दक्षिणापथ में चालुक्यों की तीन शाखाओं ने 6ठी शताब्दी से 12वीं शताब्दी तक शासन किया । चालुक्य वंश मध्यकालीन भारतीय इतिहास का सर्वाधिक शक्तिशाली वंश था । चालुक्यों की तीन शाखाएँ निम्नलिखित थीं ।
- वातापी/बादामी के चालुक्य
- वेंगी के चालुक्य
- कल्याणी के चालुक्य
आज हम आपको जानकारी देने जा रहे हैं बादामी के चालुक्य वंश की । बादामी के चालुक्य, चालुक्यों की मुख्य शाखा से थे। चालुक्य वंश का प्रथम वास्तविक स्वतंत्र शासक पुलकेशिन प्रथम था । जिसने 535 ई. से 566 ई. तक शासन किया । इससे पहले जयसिंह तथा उसके पुत्र रणराग ने अधीन शासकों (सामंत) के रूप में शासन की शुरुआत की थी । कैरा ताम्रपत्र में जयसिंह के नाम का उल्लेख मिलता है । इसके अलावा माहकूट लेख में दो शुरुआती चालुक्य शासक जयसिंह व रणराग की भी जानकारी मिलती है । पुलकेशिन प्रथम रणराग का पुत्र तथा जयसिंह का पौता था । वह महाराज की उपाधि धारण करने वाला पहला चालुक्य शासक था । इसके अलावा उसने 'सत्याश्रय', 'रणविक्रम', 'वल्लभ', 'श्री वल्लभ' तथा 'श्री-पृथ्वी-वल्लभ' आदि उपाधियाँ धारण कीं । उसने अश्वमेध, हिरण्यगर्भ, वाजपेय, अग्निचयन, अग्निष्टोम, पुण्डरीक तथा बाहुसुवर्ण नामक महान यज्ञ करवाये । वह महाभारत, रामायण, पुराण, मानव धर्मशास्त्र तथा इतिहास का अच्छा ज्ञाता था । पुलकेशिन प्रथम ने वातापी नामक स्थान को अपनी राजधानी बनाया तथा यहीं पर उसने एक सुदृढ़ किले का निर्माण भी करवाया । वातापी को आज बादामी के नाम से जाना जाता है जो वर्तमान महाराष्ट्र के बीजापुर जिले में स्थित है । हालांकि इतिहास में उसके किसी सैन्य अभियान की जानकारी नहीं मिलती है । पुलकेशिन प्रथम के दो पुत्र थे कीर्तिवर्मा प्रथम तथा मंगलेश ।
कीर्तिवर्मा प्रथम (566 ई.-598 ई.)
पुलकेशिन प्रथम के बाद उसका बड़ा पुत्र कीर्तिवर्मा प्रथम 566 ई. के आसपास चालुक्य वंश का शासक बना । कीर्तिवर्मा प्रथम को वातापी का प्रथम निर्माता भी कहा जाता है । अभिलेखों में उसके सैन्य अभियानों की जानकारी मिली है । उसने कलचुरियों को पराजित कर रेवती द्वीप(कोंकण, गोआ) पर अधिकार कर लिया । इसके अलावा उसने उसने वंग, अंग, कलिंग, मगध, केरल, वटटूर,गंग, पाण्ड्य,भूषक, द्रमिल, चोलिय,अलूक व वैजयन्ती आदि राज्यों को युद्ध में पराजित कर सम्पूर्ण दक्षिण भारत में अपनी ख्याति स्थापित की । कीर्तिवर्मा प्रथम ने भी अपने पिता पुलकेशिन प्रथम की भांति सत्याश्रय व पृथ्वी वल्लभ जैसी उपाधियाँ धारण कीं तथा कई वैदिक यज्ञ कराए ।
मंगलेश (598 ई.-609 ई.)
