कण्व वंश या 'काण्व वंश' या 'काण्वायन वंश' (लगभग 73 ई. पू. से 28 ई. पू.) शुंग वंश के बाद मगध का शासनकर्ता वंश था।
इस वंश की स्थापना वासुदेव ने की थी। वासुदेव शुंग वंश के अन्तिम राजा देवभूति का ब्राह्मण अमात्य था। अन्तिम शुंग राजा देवभूति के विरुद्ध षड़यंत्र कर अमात्य वासुदेव ने मगध के राजसिंहासन पर अधिकार कर लिया।
अपने स्वामी देवभूति की हत्या करके वासुदेव ने जिस साम्राज्य को प्राप्त किया था, वह एक विशाल शक्तिशाली साम्राज्य का ध्वंसावशेष ही था। इस समय भारत की पश्चिमोत्तर सीमा को लाँघ कर शक आक्रान्ता बड़े वेग से भारत पर आक्रमण कर रहे थे, जिनके कारण न केवल मगध साम्राज्य के सुदूरवर्ती जनपद ही साम्राज्य से निकल गये थे, बल्कि मगध के समीपवर्ती प्रदेशों में भी अव्यवस्था मच गई थी। वासुदेव और उसके उत्तराधिकारी केवल स्थानीय राजाओं की हैसियत रखते थे। उनका राज्य पाटलिपुत्र और उसके समीप के प्रदेशों तक ही सीमित था।
इन चारों राजाओं ने कुल मिलाकर 45 वर्ष तक राज्य किया। इनका शासन काल 73 ई. पू. पूर्व से 28 ई. पू. तक समझा जा सकता है। पुराणों में इन 'कण्व' या 'काण्वायन' राजाओं को 'शुंग भृत्य' के नाम से कहा गया है। यह तो स्पष्ट ही है कि वासुदेव कण्व शुंग राजा देवभूति का अमात्य था। पर चारों कण्व राजाओं को शुंग-भृत्य कहने का अभिप्राय: शायद यह है कि नाममात्र को इनके समय में भी शुंग वंशी राजा ही सिंहासन पर विराजमान थे, यद्यपि सारी शक्ति इन भृत्यों के हाथ में ही थी। सम्भवत: इसीलिए कण्वों के बाद जब आंध्रों के मगध साम्राज्य पर अधिकार कर लेने का उल्लेख आता है तो यह लिखा गया है कि उन्होंने कण्व और शुंग-दोनों को परास्त कर शक्ति प्राप्त की।
पुराणों में एक स्थान पर कण्व राजाओं के लिए 'प्रणव-सामन्त' विशेषण भी दिया गया है, जिससे यह सूचित होता है कि कण्व राजा ने अन्य राजाओं को अपनी अधीनता स्वीकार कराने में भी सफलता प्राप्त की थी। पर यह राजा कौन-सा था, इस विषय में कोई सूचना उपलब्ध नहीं है। इस वंश के अन्तिम राजा सुशर्मा को लगभग 28 ई. पू. में आंध्र वंश के संस्थापक सिमुक ने मार डाला और इसके साथ ही कण्व वंश का अंत हो गया।
शकों का आक्रमण
अपने स्वामी देवभूति की हत्या करके वासुदेव ने जिस साम्राज्य को प्राप्त किया था, वह एक विशाल शक्तिशाली साम्राज्य का ध्वंसावशेष ही था। इस समय भारत की पश्चिमोत्तर सीमा को लाँघ कर शक आक्रान्ता बड़े वेग से भारत पर आक्रमण कर रहे थे, जिनके कारण न केवल मगध साम्राज्य के सुदूरवर्ती जनपद ही साम्राज्य से निकल गये थे, बल्कि मगध के समीपवर्ती प्रदेशों में भी अव्यवस्था मच गई थी। वासुदेव और उसके उत्तराधिकारी केवल स्थानीय राजाओं की हैसियत रखते थे। उनका राज्य पाटलिपुत्र और उसके समीप के प्रदेशों तक ही सीमित था।
कण्व वंश में कुल चार राजा ही हुए, जिनके नाम वासुदेव,भूमिमित्र, नारायण, सुशर्मा हैं।
इन चारों राजाओं ने कुल मिलाकर 45 वर्ष तक राज्य किया। इनका शासन काल 73 ई. पू. पूर्व से 28 ई. पू. तक समझा जा सकता है। पुराणों में इन 'कण्व' या 'काण्वायन' राजाओं को 'शुंग भृत्य' के नाम से कहा गया है। यह तो स्पष्ट ही है कि वासुदेव कण्व शुंग राजा देवभूति का अमात्य था। पर चारों कण्व राजाओं को शुंग-भृत्य कहने का अभिप्राय: शायद यह है कि नाममात्र को इनके समय में भी शुंग वंशी राजा ही सिंहासन पर विराजमान थे, यद्यपि सारी शक्ति इन भृत्यों के हाथ में ही थी। सम्भवत: इसीलिए कण्वों के बाद जब आंध्रों के मगध साम्राज्य पर अधिकार कर लेने का उल्लेख आता है तो यह लिखा गया है कि उन्होंने कण्व और शुंग-दोनों को परास्त कर शक्ति प्राप्त की।
पुराणों में एक स्थान पर कण्व राजाओं के लिए 'प्रणव-सामन्त' विशेषण भी दिया गया है, जिससे यह सूचित होता है कि कण्व राजा ने अन्य राजाओं को अपनी अधीनता स्वीकार कराने में भी सफलता प्राप्त की थी। पर यह राजा कौन-सा था, इस विषय में कोई सूचना उपलब्ध नहीं है। इस वंश के अन्तिम राजा सुशर्मा को लगभग 28 ई. पू. में आंध्र वंश के संस्थापक सिमुक ने मार डाला और इसके साथ ही कण्व वंश का अंत हो गया।
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