1857 की क्रांति ~ कारण, परिणाम एवं स्वरूप ~ Ancient India

1857 की क्रांति ~ कारण, परिणाम एवं स्वरूप

सन् 1857 की क्रांति भारतीय इतिहास की एक महत्त्वपूर्ण घटना है। भारत में अंग्रेजी राज्य की स्थापना छल-कपट व नीचता तथा शोषण से की गयी। 1857 तक लगभग सम्पूर्ण भारत पर अंग्रेजी शासन की स्थापना हो चुकी थी। यद्यपि ऊपरी तौर पर ऐसा लग रहा था कि भारतीयों ने ब्रिटिश शासन को पूर्ण धैर्य से स्वीकार कर लिया है लेकिन अन्दर ही अन्दर इस शान्त वातावरण के नीचे एक ऐसा ज्वालामुखी धधक रहा था जिसका भयानक विस्फोट लार्ड डलहौजी के भारत के जाने के एक वर्ष के भीतर ही फूट पड़ा।

1857 की क्रांति

1857 की क्रांति ने भारतीयों में राष्ट्रवाद की भावना का प्रसार किया और उन्हें एकता व संगठन का पाठ पढ़ाया । इस क्रांति से भारतीयों में सामाजिक चेतना भी जाग्रत हुई । 1857 की क्रांति ने भारतीय जनता में नवीन जोश का संचार किया । वास्तव में यह क्रांति हमारे देश की एक प्रेरणादायी घटना है जिसने पहली बार अंग्रेजी साम्राज्य की नींव हिला दी थी ।

यद्यपि अंग्रेजों की प्रतिक्रियावादी नीति के विरुद्ध भारत में समय-समय पर अनेक विद्रोह हुए लेकिन 1857 का विद्रोह ब्रिटिश सत्ता के विरुद्ध सबसे व्यापक विद्रोह था।

1857 की क्रांति के प्रमुख कारणों का वर्णन हम निम्नलिखित प्रकार से कर सकते हैं-

1857 की क्रांति के कारण

1857 की क्रांति के राजनीतिक कारण

1857 की क्रांति के राजनीतिक कारण लार्ड डलहौजी के द्वारा उत्पन्न किये गये थे । डलहौजी द्वारा गोद निषेध प्रथा लागू करने से भारतीय जनता उत्तेजित हो उठी थी । जिसके द्वारा अनेक भारतीय नरेशों के राज्य को समाप्त कर दिया गया था । कुछ पर कुशासन का आक्षेप लगाकर उनके राज्यों को हड़प लिया गया। झाँसी राज्य के अपहरण के बाद तो यह स्पष्ट हो गया था कि अंग्रेज साम्राज्यवाद के समक्ष शासकों के हित सुरक्षित नहीं रह सकते हैं।

अंग्रेजों द्वारा मुगल सम्राट के साथ किये गये व्यवहार से भी जनता क्रुद्ध हो उठी। देशी शासकों व भारतीय जनता के मन में अब भी मुगल सम्राट के प्रति श्रद्धा थी । अंग्रेजों ने अब उनकी प्रतिष्ठा पर प्रहार करना शुरू कर दिया। मुगल सम्राट को नजर देना व सम्मान देना बन्द कर दिया तथा सिक्कों से उसका नाम हटा दिया। सम्राट की इच्छा के विरुद्ध उसके सबसे निकम्मे पुत्र केयास को युवराज घोषित कर दिया और उसे एक अपमानजनक संधि करने के लिए बाध्य कर दिया जिसके अनुसार वह स्वयं को बादशाह घोषित नहीं करेगा तथा सिक्कों पर वे अपना नाम हटवा लेगा और लाल किला खाली कर देगा। 1 लाख के स्थान पर 15,000 रु. वार्षिक पेंशन स्वीकार करेगा। मुगल सम्राट के साथ किये गये इस दुर्व्यवहार का ही यह परिणाम था कि क्रान्तिकारियों ने क्रान्ति के साथ सम्राट को अपना नेता चुना था ।