598 ई. में कीर्तिवर्मा प्रथम की मृत्यु के समय उसके दोनों पुत्र पुलकेशिन द्वितीय तथा विष्णुवर्धन अल्पवयस्क थे । अतः इस स्थिति में कीर्तिवर्मा प्रथम के छोटे भाई मंगलेश ने उसके उत्तराधिकारी के रूप में वातापी चालुक्य वंश की गद्दी संभाल ली । मंगलेश ने रणविक्रान्त व श्री-पृथ्वी-वल्लभ जैसी उपाधियाँ धारण कीं । वह वैष्णव धर्म का अनुयायी था । उसने परमभागवत की उपाधि धारण कर रखी थी । उसने वातापी में गुहा मंदिर का निर्माण कार्य पूरा करवाया जिसमें उसने भगवान विष्णु की प्रतिमा स्थापित की ।
वह एक धर्म सहिष्णु शासक था । उसने मुकुटेश्वर के शिव मंदिर को दान दिया था । मंगलेश को अपने शासनकाल के अंतिम चरण में गृह युद्ध का सामना करना पड़ा । दरअसल कीर्तिवर्मा प्रथम की मृत्यु के पश्चात वातापी की गद्दी का वास्तविक उत्तराधिकारी उसका बड़ा पुत्र पुलकेशिन द्वितीय ही था । चूंकि पुलकेशिन द्वितीय उस समय छोटा था तो उसका चाचा मंगलेश गद्दी का संरक्षक बन गया । वयस्क होने के बाद जब पुलकेशिन द्वितीय ने मंगलेश से गद्दी की मांग की तो उसने ऐसा करने से साफ इंकार कर दिया । बजाये पुलकेशिन द्वितीय को गद्दी देने के वह अपने पुत्र को गद्दी पर बैठाने का प्रयास करने लगा । ऐसी स्थिति में पुलकेशिन द्वितीय ने विद्रोह कर दिया तथा अपने चाचा मंगलेश की हत्या करके 609 ई. में वातापी की गद्दी पर बैठ गया ।
पुलकेशिन द्वितीय (609 ई.-642 ई.)
पुलकेशिन द्वितीय चालुक्यों की बादामी शाखा का सर्वाधिक शक्तिशाली शासक था । उसने 609 ई. में अपने चाचा मंगलेश की हत्या करके गद्दी प्राप्त की । ऐहोल अभिलेख में उसके सैन्य अभियानों की जानकारी मिलती है ।
पुलकेशिन द्वितीय का जीवन संघर्ष से भरा रहा । वह निरंतर युद्धों में व्यस्त रहा जिसके चलते उसने अपने साम्राज्य की सीमाओं को विरासत में प्राप्त साम्राज्य से कई गुना बढ़ा लिया था । उसने अपने आसपास के सभी छोटे-छोटे राज्यों को जीतकर अपने अपनी सीमाओं को बढ़ाया । पुलकेशिन द्वितीय ने कदम्बों की शक्ति को नष्ट कर उन्हें अपने अधीन कर लिया । इसके अलावा उसने आलुपों व गंगों की प्रतिष्ठा का नष्ट किया । गंग नरेश दुविर्नित ने अपनी पुत्री का विवाह पुलकेशिन द्वितीय से कर दिया । उसने दक्षिणापथेश्वर व परमेश्वर आदि उपाधियाँ धारण कीं ।
पुष्यभूति शासक हर्षवर्द्धन से संघर्ष
पुष्यभूति वंश का शासक हर्षवर्द्धन, पुलकेशिन द्वितीय का समकालीन शासक था । हर्षवर्द्धन तथा पुलकेशिन द्वितीय दोनों महत्वकांक्षी शासक थे तथा अपनी-अपनी राज्य की सीमाओं का विस्तार करने में लगे हुए थे । पुलकेशिन द्वितीय उत्तर में अपने राज्य का विस्तार करना चाहता था वहीं हर्षवर्द्धन ने अपने राज्य की पश्चिमी सीमा का विस्तार नर्मदा नदी तक कर लिया था । ऐसे में दोनों महत्वकांक्षी शासकों