पानीपत का तृतीय युद्ध ~ कारण एंव परिणाम ~ Ancient India

पानीपत का तृतीय युद्ध ~ कारण एंव परिणाम

14 जनवरी, 1761 ई. को मराठों तथा अफगान आक्रमणकारी अहमदशाह अब्दाली के बीच पानीपत का तृतीय युद्ध हुआ । यह एक निर्णायक युद्ध था जिसमें मराठों की पराजय हुई ।

पानीपत का तृतीय युद्ध

पानीपत के तृतीय युद्ध के क्या कारण थे आईये इन्हें निम्नलिखित बिंदुओं के द्वारा समझते हैं:-

पानीपत के युद्ध के कारण व परिस्थितियाँ  

मुगल साम्राज्य की दुर्बलता

अहमदशाह अब्दाली के भारत पर आक्रमण करने से पूर्व मुगल साम्राज्य की दशा अत्यन्त शोचनीय थी। मुगल सम्राटों की अयोग्यता एवं दुर्बलता कारण मुगल साम्राज्य का गौरव एवं वैभव मिट्टी में मिल चुका था। केन्द्रीय शासन की दुर्बलता के कारण अवध, बिहार, बंगाल, उड़ीसा, मालवा तथा दक्षिण के प्रान्त मुगल साम्राज्य से पृथक् होकर स्वतन्त्र हो गये थे। इस प्रकार की परिस्थितियाँ अहमदशाह अब्दाली के लिए भारत पर आक्रमण करने के लिए अनुकूल बनी हुई थीं।

मराठों की विदेश नीति

मराठों की विदेश नीति के तीन प्रमुख सिद्धान्त थे:-
  • (i) आर्थिक हितों की पूर्ति करना।
  • (ii) मराठा-शक्ति का प्रसार एवं मराठा-प्रभुत्व की स्थापना करना ।
  • (iii) हिन्दू तीर्थ स्थानों को मुस्लिम शासकों से मुक्त कराना।
मराठों की उपर्युक्त विदेश नीति अहमदशाह अब्दाली से संघर्ष मोल लेने के लिए उत्तरदायी थी। मराठों ने 1752 ई. में मुगलों से एक सन्धि भी की जिसके अनुसार उन्होंने आन्तरिक विद्रोहों और बाह्य आक्रमणकारियों से मुगल साम्राज्य की रक्षा करना स्वीकार कर लिया। मराठों की इस प्रकार की विदेश नीति के फलस्वरूप अहमदशाह अब्दाली तथा रुहेले पठान मराठों के प्रबल शत्रु बन गए।

अहमदशाह अब्दाली का भारत की राजनीति में हस्तक्षेप

अहमदशाह अब्दाली एक पराक्रमी योद्धा एवं महत्त्वाकांक्षी शासक था। नादिरशाह का उत्तराधिकारी होने के नाते वह पंजाब, मुल्तान आदि प्रदेशों पर अधिकार कर लेना चाहता था क्योंकि ये प्रदेश नादिरशाह के राज्य के अंग रह चुके थे। इसके अतिरिक्त अहमदशाह अब्दाली को अपने सैनिक अभियानों के लिए विपुल धनराशि की आवश्यकता थी। इस कारण भी वह भारत पर आक्रमण करने के लिए उत्सुक था।
1748 ई. में अहमदशाह अब्दाली ने पंजाब पर आक्रमण किया और लाहौर पर अधिकार कर लिया परन्तु इसी समय दिल्ली के वजीर कमरुद्दीन की सेना ने मानपुर नामक स्थान पर अब्दाली को पराजित किया। अब्दाली अपनी पराजय के अपमान को सहन न कर सका। 1749 में अहमदशाह अब्दाली ने पंजाब पर पुनः आक्रमण किया और वहाँ के सूबेदार मीर मन को अधीनता स्वीकार करने के लिए बाध्य किया।