भारतीयों की दृष्टि में अंग्रेज अजेय माने जाते थे। लेकिन प्रथम अफगान युद्ध के समय भारतीयों के मन में यह बात जम गयी थी कि यदि अफगानी अपनी स्वतंत्रता के लिए अंग्रेजों से टक्कर ले सकते हैं तो भारतीय क्यों नहीं। इसी समय यह अफवाह भी फैली कि रूस द्वितीय युद्ध का बदला लेने के लिए भारत पर आक्रमण कर सकता है। इससे भी भारतीय उत्साहित हुए। इसी समय एक ज्योतिषी ने भी भविष्यवाणी की कि भारत में 100 वर्षों के बाद अंग्रेजी राज्य समाप्त हो जायेगा। अब प्लासी के युद्ध को 1857 में 100 वर्ष पूरे हो गये थे जिससे क्रान्ति का उचित वातावरण तैयार हो गया।

प्रशासनिक सुधार

भारत में अंग्रेजों ने प्रारम्भ से ही प्रशासन में ही प्रशासनिक भेदभाव पूर्ण नीति अपनाई। लार्ड कार्नवालिस ने सदा भारतीयों को अविश्वास की दृष्टि से देखा और उच्च पदों से हमेशा अलग रखा। यद्यपि 1833 के चार्टर अधिनियम के द्वारा रंग भेद की नीति को खत्म कर दिया गया था और कम्पनी की सेवा में भारतीयों को लेने की घोषणा की गयी थी, लेकिन इस अधिनियम को कभी भी क्रियान्वित नहीं किया गया। न्यायिक क्षेत्र में भारतीय जजों की अदालत में अंग्रेजों का मुकदमा दायर नहीं किया जा सकता था। अंग्रेजों की न्याय प्रणाली को भारतीय ढंग से समझ नहीं पाये थे। इसमें अत्यधिक समय व धन नष्ट होता था और फिर भी अनिश्चितता बनी रहती थी। भू-राजस्व प्रणाली को छीनने के नाम पर हजारों लोगों की जमीनें छीन ली गयीं। लार्ड बैंटिक ने तो माफी की भूमि को भी नहीं छोड़ा। इस प्रकार कुलीन वर्ग को अपनी सम्पत्ति व आमदनी से हाथ धोना पड़ा। किसानों की दशा सुधारने के नाम पर स्थायी बन्दोबस्त, रैयतवाड़ी व महलवाड़ी जैसी व्यवस्थाओं को लागू किया गया और प्रत्येक बार किसानों से पहले से अधिक राजस्व कर वसूल किया गया।

भारत में कम्पनी की सर्वोच्चता स्थापित होने के साथ ही प्रशासन में एक शक्तिशाली ब्रिटिश अधिकारी वर्ग का विकास हुआ जो अपने आप को भारतीयों से पूरी तरह अलग रखता था। और उनके साथ कुत्तों से भी बदत्तर व्यवहार करता था। अंग्रेजों के इस प्रजाति भेदभाव से भारतीय क्रोधित हो उठे। लोगों का यही असंतोष व क्रोध अंग्रेजों के विरुद्ध 1857 की क्रांति के रूप में फूटा ।

1857 की क्रांति के सामाजिक कारण

1857 की क्रांति के कुछ सामाजिक कारण भी थे। अंग्रेजों द्वारा भारत की सामाजिक बुराइयों को दूर करने के प्रयासों का भारतीय सामाजिक जीवन पर गहरा प्रभाव पड़ा। पाश्चात्य शिक्षा से भारतीय जीवन की विशेषतायें समाप्त हो गयीं। भारतीयों का आभार प्रदर्शन, कर्तव्य तथा पारस्परिक सहयोग की भावना को अंग्रेजी शिक्षा ने समाप्त कर दिया। भारतीयों के सामाजिक जीवन, रहन-सहन व आदतों में पाश्चात्य रंग आ गया जिससे भारतीय जीवन के मूल तत्त्व ही नष्ट होने लगे। यद्यपि देश में सामाजिक जीवन को सुधारने की नितान्त आवश्यकता थी और जो सुधार किये गये थे वे भारतीयों के हित में थे, लेकिन रूढ़िवादी भारतीयों के लिए सामाजिक नियमों में अंग्रेजों का हस्तक्षेप असहनीय था। क्योंकि भारतीय यह मानते थे कि अंग्रेज उनकी संस्कृति को ही नष्ट करना चाहते हैं। रेल, डाक, तार आदि वैज्ञानिक प्रयोगों को भी अशिक्षित भारतीय जनता समझ नहीं पायी और इन्हें अपनी संस्कृति पर प्रहार मानने लगी।