के मध्य टकराव स्वभाविक था । दोनों सेनाओं के मध्य नर्मदा नदी के तट पर भयंकर युद्ध हुआ जिसमें हर्षवर्द्धन की पराजय हुई । हर्षवर्द्धन उत्तर भारत का एक शक्तिशाली राजा था जिसे पराजित कर पुलकेशिन द्वितीय ने उसके अहंकार को नष्ट किया । हालांकि इस युद्ध की तिथि को लेकर इतिहासकारों में सहमति नहीं है । फिर भी ज्यादातर यह अनुमान लगाया जाता है कि यह युद्ध 630 ई. से 634 ई. के मध्य में कहीं हुआ होगा ।
पल्लव शासक महेन्द्रवर्मन प्रथम से संघर्ष
अपने शासन की शुरुआत में उसने वर्तमान आंध्र प्रदेश व तमिलनाडु की सीमा पर स्थित पल्लवों पर आक्रमण किया । पुलकेशिन द्वितीय का समकालीन पल्लव शासक महेन्द्रवर्मन प्रथम था । पुलकेशिन द्वितीय ने महेन्द्रवर्मन प्रथम को पराजित उसके कई महत्वपूर्ण क्षेत्रों पर अधिकार कर लिया था । हालांकि महेन्द्रवर्मन प्रथम राजधानी कांची को बचाने में सफल रहा परन्तु वेंगी जैसा महत्वपूर्ण क्षेत्र पुलकेशिन द्वितीय के हाथों में चला गया । बाद में पुलकेशिन द्वितीय ने अपने छोटे भाई विष्णुवर्धन को वेंगी का शासक नियुक्त किया । आगे चलकर चालुक्यों की यह शाखा 'वेंगी के चालुक्य' नाम से प्रसिद्ध हुई । चालुक्यों की वेंगी शाखा ने यहां लगभग 1070 ई. तक शासन किया । पुलकेशिन द्वितीय की पल्लवों पर इस विजय ने पल्लव-चालुक्य संघर्ष का सूत्रपात किया जो आगे भी कई पीढ़ियों तक चलता रहा । इस विजय के पश्चात पुलकेशिन द्वितीय ने चोल,केरल व पाण्ड्य शासकों के साथ मैत्रीपूर्ण संबंध स्थापित किये ।
पल्लव शासक नरसिंहवर्मन प्रथम से संघर्ष
पुलकेशिन द्वितीय ने पल्लवों पर पुनः आक्रमण किया । क्योंकि पुलकेशिन द्वितीय के कुछ सामंत पल्लवों से जाकर मिल गए थे । पुलकेशिन द्वितीय का पल्लवों पर यह आक्रमण उसकी सबसे बड़ी भूल रही । उसे तत्कालीन पल्लव शासक नरसिंहवर्मन प्रथम (महेन्द्रवर्मन प्रथम का पुत्र) के हाथों परियाल युद्ध, शूरमार युद्ध व मणिमंगलम के युद्ध मे बुरी तरह पराजित होना पड़ा तथा वहां से जान बचाकर भागना पड़ा । इस युद्ध में श्रीलंका के शासक मानवर्मन ने नरसिंहवर्मन प्रथम को नौसेनिक सहायता प्रदान की थी । नरसिंहवर्मन प्रथम पल्लव वंश का एक महत्वपूर्ण शासक था । वह चालुक्यों का कट्टर शत्रु था । वह पुलकेशिन द्वितीय से अपने पिता की पराजय का बदला लेना चाहता था । नरसिंहवर्मन प्रथम की सेना ने पुलकेशिन द्वितीय का पीछा ओर राजधानी वातापी पर आक्रमण कर दिया । पुलकेशिन द्वितीय इस युद्ध (642 ई.) में मारा गया ओर वातापी पर नरसिंहवर्मन प्रथम ने अधिकार कर लिया । इस विजय के उपलक्ष्य में नरसिंहवर्मन प्रथम ने वतापिकोंड की उपाधि धारण की । इस प्रकार पुलकेशिन द्वितीय की मृत्यु के साथ ही वातापी चालुक्यों के हाथों से चला गया ।
विक्रमादित्य प्रथम (655 ई.-681 ई.
