Pala dynasty ~ पाल वंश का इतिहास ~ Ancient India

Pala dynasty ~ पाल वंश का इतिहास

मध्यकालीन भारत के इतिहास में पाल साम्राज्य एक महत्वपूर्ण शासन था । पाल वंश ने पूर्वी भारत में कई वर्षों (750-1174 ई.) तक शासन किया । पाल वंश की उत्पति के सम्बन्ध में कुछ प्रलेख सूचनाएं प्राप्त हुईं हैं जिनसे उनके सूर्यवंशी होने की जानकारी मिलती है । किन्तु संध्याकार नंदी द्वारा रचित ग्रन्थ 'रामपालचरित' में पाल शासकों को समुद्रदेव की संतान बताया गया है । अतः यह कहा जा सकता है कि पाल वंश की उत्पत्ति को लेकर इतिहासकारों में मतभेद हैं ।

पाल साम्राज्य का इतिहास (History of Pal Empire)

जैसा की हमने आपको पिछली पोस्टों में बताया था गौड़ नरेश शशांक के बारे में । गौड़ नरेश शशांक एक कट्टर हिन्दू शासक था तथा वह बौद्ध धर्म का विरोधी था । शशांक गुप्त शासक महासेनगुप्त का सेनापति था । उसी ने बौद्धि वृक्ष को कटवाकर गंगा में फिंकवाया था । शशांक ने ही मालव नरेश देवगुप्त के साथ मिलकर हर्षवर्धन के भाई राज्यवर्धन तथा बहिन राज्यश्री के पति ग्रहवर्मन(कन्नौज के मौखरी राजा) की हत्या कर दी थी । इसके बाद हर्षवर्धन मगध का सम्राट बना और शशांक बंगाल भाग गया था । शशांक ने पूर्वी बंगाल पर अधिकार कर लिया और यहां उसने गौड़ वंश की स्थापना की । हर्षवर्धन ने गौड़ नरेश शशांक की हत्या कर बंगाल पर अधिकार कर लिया । लेकिन हर्षवर्धन की मृत्यु के पश्चात बंगाल का कोई वारिस नहीं रहा । हर्षवर्धन की मृत्यु के पश्चात के बाद बंगाल में अव्यवस्था व अराजकता फैल गई । अराजकता व अव्यवस्था की यह स्थिति लगभग एक शताब्दी तक बनी रही। यहां पर मत्स्य न्याय प्रणाली शुरू हो गई । बंगाल का कोई उत्तराधिकारी न देख कश्मीर, कन्नौज, कामरूप व उत्तर भारत के अन्य शासकों के यहाँ आक्रमण शुरू हो गए । इस अशांति व अव्यवस्था से परेशान होकर बंगाल के सरदारों व जनता ने विद्रोह कर दिया ओर एक बहुत ही सुयोग्य व्यक्ति गोपाल को अपना राजा नियुक्त किया ।


गोपाल (750 ई.-770 ई.)

बंगाल की जनता ने लोकतांत्रिक तरीके से गोपाल को अपना शासक नियुक्त किया । गोपाल को पाल वंश का संस्थापक माना जाता है । गोपाल ने शुरुआती पांच वर्षों में ही अपने राज्य की सीमाओं को हिमालय से समुद्री तट तक पहुंचा दिया ओर सम्पूर्ण बंगाल में शांति-व्यवस्था स्थापित की । गोपाल बौद्ध धर्म का अनुयायी था तथा वह सभी धर्मों का सम्मान करता था । गोपाल शिक्षा प्रेमी था । उसने अदन्तपुरी(नालंदा के निकट) में एक विश्वविद्यालय की स्थापना की । अदन्तपुरी में ही उसने एक बौद्ध मठ भी बनवाया ।

अपने शासन के अंतिम दिनों में उसने अपनी उत्पत्ति को सूर्यवंश व समुद्र से जोड़ा था । हालांकि गोपाल शासन के बारे में कोई अधिक जानकारी नहीं प्राप्त हुई है तथापि प्राप्त जानकारियों के आधार पर यह कहा जा सकता है उसने अपने साम्राज्य में फैली अराजकता व अशांति को दूर कर एक सुव्यवस्थित साम्राज्य बनाया और भविष्य में बंगाल की शांति व विकास की राह बना दी । गोपाल ने 770 ई. तक शासन किया तत्पश्चात उसका पुत्र धर्मपाल पाल वंश की गद्दी पर बैठता है ।

धर्मपाल (770 ई.-810 ई.)