भारतीय रेलगाड़ी की प्रथम श्रेणी में सफर नहीं कर सकते थे। अंग्रेजों द्वारा संचालित होटलों व क्लबों की तख्तियों पर लिखा होता था "कुत्तों व भारतीयों का प्रवेश वर्जित है"। अंग्रेजों की भारतीयों के प्रति मनोवृत्ति का अनुमान आगरा के मजिस्ट्रेट के इस आदेश से लगाया जा सकता है कि "किसी भी कोटि के भारतीय के लिए कठोर सजाओं की व्यवस्था करके उसे विवश किया जाना चाहिए कि वह सड़क पर चलने वाले प्रत्येक अंग्रेज को सलाम करे। यदि भारतीय घोड़े पर या गाड़ी पर चढ़ा हो तो नीचे उतर कर आदर प्रदर्शित करते हुए उस समय तक खड़े रहे जब तक कि अंग्रेज वहाँ से चला नहीं जाये।"

अंग्रेजों ने अपनी सभ्यता व संस्कृति के प्रसार के नाम पर यूरोपीय चिकित्सा पद्धति को भी प्रोत्साहित किया, जो भारतीय चिकित्सा विज्ञान से पूर्णतः विरुद्ध था। स्कूल, दफ्तर, अस्पताल और सेना पाश्चात्य सभ्यता के केन्द्र थे, इससे भारतीय संस्कृति की बड़ी दुर्दशा हुई। इन सब कारणों से भारतीयों के मन में अंग्रेजों के प्रति घृणा उत्पन्न हो गई और इस घृणा ने 1857 की क्रांति का रूप धारण कर लिया।

1857 की क्रांति के धार्मिक कारण

अंग्रेजों ने भारतीयों को ईसाइयत के रंग में रंगने का प्रयास किया। 1831 के चार्टर एक्ट के द्वारा मिशनरियों को इसाई धर्म के प्रचार की छूट दे दी गयी। ब्रिटिश संसद में बोलते हुए मेगल्स ने घोषणा की कि परमात्मा ने भारत का विस्तृत साम्राज्य ब्रिटेन को प्रदान किया है, ताकि इसाई धर्म की पताका भारत के एक छोर से दूसरे छोर तक लहरा सके। प्रत्येक व्यक्ति को अविलम्ब ही प्रत्येक भारतीय को इसाई बनाने के लिए अपनी पूरी शक्ति लगा देनी चाहिए।

इसाई धर्म प्रचारक बड़े उद्दण्डी थे। खुले रूप से हिन्दुओं के अवतारों व पैगम्बरों को गालियाँ देते थे और कुकर्मी कहकर उनकी निन्दा करते थे। सैनिक क्षेत्र में इसाई धर्म का प्रचार विशेष रूप से किया गया। इस कार्य के लिए पादरी लेफ्टीनेन्ट व मिशनरी कर्नल की नियुक्ति की जाती थी। भारतीय सैनिकों द्वारा इसाई धर्म ग्रहण करने पर पदोन्नति दी जाती थी। इसाई स्कूलों में पढ़ने वाले भारतीय बच्चे, विदेशी शिक्षा के कारण भारतीय धर्म की खुली आलोचना करने लगे।

इससे भारतीयों में यह विश्वास पैदा हो गया कि ये स्कूल भारतीयों को इसाई बनाने के साधन हैं। बेरोजगार, अकाल पीड़ितों, कैदियों, विधवाओं व अनाथों को तो बलपूर्वक इसाई बना लिया जाता था। अन्य लोगों को विभिन्न प्रकार के प्रलोभन दिये जाते थे। बैंटिक ने तो यह नियम बना दिया था कि इसाई बनने वाले भारतीयों को उनकी पैतृक सम्पत्ति से वंचित नहीं किया जायेगा। लार्ड कैनिंग ने तो धर्म प्रचार के लिए लाखों रुपये दिये। धार्मिक मामलों में अंग्रेजों के हस्तक्षेप ने 1857 की क्रांति की रूपरेखा तैयार की ।