पुलकेशिन द्वितीय की मृत्यु के बाद वातापी तथा दक्षिण के कुछ क्षेत्र पल्लवों के हाथों में चले गए । 642 ई. से 654 ई. तक चालुक्य गद्दी खाली रही । हालांकि पल्लव सेना को वहां से खदेड़ने के लिए कई बार प्रयत्न किए गए पर वे सफल नहीं हुए । क्योंकि जो थोड़े बहुत क्षेत्र चालुक्यों के पास बचे थे उन पर शासन करने के लिए पुलकेशिन द्वितीय के पुत्रों में आपस में फुट पड़ गई । लेकिन पुलकेशिन द्वितीय की मृत्यु के लगभग 13 वर्षों बाद 655 ई. में उसके बेटे विक्रमादित्य प्रथम ने अपने नाना गंग नरेश दुविर्नित की सैन्य सहायता से पल्लव सेना को वातापी से खदेड़ने व अपने पैतृक राज्य पर पुनः अधिकार करने में सफल रहा । ऐसा प्रतीत होता है कि इस अभियान में वेंगी के चालुक्यों (पूर्वी चालुक्य) ने विक्रमादित्य प्रथम की सहायता की थी ।
विक्रमादित्य प्रथम ने सत्याश्रम, राजमल्ल, श्री पृथ्वी वल्लभ, महाराजाधिराज परमेश्वर जैसी महान उपाधियाँ धारण कीं । विक्रमादित्य प्रथम ने एक-एक करके अपने सभी पैतृक प्रदेशों पर पुनः अधिकार कर लिया । इन अभियानों में विक्रमादित्य प्रथम के भाई जयसिंहवर्मन का विक्रमादित्य प्रथम को पूरा सहयोग रहा । बाद में जयसिंहवर्मन से प्रसन्न होकर विक्रमादित्य प्रथम ने उसे दक्षिणी गुजरात (लाट) का प्रान्तपाल बना दिया ।
विक्रमादित्य प्रथम अपने पिता की भांति साहसी व महत्वकांक्षी शासक था । उसका अभियान मात्र वातापी की पल्लवों से स्वतंत्रता तक ही नहीं ठहरा बल्कि पल्लवों के साथ उसका संघर्ष निरंतर चलता रहा । उसने पल्लवों के राज्य में घुसकर उनके कई क्षेत्रों पर अधिकार कर लिया । विक्रमादित्य प्रथम के साथ संघर्ष में पल्लव राजा महेन्द्रवर्मन प्रथम मारा गया । अपने शासन के अंतिम वर्षों में विक्रमादित्य प्रथम ने कुछ समय के लिए पल्लवों की राजधानी कांची पर भी अपना अधिकार कर लिया । लेकिन उसका यह अधिकार अस्थायी था । ऐसा कहा जाता है कि तत्कालीन पल्लव नरेश परमेश्वरवर्मन प्रथम ने पेरुवडनंल्लुर के युद्ध में विक्रमादित्य प्रथम को पराजित कर वहां से भागने पर मजबूर कर दिया । इस प्रकार परमेश्वरवर्मन प्रथम ने पुनः कांची को प्राप्त किया ।
विन्यादित्य (681 ई-696 ई.)