मुगल-मराठा सन्धि से अब्दाली का नाराज होना

12 अप्रैल, 1752 को मुगल वजीर सफदरजंग तथा मराठों के बीच एक सन्धि हुई जिसके अनुसार मराठों ने यह वचन दिया कि वे आन्तरिक विद्रोहों तथा बाह्य आक्रमणकारियों से मुगल साम्राज्य की रक्षा करेंगे। इसके बदले में मराठों को 50 लाख रुपये दिये जायेंगे तथा उन्हें पंजाब, सिन्ध और दोआब से चौथ वसूल करने का अधिकार भी दिया जायेगा। इस प्रकार मराठे मुगल साम्राज्य के संरक्षक बन गए। अब उत्तरी भारत की राजनीति में मराठों का हस्तक्षेप बढ़ गया जिससे मुस्लिम शासक बड़े चिन्तित हुए। इस सन्धि के कारण अहमदशाह अब्दाली, रुहेले, पठान तथा राजपूत मराठों से नाराज हो गए। इस सन्धि के फलस्वरूप मराठों तथा अहमदशाह अब्दाली के बीच शत्रुता उत्पन्न हो गई तथा अब्दाली ने मराठों की शक्ति को कुचलने का निश्चय कर लिया।

मुगल दरबार में गुटबन्दी

मुगल सम्राट की दुर्बलता के कारण दिल्ली दरबार में दो परस्पर विरोधी दल बने हुए थे। एक दल भारतीय मुसलमानों का था तथा दूसरा दल तूरानी (विदेशी) मुसलमानों का था। ये दोनों दल मुगल सम्राट् पर अपना नियन्त्रण बनाये रखना चाहते थे। इसके लिए भारतीय मुसलमानों ने मराठों का सहयोग प्राप्त किया तो विदेशी मुसलमानों ने अहमदशाह अब्दाली का समर्थन प्राप्त कर लिया। अहमदशाह अब्दाली तथा मराठे दोनों ही दिल्ली की राजनीति में हस्तक्षेप करने लगे जिसके फलस्वरूप दोनों पक्षों के बीच कटुता बढ़ती गई। 1757 ई. में अब्दाली ने भारत पर आक्रमण किया और वापिस लौटते समय नजीब खाँ को मीर बख्शी नियुक्त कर गया। परन्तु अब्दाली के लौटने के बाद मराठों ने नजीब खाँ को अपदस्थ कर दिया और उसके स्थान पर अहमदशाह बंगश को मीर बख्शी नियुक्त कर दिया। इससे अब्दाली और मराठों के बीच शत्रुता उत्पन्न हुई।

भारतीय पठानों की मराठों के प्रति शत्रुता

रुहेलखण्ड के रुहेले तथा दोआब के पठान मुगलों के प्रबल शत्रु थे। वे भारत में पठानों का प्रभुत्व स्थापित करना चाहते थे। जब 1750 में रुहेलों ने मुगलों को पराजित कर दिया तो मुगल वजीर सफदरजंग ने मराठों से रुहेलों के विरुद्ध सहायता देने की प्रार्थना की। उसने मराठों से एक सन्धि कर ली जिसके अनुसार मराठों ने मुगलों की सहायता करना स्वीकार कर लिया। अतः मराठों ने रुहेलों तथा पठानों पर आक्रमण किया और उन्हें फर्रुखाबाद के निकट बुरी तरह से पराजित किया। इस युद्ध में लगभग 10 हजार रुहेले मारे गए। इस घटना से मराठों तथा रुहेलों के बीच शत्रुता चरम सीमा पर पहुँच गई। अतः रुहेलों के नेता नजीब खाँ ने मराठों की शक्ति के दमन के लिए अहमदशाह अब्दाली को भारत पर आक्रमण करने के लिए आमन्त्रित किया।