1857 की क्रांति के आर्थिक कारण

अंग्रेजों ने भारतीयों का जितना राजनीतिक व सामाजिक शोषण किया, उससे ज्यादा आर्थिक शोषण किया। बंगाल में अंग्रेजों को दीवानी अधिकार प्राप्त हो जाने के बाद कुटीर उद्योग का विनाश आरम्भ हो गया। 1813 के चार्टर एक्ट के द्वारा निजी व्यापारियों को व्यापार का अधिकार प्राप्त हो जाने के बाद तो यह शोषण और भी तीव्र हो गया। अब इंग्लैण्ड निर्मित माल अत्यधिक मात्रा में भारत आने से भारतीय उद्योग धंधे नष्ट होने लगे। अंग्रेजों ने भारतीय व्यापार वाणिज्य व कुटीर उद्योग धंधे अपने हाथों में ले लिये जिससे भारत में निर्धनता नाम पर भू-व्यवस्था के सम्बन्ध में अनेक प्रयोग किये गये, लेकिन सभी में सरकार के हितों का विशेष ध्यान रखा जाता था। स्थायी बन्दोबस्त व रैयतवाड़ी व्यवस्था से भी किसानों पर विपरीत प्रभाव पड़ा, इनसे भी किसानों का शोषण करने की प्रवृत्ति का अन्त नहीं हुआ। उद्योग व व्यापार नष्ट होने से किसान कृषि पर निर्भर होने लगे, लेकिन कृषि भूमि के सीमित होने के कारण यहाँ भी उन्हें हानि का ही सामना करना पड़ा।

इस प्रकार ब्रिटिश शासन के अन्तर्गत लाखों लोगों को अपने रोजगार से हाथ धोना पड़ा। फलस्वरूप अंग्रेजों से सैनिक व असैनिक दोनों ही नाराज हो गये। इन बेरोजगारों ने जनता में घूम-घूम कर कम्पनी राज्य के विरुद्ध प्रचार किया जिसने 1857 की क्रांति का वातावरण तैयार किया।

1857 की क्रांति के सैनिक कारण

इस समय कम्पनी की सेना में 2,38,000 देशी व 45,322 अंग्रेज सैनिक थे। अधिकांश सैनिक अधिकारियों को सीमान्त प्रान्तों या नव विजित क्षेत्रों में प्रशासन के लिए भेज दिया जाता था। अंग्रेज सैनिकों की संख्या भारतीय सैनिकों की अपेक्षा नगण्य थी। अंग्रेजों की इस कमजोरी से भारतीय भली-भाँति परिचित थे।

1857 की क्रांति का तात्कालिक कारण

भारतीयों में यह दृढ़ विश्वास होता जा रहा था कि अंग्रेज भारतीय धर्म, रीति-रिवाजों व संस्कारों को नष्ट करना चाहते थे। ठीक ऐसे ही वातावरण में कारतूस वाली घटना हुई। ब्रिटेन में एक एनफील्ड रायफल का आविष्कार हुआ। इसमें एक विशेष प्रकार का कारतूस प्रयोग में लाया जाता था जिसे चिकना करने के लिए गाय व सूअर की चर्बी का प्रयोग होता था, इस कारतूस को रायफल में आरम्भ किया गया। लेकिन इस प्रकार के कारतूसों का प्रयोग भारतीयों के धर्म के विरुद्ध था। 26 फरवरी, 1857 को बरहामपुर के सैनिकों ने विद्रोह कर दिया। यद्यपि बाद में सैनिकों ने आज्ञा का पालन किया, लेकिन लार्ड कैनिंग ने इस टुकड़ी को ही भंग कर दिया, जिससे अन्य सैनिक टुकड़ियों में भी असन्तोष फैल गया। 29 मार्च, 1857 को मंगल पाण्डे नामक सैनिक ने गोली चला दी और विद्रोह का झण्डा खड़ा कर दिया। मंगल पाण्डे को बन्दी बना कर मृत्यु दण्ड की सजा दी गयी।