अपने पिता गोपाल के पश्चात् 770 ई. में धर्मपाल बंगाल का शासक बना । धर्मपाल ने कन्नौज के त्रिपक्षीय संघर्ष में भाग लिया। कन्नौज पर अधिकार करने के लिए पाल,प्रतिहार व राष्ट्रकूट शासक आपस में संघर्षरत थे । कन्नौज को लेकर त्रिपक्षीय संघर्ष का सबसे बड़ा कारण था इसका गंगा किनारे बसा होना तथा व्यापारिक, सामरिक व आर्थिक दृष्टि से महत्वपूर्ण होना । इस समय अब पाटलिपुत्र की जगह कन्नौज का महत्व बढ़ गया था।

हर्षवर्धन के पश्चात लगभग 730 ई.में कन्नौज पर यशोवर्मन ने अधिकार कर लिया था । इसके बाद वज्रायुध, इन्द्रायुध तथा चक्रायुध नामक शासकों ने कन्नौज पर शासन किया । लेकिन ये शासक अयोग्य साबित हुए । इसी स्थिति का लाभ उठाने के लिए प्रतिहार, पाल व राष्ट्रकूट शासकों के मध्य कन्नौज पर अधिकार करने के लिए संघर्ष शुरू हो जाता है । जिसे त्रिपक्षीय संघर्ष के नाम से जाना जाता है । यह संघर्ष निरन्तर तीनों राज्यों के मध्य चलता रहा ।

हालांकि इस संघर्ष में प्रतिहार वंशीय शासक नागभट्ट द्वितीय तथा राष्ट्रकूट शासक ध्रुव के हाथों धर्मपाल को पराजित होना पड़ा । धर्मपाल ने इंद्रायुध को पराजित कर चक्रायुध को कन्नौज की गद्दी पर बैठाया । धर्मपाल ने बिहार के भागलपुर विक्रमशिला विश्वविद्यालय की स्थापना करवाई । उसने विक्रमशिला व सोमपुर बौद्ध विहार का भी निर्माण करवाया । ग्याहरवीं शताब्दी में गुजराती कवि सोड्डल ने उदयसुन्दरी कथा में धर्मपाल को उत्तरापथस्वामी कहा है। । प्रसिद्ध बौद्ध लेखक हरिभद्र धर्मपाल के राज दरबार में निवास करते थे । धर्मपाल ने कुल 40 वर्षों तक शासन किया । धर्मपाल के पश्चात उसका पुत्र देवपाल पाल वंश की गद्दी पर बैठा ।

देवपाल (810 ई.-850 ई.)

देवपाल ने अपने पिता की साम्राज्य विस्तार की नीति का अनुसरण किया । उसने प्राज्योतिषपुर ,नेपाल व उड़ीसा तक अपनी सीमाओं का विस्तार कर लिया था । दक्षिण में दक्षिण-पूर्व एशियाई देशों के साथ उसके मैत्रीपूर्ण सम्बन्ध थे । जावा सुमात्रा के शेलेन्द्र वंशीय शासक बालपुत्र देव ने देवपाल के दरबार में अपना एक दूत भेजकर नालंदा में बौद्ध मठ बनाने की अनुमति मांगी । देवपाल ने मठ बनाने की अनुमति दी साथ ही इन मठों के सरंक्षण के लिए पाँच गांव दान भी दिए । देवपाल ने कुल 40 वर्षों तक शासन किया । देवपाल के बाद पाल वंश की स्थिति कमजोर पड़ने लगी । लेकिन 988 ई. में पाल वंश की जड़ें पुनः प्रस्फुटित हुईं जब महिपाल ने पाल वंश की गद्दी संभाली ।

शूरपाल/महेन्द्रपाल (850 ई.-854 ई.)

विग्रहपाल (854 ई.-855 ई.)

नारायण पाल (855 ई.-908 ई.)