अहमदशाह अब्दाली को भारत पर आक्रमण के लिए आमन्त्रित करना

मराठी विरोधी शक्तियाँ उत्तरी भारत में मराठों के बढ़ते हुए प्रभाव से बड़ी चिन्तित थीं। अतः उन्होंने मराठों के दमन के लिए अहमदशाह अब्दाली को भारत पर आक्रमण करने का निमन्त्रण दिया। इनमें वसीउल्लाह, नजीब खाँ, मुगलानी बेगम आदि प्रमुख थे। वसीउल्लाह एक धर्मान्ध मुस्लिम नेता था। उसने इस्लाम धर्म को खतरे में बतलाया तथा भारतीय मुसलमानों की रक्षा के लिए अहमदशाह अब्दाली को भारत पर आक्रमण करने के लिए आमन्त्रित किया। पंजाब के सूबेदार मीर मन्नू की विधवा मुगलानी बेगम भी मराठों तथा मुगलों से परेशान थी। उसने भी अहमदशाह अब्दाली को भारत पर आक्रमण करने का निमन्त्रण देते हुए आश्वासन दिया कि उसे भारत में अतुल धन-सम्पत्ति प्राप्त हो सकेगी। इसी प्रकार रुहेलों के नेता नजीब खाँ ने भी अहमदशाह अब्दाली को भारत पर आक्रमण करने के लिए आमन्त्रित किया।

अहमदशाह अब्दाली के अभियान

जुलाई 1759 में अहमदशाह अब्दाली ने अपने सेनापति जहान खाँ को लाहौर पर अधिकार करने के लिए भेजा और स्वयं अब्दाली ने पेशावर में डेरा डाल दिया। परन्तु जहान खाँ मराठों के हाथों पराजित हो गया। इस पर अब्दाली ने लाहौर पर आक्रमण कर सबाजी सिन्धिया को पराजित कर दिया। इसी बीच मुगल सम्राट आलमगीर द्वितीय की हत्या कर दी गई तथा शाहजहाँ सानी को दिल्ली की गद्दी पर बिठाया गया। इससे अब्दाली बड़ा क्रुद्ध हुआ और उसने दिल्ली की ओर प्रस्थान किया। 10 जनवरी, 1760 ई. को दत्ताजी सिन्धिया तथा अहमदशाह अब्दाली की सेनाओं के बीच दिल्ली से 10 मील दूर बरारी घाटी पर भीषण युद्ध हुआ जिसमें मराठों को पराजय का मुँह देखना पड़ा। अतः पेशवा बालाजी बाजीराव ने सदाशिव भाऊ के नेतृत्व में एक विशाल सेना अहमदशाह अब्दाली के विरुद्ध भेजी। अहमदशाह अब्दाली व मराठा सेना के बीच पानीपत के मैदान में घमासान युद्ध हुआ जिसे भारतीय इतिहास में पानीपत का तृतीय युद्ध कहते हैं।

युद्ध की घटनाएँ

14 जनवरी, 1761 को पानीपत में अहमदशाह अब्दाली तथा मराठों के बीच भीषण युद्ध हुआ। सर जदुनाथ सरकार के अनुसार मराठा सैनिकों की संख्या 45,000 तथा अब्दाली के सैनिकों की संख्या 60,000 थी। युद्ध का प्रारम्भ प्रातः 9 बजे गोलाबारी से हुआ। कुछ घण्टों तक मराठों ने जमकर युद्ध लड़ा। इब्राहीम गार्दी के तोपखाने ने अब्दाली को बहुत हानि पहुँचाई। सदाशिवराव व सिन्धिया ने भीषण प्रहार किये, लेकिन 5 घण्टों के युद्ध के बाद मराठे थक गये। इसी समय अब्दाली ने अपनी सुरक्षित सेना को भी युद्ध में झोंक दिया लेकिन संयोगवश विश्वासराव की मृत्यु के बाद सदाशिवराव भी अन्धाधुंध लड़ता हुआ मारा गया। होल्कर ने अन्त तक युद्ध में भाग लिया और स्थिति को प्रतिकूल भाँप कर मैदान से भाग खड़ा हुआ। इब्राहीम गार्दी व जनकोजी सिन्धिया को तथा हजारों भागते हुए सैनिकों को बन्दी बना लिया गया। भीषण हत्याकाण्ड के बाद अब्दाली और उसके समर्थकों को मराठों पर पूर्ण विजय प्राप्त हुई।