चर्बी वाले कारतूसों की अफवाह मेरठ में पहुँची। यहाँ का सैनिक अधिकारी कर माइकेल अत्यधिक साहसी था। उसने कारतूसों का प्रयोग न करने वाले सैनिकों को 5 वर्ष की सजा सुना दी और उन्हें अपराधियों के कपड़े पहनाकर बेड़ियाँ लगा दीं। 10 मई, 1857 को यहाँ भी विद्रोह उठ खड़ा हुआ।

1857 की क्रांति के परिणाम

1857 की क्रांति यद्यपि असफल रही, लेकिन इसके व्यापक प्रभाव हुए। अशोक मेहता के शब्दों में, "इसने हमारे राष्ट्रीय जीवन के प्रवाह को बदल दिया।" ईस्ट इण्डिया कम्पनी के भारत में प्रशासन की ओर इंग्लैण्ड की सरकार का ध्यान इस क्रान्ति ने आकर्षित किया तथा ईस्ट इण्डिया कम्पनी के शासन के स्थान पर भारत को सीधे ताज के अधीन कर दिया गया। सन्न 1857 की इस क्रांति के प्रमुख परिणाम निम्नलिखित थे- 

कम्पनी के शासन का अन्त

1857 की क्रांति के फलस्वरूप ब्रिटिश सरकार की नीति में महत्वपूर्ण परिवर्तन हुआ। 1858 ई. में कम्पनी का शासन समाप्त कर दिया गया तथा भारत का समस्त शासन इंग्लैण्ड के सम्राट को सौंप दिया गया।

फूट डालो और शासन करो की नीति का विस्तार

1857 की क्रांति के पश्चात् ब्रिटिश सरकार को अनेक शिक्षाएँ मिली। ब्रिटिश शासन को जमाये रखने के लिए अंग्रेजों ने फूट डालो और शासन करो की नीति को उपयोगी समझा। उन्होंने राजाओं, ज़मींदारों आदि को विशेष संरक्षण प्रदान किया और उन्हें जनसाधारण से अलग रखने का भरसक प्रयास किया। उन्होंने हिन्दू एवं मुसलमानों में फूट डालने की भी कोशिश की ताकि वे भविष्य में संगठित होकर अंग्रेजों का विरोध न कर सके।

भारतीय नरेशों के प्रति नीति में परिवर्तन

1857 की क्रान्ति के पश्चात् ब्रिटिश सरकार ने भारतीय नरेशों के प्रति उदारवादी नीति अपनाने का निश्चय किया। उन्हें आश्वासन दिया गया कि उनके राज्यों को ब्रिटिश साम्राज्य में सम्मिलित नहीं किया जायेगा। लार्ड डलहौजी के गोद निषेध के सिद्धान्त का परित्याग कर दिया गया तथा भारतीय नरेशों को पुत्र गोद लेने की अनुमति दी गई। जिन भारतीय नरेशों ने 1857 की क्रांति में अंग्रेजों का साथ दिया था, उन्हें बड़ी बड़ी उपाधियाँ दी गईं ।

यूरोपीय सैनिकों की संख्या में वृद्धि

1857 की क्रांति के पश्चात् अंग्रेजों ने भारत पर पुनः विद्रोह की आशंका को देखते हुए यूरोपीय सैनिकों की संख्या में वृद्धि करने का निश्चय किया। क्रान्ति से पूर्व भारतीय और यूरोपीय सेनाओं का अनुपात 6 : 1 का था लेकिन नई संगठित सेना में लगभग 2 : 1 का अनुपात ही रह गया। नई सेना में यूरोपीय सैनिक लगभग 72 हजार थे तथा भारतीय सैनिकों की संख्या 1,35,000 थी।

भारतीयों तथा अंग्रेजों में कटुता

1857 की क्रांति ने भारतीयों और अंग्रेजों के बीच कटुता उत्पन्न कर दी। अंग्रेजों ने क्रान्ति का दमन करने के लिए जो बर्बरतापूर्ण कार्य किये थे, इनसे भारतीय लोग बड़े नाराज थे। दूसरी ओर अंग्रेज भी भारतवासियों को विश्वासघाती समझने लगे। इस प्रकार दोनों जातियाँ एक-दूसरे को सन्देह एवं घृणा की दृष्टि से देखने लगीं।