विक्रमादित्य प्रथम के पश्चात उसका पुत्र विन्यादित्य चालुक्य वंश का शासक बना । उसने पल्लव, हैहय, कलभ्र, मालव, चोल, पाण्डेय तथा गंग आदि राज्यों के साथ संघर्ष किया । उसने कामेर (कावेर), पारासिक (ईरान) तथा सिंहल (लंका) आदि द्वीपों के राजाओं से शुल्क लिया था । ऐसा कहा जाता है कि उसने उत्तरापथ के राजा को पराजित करके 'पालिध्वज' नामक पताका प्राप्त की ,हालांकि उस उत्तरापथ के राजा के नाम की जानकारी नहीं मिलती है । उसकी मुख्य उपाधियाँ श्री पृथ्वीवल्लभ, सत्याश्रय के साथ-साथ राजाश्रय तथा युद्धमल्ल होने का उल्लेख मिलता है ।
विजयादित्य (696 ई.-733 ई.)
यह विन्यादित्य का पुत्र था जो 696 ई. में चालुक्यों की वातापी शाखा का शासक बना । उसने अपने दादाजी व पिताजी के शासनकाल में ही सैनिक व प्रशासनिक कार्यों का प्रशिक्षण प्राप्त कर लिया था । उसके पल्लवों के साथ संघर्ष की जानकारी मिलती है । उसने पल्लवों की राजधानी पर आक्रमण किया तथा वहां के शासक परमेश्वरवर्मन द्वितीय को कर देने के लिए बाध्य किया ।
विजयादित्य का शासनकाल ब्राह्मण धर्म के पुनरोत्थान तथा स्थापत्य व ललित कलाओं के विकास का काल था । उसने बीजापुर जिले के पत्तदकल में एक विशाल शिव मंदिर (विजयेश्वर शिव मंदिर) का निर्माण कराया । उसकी बहिन कुमकुम देवी द्वारा लक्ष्मेश्वर में एक भव्य जैन मंदिर (आनेसेज्येयवसादि) बनवाया गया । अपनी धर्म सहिष्णुता का परिचय देते हुए विजयादित्य ने जैन प्रचारकों को कई गाँव दान दिए । उसने अपने पिता व दादाजी जैसी ही कुछ उपाधियाँ महाराजाधिराज, पृथ्वीवल्लभ, सत्याश्रम, परमेश्वर, भट्टारक तथा समस्त भुवनाश्रय आदि धारण कर रखी थीं ।
विक्रमादित्य द्वितीय (733 ई.-745 ई.)
विजयादित्य के पश्चात उसके पुत्र विक्रमादित्य द्वितीय ने 733 ई. में गद्दी संभाली । उसके शासनकाल की शुरुआत में (लगभग 736 ई.) अरबों ने गुजरात में चालुक्यों के राज्य पर आक्रमण किया था । विक्रमादित्य द्वितीय ने गुजरात में लाट के चालुक्य सामंत पुलकेशिन जनाश्रय की अरब आक्रमणकारियों को वहां से खदेड़ने में मदद की थी । कुछ विद्वानों के अनुसार नासौरी नामक स्थान पर अरब आक्रमणकारियों के विरुद्ध हुए इस अभियान में राष्ट्रकूट शासक दंतिदुर्ग ने भी चालुक्यों का सहयोग किया था जो उस समय विक्रमादित्य द्वितीय का सामंत था । इस आक्रमण का उल्लेख पुलकेशिन जनाश्रय के नौसारी दानपत्र में मिलता है । पुलकेशिन जनाश्रय की अरबों पर सफलता से प्रसन्न होकर विक्रमादित्य द्वितीय ने उसे अविजनाश्रय की उपाधि दी ।
विक्रमादित्य द्वितीय का कांची अभियान