पानीपत में मराठों की पराजय के कारण


यद्यपि पानीपत के इस युद्ध में मराठों को पराजय के अनेक कारण उत्तरदायी थे लेकिन प्रो. एच. आर. गुप्त निम्नलिखित कारणों को सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण मानते हैं।

प्रतिद्वन्द्वी सेनानायक

निःसन्देह सदाशिवराव भाऊ एक महान् वं पराक्रमी सेनानायक था। दक्षिण के अनेक युद्धों में उसने शानदार सफलताएँ भी प्राप्त की थीं। लेकिन उसे उत्तरी भारत के मामलों व यहाँ की भौगोलिक स्थिति की पूरी जानकारी नहीं थी। जबकि अब्दाली सदाशिव अधिक अनुभवी व रणकुशल सेनानायक था। वह कुछ दूरी से पूर्ण शान्ति के साथ युद्ध का नेतृत्व करता रहा और अन्तिम दाव के लिए 10,000 सैनिकों को एक दस्ता सुरक्षित रख छोड़ा था। इसी सुरक्षित दस्ते ने युद्ध का पासा पलट दिया था।

प्रतिद्वन्द्वी नायक

अब्दाली के पास जहान खाँ, शाह पसन्द खाँ, अताई खाँ, करीम खाँ, शाह वली खाँ, नजीब खाँ आदि सेनानायक थे जो एक से बढ़कर एक थे लेकिन सदाशिव राव के पास इनकी टक्कर का एक भी योद्धा नहीं था। मल्हार राव होल्कर व सिन्धिया अनेक अवसरों पर अब्दाली के हाथों परास्त होकर अपना आत्मविश्वास खो चुके थे । होल्कर पर तो यह भी आरोप लगाया गया कि वह पहले से ही नजीब खाँ व शाह पसन्द खाँ से साठ-गाँठ किये हुए था।

प्रतिद्वन्द्वी सेनाएं 

मराठा सेना सामन्तवाद के दूषित रोग से पीड़ित थी। आपस में लड़ने वाले तथा प्रतिद्वन्द्विता रखने वाले सेनानायकों के नेतृत्व में मराठा सेना अपना अनुशासन खो चुकी थी। यहाँ तक कि मराठा सेना को मासिक वेतन भी नहीं चुकाया जाता था और सेना लूटमार के धन से ही अपना गुजारा करती थी जबकि अब्दाली की सेना पूर्णत: अनुशासित थी। अफगान सेनानायकों में एकता थी। सम्पूर्ण अफगान सेना एक सर्वोच्च सेनानायक के नेतृत्व में चलती थीं। अफगान सेना में अनुशासनहीन व अवज्ञाकारी सेनानायकों को कठोर सजा दी जाती थी।

सैनिक शिविरों की स्थिति

पानीपत के मैदान में भाऊ का शिविर भीड़भाड़ से भरा हुआ था, जिसमें मराठा अधिकारियों की पत्नियाँ, रखैलें, नौकरानियों के अलावा दक्षिणी भारत से आने वाले असंख्य नर-नारी शामिल थे। इसके अलावा हजारों जानवरों की उपस्थिति भी कठिनाई सिद्ध हुई। युद्ध में भाग लेने वाले मराठा सैनिकों की संख्या भी कम थी। वे अब्दाली के 1,00,000 सैनिकों के मुकाबले केवल 45,000 सैनिक ही जुटा पाये।