हिन्दू-मुस्लिम मतभेदों में वृद्धि

विद्रोह के दौरान ही हिन्दुओं और मुसलमानों के पारस्परिक मतभेद उभरकर सामने आ गये। यद्यपि दोनों का लक्ष्य अंग्रेजी शासन को समाप्त करके अंग्रेजों को भारत से निकालने का था, फिर भी अनेक हिन्दू विद्रोहियों ने भारत में मुगल सत्ता की पुनः स्थापना का प्रयास पसन्द नहीं किया। मुसलमानों ने बड़ी आतुरता से बहादुरशाह को भारत का सम्राट घोषित कर दिया और विद्रोह में पूरे जोश के साथ भाग लिया। इसका परिणाम यह निकला कि विद्रोह की असफलता के बाद अंग्रेजों का दमन चक्र मुसलमानों पर अधिक चला और उन्हें ही विद्रोह के लिए उत्तरदायी ठहराया गया।

राष्ट्रवाद को प्रोत्साहन

1857 की क्रांति ने भारतीय राष्ट्रवाद को प्रोत्साहन दिया। इस क्रान्ति ने भारतीयों में राष्ट्रीय भावना का प्रसार किया और उन्हें एकता तथा संगठन का पाठ पढ़ाया। नाना साहब, झाँसी की रानी, बहादुरशाह आदि के त्याग और बलिदान से भारतीयों को प्रेरणा मिली और उनमें देश भक्ति, साहस आदि का संचार हुआ।

महारानी विक्टोरिया की घोषणा

1858 की महारानी विक्टोरिया की घोषणा के अनुसार भारतीय लोगों को पूर्ण धार्मिक स्वतन्त्रता का आश्वासन दिया गया। यह आश्वासन भी दिया गया कि भविष्य में भारतीय लोगों के धार्मिक विश्वासों एवं रीति-रिवाजों में किसी प्रकार का हस्तक्षेप नहीं किया जायेगा। इसके अतिरिक्त भारतीयों को बिना किसी जाति और रंग-भेद ऊँचे पदों पर नियुक्त करने का आश्वासन दिया।

भारतीय सेना का पुनर्गठन

1857 की क्रांति के परिणामस्वरूप भारतीय सेना का पुनर्गठन किया गया। भारतीय सैनिकों में जातिवाद एवं साम्प्रदायिकता को बढ़ाने के लिए एक जाति या सम्प्रदाय के सैनिकों को मिलाकर रेजीमेन्ट तैयार किये गये ताकि उनमें राष्ट्रीयता और एकता के भाव उत्पन्न न हो सके। इसके अतिरिक्त भारतीय सैनिकों को दूर छावनियों में रखा गया। ताकि वे जनसाधारण से सम्पर्क न कर सके।

भारतीयों को लाभ

1857 की क्रांति ने भारतीयों को कई प्रकार से लाभान्वित भी किया। ग्रिफिन के अनुसार, "भारत में 1857 के विद्रोह से अधिक सौभाग्यशाली घटना अन्य कोई नहीं घटी। इसने भारतीय गगन मण्डल को अनेक शंकाओं से मुक्त कर दिया।" विद्रोह के दमन के पश्चात् ब्रिटिश सरकार का ध्यान देश की आन्तरिक दशा सुधारने की ओर उन्मुख हुआ। भारत के इतिहास में यहीं से वैज्ञानिक विकास का सूत्रपात हुआ और धीरे-धीरे भारतीयों को अपने देश के शासन में भाग लेने का अवसर मिलने लगा। वास्तव में 1857 से भारत में आधुनिक युग का आरम्भ होता है।

1857 की क्रांति का स्वरूप

1857 के विद्रोह का स्वरूप क्या था। इस सम्बन्ध में विद्वानों में मतभेद हैं। अधिकांश ब्रिटिश लेखकों ने इसे मात्र सैनिक विद्रोह की संज्ञा दी है। कुछ अंग्रेज लेखकों ने इसे हिन्दू व मुसलमानों का षड्यन्त्र भी बताया है। इन विचारों के अतिरिक्त वीर विनायक दामोदर सावरकर ने इसे प्रथम स्वतन्त्रता संग्राम कहा है।