हालांकि नारायण पाल के बारे में ज्यादा कुछ ज्ञात नहीं होता है तथापि प्राप्त साक्ष्यों के आधार पर यह अनुमान लगाया जाता है कि नारायण पाल अपने शासनकाल का शक्तिशाली राजा था । उसके शासनकाल के शुरुआत में बंगाल के कुछ क्षेत्रों पर अल्पकाल के लिए अनेकों स्थानीय गुटों ने अधिकार कर लिया था । ऐसा माना जाता है कि नारायण पाल ने शैव धर्म अपना लिया था । उसने अपने शासनकाल के प्रारंभिक वर्षों में एक हजार शिव मंदिरों का निर्माण करवाया तथा शैव सन्यासियों को अपने राज्य में आमंत्रित किया । इन मंदिरों के प्रबंधन के लिए उसने अनेकों गाँव शैव आचार्यों को दान दिए । नारायण पाल ने कुछ समय के लिए मगध पर भी अधिकार कर लिया था परंतु बाद में यह राज्य प्रतिहार शासकों के अधीन हो गया था ।

राज्यपाल (908 ई.-940 ई.)

गोपाल द्वितीय (940 ई.-960 ई.)

विग्रहपाल द्वितीय (960 ई.-988 ई.)

उपर्युक्त शासकों ने अपने शासनकाल में कोई विशेष कार्य नहीं किया न ही उनके शासनकाल की कोई अधिक जानकारी मिलती है । इनके समय में सत्ता को लेकर गृह युद्ध शुरू हो गया था । गृह युद्ध के कारण पाल साम्रज्य धीरे-धीरे पतन की ओर जाने लगा लेकिन महिपाल के शासक बनते ही पाल साम्राज्य में पुनः जान आ जाती है ।

महिपाल (988 ई.-1036 ई.)

महिपाल को पाल वंश का द्वितीय संस्थापक माना जाता है । उसने समस्त बंगाल व मगध पर अपना आधिपत्य कर लिया था । ऐसा माना जाता है की महेन्द्रपाल का साम्राज्य पूर्व में बिहार की पश्चिमी सीमा तक तथा पश्चिम में सौराष्ट्र तक विस्तृत था । प्रतापगढ़ अभिलेख में यह उल्लेख मिलता है कि उज्जैन भी महिपाल के शासन के अंतर्गत आता था । गुना जिले से प्राप्त विनायकपालदेव के अभिलेख (वि.सं.999) से यह जानकारी मिलती है कि गुना जिले का क्षेत्र विनायकपाल (महिपाल) के शासन में था । धर्मपाल के बाद महिपाल ही एकमात्र ऐसा पाल शासक था जिसने समस्त पाल साम्राज्य को एकता के सूत्र में बांधा व अपने साम्राज्य की सीमाओं का पुनः विस्तार किया । हालाँकि चोल वंशीय शासक राजेन्द्र चोल के हाथों उसे पराजय का सामना करना पड़ा । उसने धार्मिक व सांस्कृतिक क्षेत्र में महत्वपूर्ण योगदान दिया ।

नयपाल (1036 ई.-1055 ई.)

ऐसा माना जाता है कि पाल नरेश नयपाल व चेदि नरेश लक्ष्मीकर्ण के मध्य संघर्ष हुआ । कुछ समय बाद दोनों के मध्य एक संधि होती है और यह युद्ध समाप्त हो जाता है । नयपाल ने लगभग 20 वर्षों तक पाल साम्राज्य की बागडोर संभाली । नयपाल के पश्चात उसका पुत्र विग्रहपाल द्वितीय पाल शासक बनता है ।

विग्रहपाल तृतीय (1055 ई.-1070 ई.)

विग्रहपाल ने चेदि नरेश लक्ष्मीकर्ण की पुत्री यौवनश्री से विवाह कर पाल वंश व चेदि वंश के मध्य मैत्रीपूर्ण संबंध स्थापित किये । विग्रहपाल तृतीय ने 1055 ई. से 1070 ई. तक पाल वंश की गद्दी संभाली । विग्रहपाल तृतीय के तीन पुत्र थे महिपाल द्वितीय, शूरपाल तथा रामपाल । विग्रहपाल तृतीय की मृत्यु के पश्चात पाल साम्राज्य की गद्दी को लेकर गृहयुद्ध छिड़ गया ।

महिपाल द्वितीय (1070 ई.-1075 ई.)