खाद्यान्न व्यवस्था

खाद्यान्न की अपर्याप्त व्यवस्था भी मराठों की पराजय का एक प्रमुख कारण थी। दक्षिण भारत से कूच करते समय से लेकर युद्ध तक मराठों को इस समस्या का लगातार सामना करना पड़ा था। मराठा शिविर में भुखमरी की स्थिति पैदा हो गयी। भूखों मरने की अपेक्षा युद्ध में वीरगति प्राप्त करना अच्छा मानकर भाऊ को अचानक युद्ध करने का निर्णय लेना पड़ा। जबकि इसके विपरीत भारतीय मुसलमानों की सहायता मिलने के कारण अब्दाली को खाद्य पदार्थों की कभी कमी नहीं रही। सर यदुनाथ सरकार का कहना है कि पानीपत के मैदान पर जिस मराठा सेना ने अफगानों का सामना किया था वह अधमरे देशी टट्टुओं पर भूख से पीड़ित कमर झुकाये सैनिकों का झुण्ड था।

तोपखाना

मराठों के पास भारी वजन की तोपें थीं, जिन्हें इधर-उधर घुमाना कोई आसान काम नहीं था। युद्ध के प्रत्यक्षदर्शी इतिहासकार काशीराज का कहना है कि उनके गोले अफगान सैनिकों के ऊपर से होते हुए लगभग 1 मील की दूरी पर पार्श्व में गिरते थे। बारूद की कमी के कारण इन तोपों का सही उपयोग भी नहीं हो पाया था। जबकि अब्दाली का तोपखाना हल्का व गतिशील था। उसने हल्की तोपों को ऊँटों पर लदवा दिया जिन पर बैठे 50 तोपचियों ने मराठों की कमर तोड़ कर रख दी। अफगान सैनिक आग्नेय अस्त्रों के प्रयोग में मराठा सैनिकों की अपेक्षा श्रेष्ठ थे।

गम्भीर भूलें

पानीपत में मराठों की पराजय के लिए उनके द्वारा समय-समय पर की गयी गम्भीर भूलें भी कम उत्तरदायी नहीं थीं। कुंजपुरा की तरफ अभियान पर जाते समय भाऊ ने दिल्ली की सुरक्षा के लिए किसी भी योग्य सेनानायक को नियुक्त नहीं किया, जिससे अब्दाली ने दिल्ली पर अधिकार कर लिया और मराठों का दक्षिण से सम्पर्क तोड़ दिया। यमुना नदी के पुल की सुरक्षा के सम्बन्ध में भी भाऊ ने कोई ध्यान नहीं दिया जिससे अब्दाली को यमुना पार करने में कोई परेशानी नहीं हुई भाऊ की योजना अब्दाली को घेरकर उसे भूखा मारने की थी लेकिन वह स्वयं ही इस स्थिति में फँस गया। इस पर भी उसने स्थिति का सही मूल्यांकन नहीं किया और व्यर्थ ही समय नष्ट करता रहा भाऊ युद्ध के लिए कोई ठोस योजना नहीं बना पाया।

पानीपत के युद्ध का अन्तिम कारण सदाशिव राव भाऊ द्वारा अपना संयम खो देना था। पेशवा के पुत्र विश्वासराव के मरते ही भाऊ अपना संयम खो बैठा भाऊ ने अपना संयम खो दिया और बिना आगे-पीछे देखे वह शत्रु सेना में घुसता चला गया और मारा गया। 

पानीपत युद्ध के परिणाम

पानीपत के तृतीय युद्ध के परिणामों का उल्लेख निम्न प्रकार से किया सकता है-

धन-जन की अपार हानि

पानीपत के तृतीय युद्ध में मराठों को अपार धन-जन की हानि उठानी पड़ी। इस युद्ध में अनेक मराठा सरदार विश्वासराव, सदाशिव भाऊ, इब्राहीम गार्दी, जनकोजी, जसवन्तराव पंवार आदि मारे गये। प्रो. एस. आर. शर्मा के अनुसार "इस युद्ध में 28000 मराठे मारे गये, 22000 बन्दी बना लिये गये तथा 5,000 भगदड़ के समय मारे गये।"