सैनिक विद्रोह

सर जान सीले के अनुसार 1857 की क्रांति पूर्णत अन्तर्राष्ट्रीय व स्वार्थी सैनिकों का विद्रोह मात्र था। सर लारेन्स ने भी इसे मात्र सैनिक विद्रोह ही बताया है। 1957 में विद्रोह की पहली शताब्दी मनायी गयी और इस अवसर पर सरकार की ओर से अन्य शोधकर्ताओं के द्वारा इस विप्लव पर पुनः विचार किया गया। सुरेन्द्र नाथ सेन ने अपनी पुस्तक में लिखा है कि आन्दोलन एक सैनिक विद्रोह के रूप में आरम्भ हुआ। लेकिन सेना तक ही सीमित नहीं रहा। नाथूराम खडनावत ने इस पर पर्याप्त प्रकाश डालते हुए लिखा है कि इस विद्रोह में जनता ने प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्ष रूप से भाग लिया।

मुस्लिम सत्ता की पुनः स्थापना का प्रयास

डॉ. स्मिथ की दृष्टि में 1857 का विद्रोह भारतीय मुसलमानों का षड्यन्त्र था जो पुनः मुगल सम्राट के नेतृत्व में मुस्लिम सत्ता स्थापित करना चाहते थे। विद्रोह के बाद जीनत महल ने भी भारत के देशी राजाओं को जो पत्र लिखे उनमें मुगल सम्राट के नेतृत्व में अंग्रेजों को बाहर निकालने की बात कही गयी थी। लेकिन इस क्रान्ति में केवल भारत के 1/3% मुसलमानों ने भाग लिया था इसके अतिरिक्त नाना साहब, तांत्या टोपे, रानी लक्ष्मी बाई व अवध के ताल्लुकोदारों ने भी विद्रोह का संचालन किया था। अतः इसे केवल मुस्लिम षड्यन्त्र नहीं कहा जा सकता।

सामन्तवादी प्रतिक्रिया

इतिहासकार मालेसन ने इसे जागीरदारों द्वारा अपने शासकों के विरुद्ध सामन्ती प्रतिक्रिया कहा है। अंग्रेजों की दूषित राजस्व व्यवस्था के विरुद्ध अनेक सामन्त अपनी जागीरों से हाथ धो बैठे थे। अतः इन लोगों में अंग्रेजों के विरुद्ध रोष उत्पन्न होना स्वाभाविक था। ऐसे सामन्तों ने क्रान्तिकारियों का साथ देकर उसे आगे बढ़ाया लेकिन मुट्ठी भर सामन्तों द्वारा क्रान्ति में भाग लेने से ही इसे सामन्तवादी प्रतिक्रिया कहा था।

प्रथम स्वतन्त्रता संग्राम

पट्टाभिसीतारमैया के अनुसार 1857 का महान् आन्दोलन प्रथम स्वतन्त्रता संग्राम था। अशोक मेहता ने अपनी पुस्तक 'द ग्रेट रिवोल्ट' में यह सिद्ध करने का प्रयास किया है कि यह एक राष्ट्रीय विद्रोह था।

पं. जवाहरलाल नेहरू ने लिखा है कि यह केवल एक सैनिक विद्रोह नहीं था बल्कि इसका विस्फोट सैनिक विद्रोह के रूप में हुआ था। क्योंकि यह विद्रोह शीघ्र ही जनविद्रोह के रूप में परिणित हो गया। 

सुरेन्द्रनाथ सेन लिखते हैं कि जो युद्ध धर्म के नाम पर आरम्भ हुआ था, स्वतन्त्रता युद्ध के रूप में जाकर समाप्त हुआ क्योंकि इस बात में कोई सन्देह नहीं कि विद्रोही विदेशी शासन से मुक्ति चाहते थे। वे पुनः पुरातन व्यवस्था स्थापित करने के इच्छुक थे, जिसका प्रतिनिधित्व दिल्ली के बादशाह ने किया था।

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