अपने पिता विग्रहपाल तृतीय की मृत्यु के पश्चात महिपाल द्वितीय गद्दी पर बैठता है । अपने भाइयों द्वारा इसका विरोध करने पर महिपाल द्वितीय उन्हें बंदी बनाकर कारावास में डाल देता है । लेकिन कुछ ही वर्षों बाद कैवर्त नामक कबीला महिपाल द्वितीय के विरुद्ध विद्रोह कर देता है । विद्रोहियों से लड़ता हुआ राजा महिपाल द्वितीय मारा जाता है ।

शूरपाल द्वितीय (1075 ई.-1077 ई.)

महिपाल द्वितीय की मृत्यु के पश्चात शूरपाल द्वितीय पाल शासक बनता है । लेकिन महिपाल द्वितीय की तरह शूरपाल द्वितीय भी सामंती विद्रोह का शिकार हो जाता है । शूरपाल द्वितीय ने मात्र 2 वर्षों तक शासन किया । महिपाल द्वितीय के तीनों बेटों में मात्र रामपाल ही योग्य व कुशल शासक था ।

रामपाल (1077 ई.-1130 ई.)

रामपाल ने सामंतो की मदद से शूरपाल द्वितीय को पराजित कर सिंहासन कर कब्जा कर लिया । रामपाल ने पाल साम्राज्य को कुशल नेतृत्व प्रदान किया । उसने कैवर्त कबीले को भी पराजित किया । रामपाल ने आसाम , उत्तरी बंगाल तथा आस-पास के छोटे-बड़े राज्यों पर विजय प्राप्त की । रामपाल ने कलिंग पर आक्रमण किया । उसने अपनी विजय के उपलक्ष्य पर रामवती नामक नगर भी बसाया । सान्ध्यक कारनन्दी की रचना रामपालचरित् में पाल सम्राट रामपाल के जीवन-चरित का वर्णन किया गया है । इस प्रकार पाल वंश के पतन की जो स्थिति बन गई थी उससे अपने साम्राज्य को उभारने में वह सफल रहा । लगभग 1130 ई. में रामपाल की मृत्यु हो गई । इसके पश्चात 1130 ई. में रामपाल का पुत्र कुमारपाल पाल वंश की गद्दी पर बैठा ।

कुमारपाल (1130 ई.-1140 ई.)

रामपाल की मृत्यु के पश्चात पाल साम्राज्य पतन की ओर अग्रसर होने लगा । कुमारपाल ने अपने 10 वर्षों के शासनकाल में कोई विशेष उपलब्धि प्राप्त नहीं की । आसाम भी इसके हाथों से निकल गया ।

गोपाल तृतीय (1140 ई.-1144 ई.)

गोपाल तृतीय कुमार पाल का पुत्र था । अपने शासनकाल के 4 वर्षों बाद ही मदनपाल द्वारा उसकी हत्या कर दी जाती है । गोपाल तृतीय की हत्या करके मदनपाल पाल वंश का शासक बन बैठता है ।

मदनपाल (1144 ई.-1162 ई.)

मदनपाल के कार्यों के बारे में कोई उल्लेखनीय जानकारी नहीं है । ऐसा माना जाता है कि मदनपाल के शासनकाल के दौरान पाल साम्राज्य की सीमाएं दक्षिणी बिहार व मुंगेर तक ही रह गई थीं ।

गोविन्द पाल (1162 ई.-1174 ई.)

मदनपाल की मृत्यु के बाद गोविंदपाल पाल वंश का शासक बना । विग्रहपाल तृतीय के बाद उसके तीनों पुत्रों गद्दी को लेकर आपस में लड़ते हैं । इस गृहयुद्ध का लाभ उठाकर पूर्वी बंगाल व उत्तरी बंगाल के सामंत स्वतंत्र हो जाते हैं । गोविंदपाल के समय तक आते-आते पाल साम्राज्य की सीमा गया तक सीमित रह गई थी । गोविंदपाल का राज्य सैन, गहड़वाल व विद्रोही सामंतो से घिर चुका था । पाल नरेश गोविंदपाल नाम मात्र का शासक रह गया था । सामंतो के निरन्त विद्रोह के कारण पाल साम्राज्य की शक्ति क्षीण होती चली गई और 1174 ई. में पाल साम्राज्य का पतन हो गया । गोविंदपाल को पाल वंश का अंतिम शासक माना जाता है ।

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