मराठों की शक्ति का क्षीण होना

पानीपत की पराजय के फलस्वरूप मराठों की शक्ति क्षीण हो गई। अब तक मराठे अजेय माने जाते थे, परन्तु पानीपत की पराजय ने इस विश्वास को समाप्त कर दिया। अब मराठे अन्य जातियों को संरक्षण देने की स्थिति में नहीं रहे।
डॉ. ए. एल. श्रीवास्तव का कथन है कि "मराठा सेनाओं की जो अब तक अजेय समझी जाती थी, सेना सम्बन्धी तथा राजनीति सम्बन्धी प्रसिद्धि समाप्त हो गई। 1761 ई. के पश्चात् भारतीयों ने अब यह नहीं सोचा था कि मराठे मित्रता के योग्य हैं क्योंकि पिछले चार वर्षों में उन्होंने जो किया था, उससे वे अपनी रक्षा योग्य नहीं रह गये थे। आश्रितों की रक्षा का तो कुछ कोई सवाल ही नहीं था।"

मुगल साम्राज्य के पतन का मार्ग प्रशस्त होना

पानीपत के तृतीय युद्ध के पश्चात् मुगल साम्राज्य नष्ट होता चला गया। मुगलसम्राट नाम मात्र का सम्राट रह गया। मराठों की शक्ति का ह्रास होने के कारण अंग्रेजों ने मुगल दरबार में अपना प्रभुत्व स्थापित करना प्रारम्भ कर दिया जिसके कारण मुगल साम्राज्य का विघटन प्रारम्भ हो गया। इस प्रकार पानीपत के तृतीय युद्ध ने मुगल साम्राज्य के पतन की पृष्ठभूमि तैयार की।

मराठा संघ में एकता की समाप्ति

पानीपत की पराजय ने मराठा संघ की एकता को प्रबल आघात पहुँचाया। शक्तिशाली मराठा सरदार अपनी मनमानी करने लगे और अपने अपने राज्यों में अपनी शक्ति तथा प्रभाव बढ़ाने लगे। इसके फलस्वरूप मराठा संघ की शक्ति छिन्न-भिन्न हो गई। रघुनाथराव उर्फ राघोबा ने पेशवा पद प्राप्त करने के लिए षड्यन्त्रों को जन्म देना प्रारम्भ कर दिया।

अंग्रेजों के प्रभुत्व वृद्धि

पानीपत के तृतीय युद्ध के कारण मराठा शक्ति क्षीण हो में गई अतः अब दक्षिण भारत में कोई ऐसी शक्ति शेष नहीं रही जो अंग्रेजों की बढ़ती हुई महत्त्वाकांक्षा को रोकने का कार्य कर सके। इस प्रकार पानीपत के तृतीय युद्ध ने अंग्रेजों को अप्रत्यक्ष रूप से लाभ पहुँचाया। डॉ. सरदेसाई के अनुसार यह बड़ी महत्त्वपूर्ण बात है कि जिस समय मराठे और मुसलमान प्राचीन कुरुक्षेत्र में घोर युद्ध में जूझ रहे थे, उस समय ब्रिटिश राज्य का प्रथम निर्माता लार्ड क्लाइव ब्रिटेन के तात्कालिक प्रधानमंत्री को भारत में साम्राज्य के सम्भावित स्वप्न को समझाने के लिए इंग्लैण्ड की ओर दौड़ा जा रहा था। वास्तव में उस ऐतिहासिक घटना का यही सीधा परिणाम हुआ, जिसने भारतीय इतिहास का प्रवाह दूसरी ओर मोड़ दिया।"
इस प्रकार पानीपत के तीसरे युद्ध ने भारतवर्ष के भाग्य का निर्णय कर दिया। इस भयंकर युद्ध में मराठों और मुसलमानों ने एक-दूसरे को शक्तिहीन करके अंग्रेजों को भारत में श्रेष्ठ स्थान प्राप्त करने में सहायता दी। इसलिए यह कहना ठीक है कि पानीपत का तृतीय युद्ध निर्णायक युद्ध था।
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