारी मात्रा में मोती व हाथी प्राप्त किये । उसने काकतीय नरेश गणपतिदेव (रुद्रंमा देवी के पिता) को पराजित कर कांची के कुछ क्षेत्रों पर अधिकार कर लिया । इसके अलावा उसने हयोसल राज्य पर आक्रमण कर उनसे कावेरी का प्रदेश छीन लिया तथा कण्णान्नूर-कोप्पम् के दुर्ग पर अधिकार कर लिया । हयोसल राज्य के विरुद्ध उसने अनेकों युद्ध अभियान चलाये जिसमे उन्हें भरी नुकसान सहना पड़ा । उनके अनेकों सैनिक मारे गए व बड़ी संख्या में पांड्यों ने उनके हाथी, घोड़े ,धन व स्त्रियां को अपने कब्जे में कर लिया । हयोसल शासक वीर सोमेश्वर युद्ध क्षेत्र से भाग खड़ा हुआ । लेकिन कुछ समय पश्चात वीर सोमेश्वर ने फिर से पांड्यों के विरुद्ध युद्ध छेड़ दिया जिसमें वीर सोमेश्वर पाण्ड्य नरेश जटावर्मन सुंदर पाण्ड्य प्रथम के हाथों मारा गया । उसने चोल नरेश राजेन्द्र तृतीय को पराजित कर अपनी अधीनता स्वीकार करने के लिए विवश किया । इन महत्वपूर्ण युद्धों में जटावर्मन सुंदर पाण्ड्य प्रथम विजय दिलाने में जटावर्मन वीर पांड्य प्रथम ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई । जटावर्मन वीर पाण्ड्य प्रथम तथा जटावर्मन सुंदर पाण्ड्य द्वितीय उस समय में पाण्ड्य राज्य के उपराजाओं के रूप में थे ।
उसने श्रीरंगम तथा नैलोर में अपना अभिषेक कराया । उसने इन विजयों के उपलक्ष्य में कई उपाधियां धारण की जिनमें से एल्लांदलैयानान्, महाराजाधिराज श्री परमेश्वर, समस्त जगदाधार, मरकत पृथ्वीभृत, राजतापन , एम्मंडलमुम्-कोंडरुलिय आदि प्रमुख थीं । इन विजयों से प्राप्त धन को उसने श्रीरंगम व चिदम्बरम मंदिरों में दान व पुण्य के कार्यों में लगाया । उसने श्रीरंगम मंदिर को 18 लाख स्वर्ण मुद्राएं दी थीं ।
जटावर्मन वीर पाण्ड्य प्रथम (1253 ई.-1275 ई.)
जटावर्मन वीर पाण्ड्य प्रथम ने कई वर्षों तक जटावर्मन सुंदर पाण्ड्य प्रथम के उपराजा के रूप में राज्य किया । लेकिन बाद में वह पाण्ड्य राज्य का प्रमुख शासक बन गया । जटावर्मन वीर पाण्ड्य प्रथम के कई अभिलेख , तिन्नेवेल्ली,मथुरा, रामनाड, पुदुक्कोट्टइ,काँचीपुरम तथा कोयम्टूर से प्राप्त हुए हैं जिनसे ऐसा प्रतीत होता है की उसे जटावर्मन सुंदर पाण्ड्य प्रथम के साथ कई अभियानों में भाग लिया । इन अभिलेखों से ज्ञात होता है की उसने सिंहल (लंका), कोंगु व चोल राज्य पर विजय प्राप्त की तथा गंगा व कावेरी के तटों पर उसने अधिकार कर लिया था। ऐसा माना जाता है कि सिंहल के एक मंत्री ने उसे लंका पर आक्रमण करने का अनुरोध किया था ।
माडवर्मन कुलशेखर पाण्ड्य प्रथम (1268 ई.-1308 ई.)
माडवर्मन कुलशेखर पाण्ड्य प्रथम इस वंश का आखरी महत्वपूर्ण शासक था । माडवर्मन कुलशेखर पाण्ड्य प्रथम के समय उसके शासन से संबंद्धित सहयोगी उपराजा जटावर्मन् सुंदर पाण्ड्य द्वितीय ,जटावर्मन् सुंदर पाण्ड्य तृतीय, जटावर्मन् वीर पाण्ड्य द्वितीय और माडवर्मन विक्रम पांड्य आदि प्रमुख थे । उसने चोल, हयोसल ,सिंहल(लंका) तथा दक्षिण भारत के कई छोटे-बड़े राज्यों को पराजित किया तथा उन्हें अपने आधीन शासन करने के लिए विवश किया ।
1308 में उसकी मृत्यु के पश्चात सत्ता को लेकर पाण्ड्य वंश में गृह युद्ध छिड़ गया । पांड्यों की इस कमजोर स्थिति का लाभ उठाकर मुस्लिम आक्रांता अलाउद्दीन खिलजी के सेनापति मलिक काफूर ने मदुरा पर आक्रमण कर दिया और उसे बुरी तरह से लूट लिया । हालाँकि पाण्ड्य राजाओं की स्थिति बनी रही परन्तु चेर व काकतीय राजाओं ने पाण्ड्यों के कुछ भू-भाग पर अधिकार कर लिया था । वहां के कई सामंतों ने अपने आप को सवतंत्र घोषित कर दिया । पाण्ड्यों पर दूसरा मुस्लिम आक्रमण खुमरू खाँ के नेतृत्व में 1321 ई. में हुआ जिसके फलस्वरूप दिल्ली के सुलतान ने मदुरा में प्रान्त पाल की नियुक्ति कर दी । पाण्ड्यों का मदुरा, रामनाड, तंजोर, पुदुक्कोट्टइ और दक्षिणी आकटि पर अधिकार तब तक भी बना रहा लेकिन विजयनगर साम्राज्य की स्थापना के बाद मदुरा व बड़े महत्वपूर्ण क्षेत्र उनके हांथों से चले गए और उनका प्रभुत्व केवल तिन्नेवेल्ली तक ही सीमित रह गया । इस प्रकार पाण्ड्यों की स्थिति ना के बराबर हो गई थी हालांकि यह राजवंश 17 वीं शताब्दी तक बना रहा । 17 वीं शताब्दी के आरम्भ तक पाण्ड्य राजवंश का पूर्ण रूप से लोप हो गया ।
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