उसने पल्लवों की राजधानी कांची पर कई बार आक्रमण किये तथा वहां के शासक नंदिवर्मन द्वितीय को पराजित कर उनके कीमती रत्न, वाद्य यंत्र, पताका तथा हाथियों पर अधिकार कर लिया । हालांकि विक्रमादित्य द्वितीय ने कांची को नष्ट नहीं किया था । कांची विजय के उपलक्ष्य में उसने कांचीकोंण्ड की उपाधि धारण की । नरवण अभिलेख, वक्रकलेरि अभिलेख, केन्दूर अभिलेख,रानी लोकमहादेवी के पट्टदकल अभिलेख तथा कांची के राजसिंहेश्वर मंदिर में उल्लेखित लेखों में चालुक्यों की इस विजय की जानकारी मिलती है ।
ऐसी संभावना है कि विक्रमादित्य द्वितीय ने चोल, केरल, पाण्ड्य, कालभ्र तथा अपने राज्य के आसपास की सभी छोटी बड़ी शक्तियों को समाप्त कर दिया था ।
विक्रमादित्य द्वितीय एक महान शासक व विद्वानों का आश्रयदाता था । विक्रमादित्य द्वितीय के रचनात्मक व्यक्तित्व का विवरण लक्ष्मेश्वर एवं ऐहोल अभिलेखों में मिलता है। विक्रमादित्य द्वितीय की दो रानियां थीं जिनका नाम क्रमशः लोकमहादेवी तथा त्रैलोक्य महादेवी था । उसने अपनी रानी लोकमहादेवी के कहने पर पट्टदकल में विरुपाक्षमहादेव मंदिर तथा त्रैलोक्य महादेवी की विनती पर त्रैलोकेश्वर मंदिर बनवाया।
विक्रमादित्य द्वितीय की प्रमुख उपाधियाँ वल्लभदुर्येज, कांचीकोंण्ड, महाराजाधिराज, श्री-पृथ्वी-वल्लभ तथा परमेश्वर आदि थीं ।
कीर्तिवर्मन द्वितीय (645 ई.-757 ई.)
कीर्तिवर्मन द्वितीय, विक्रमादित्य द्वितीय का पुत्र था । वह अपने पिता के शासनकाल में ही राजनियिक कार्यों में सक्रिय भूमिका निभाने लग गया था । उसने अपने पिता विक्रमादित्य द्वितीय का पल्लवों के विरुद्ध कांची के अभियान में साथ दिया था । कीर्तिवर्मन द्वितीय चालुक्यों की वातापी शाखा का अंतिम शासक था । दंतिदुर्ग ने कीर्तिवर्मन द्वितीय को पराजित कर वातापी पर अधिकार कर लिया था ।
दंतिदुर्ग चालुक्यों का सामंत था जिसने विक्रमादित्य द्वितीय तथा कीर्तिवर्मन द्वितीय के साथ पल्लवों के विरुद्ध सैनिक अभियानों में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी । अरब आक्रमणकारियों के विरुद्ध दंतिदुर्ग ने विक्रमादित्य द्वितीय तथा दक्षिणी गुजरात के चालुक्य सामंत पुलकेशिन जनाश्रय के साथ नासौरी के युद्ध में महत्वपूर्ण भूमिका अदा की । इन विजयों से प्रेरित होकर दंतिदुर्ग ने स्वंय को स्वतंत्र घोषित कर दिया । 746 ई. में विक्रमादित्य द्वितीय की मृत्यु के बाद उसने धीरे-धीरे नासौरी तथा दक्षिणी गुजरात के चालुक्य क्षेत्रों पर अपना अधिकार स्थापित कर लिया । नासौरी को लेकर कीर्तिवर्मन द्वितीय तथा दंतिदुर्ग के मध्य महाराष्ट्र में भयंकर युद्ध होता है जिसमें कीर्तिवर्मन द्वितीय पराजित होता है । इस प्रकार दंतिदुर्ग का वातापी पर अधिकार हो जाता है । हालांकि इस समय तक चालुक्यों की शक्ति पूरी तरह नष्ट नहीं हुई थी । दंतिदुर्ग की मृत्यु के पश्चात कीर्तिवर्मन द्वितीय ने पुनः अपनी सेना को एकत्रित किया ।
लगभग 757 ई. में तत्कालीन राष्ट्रकूट शासक कृष्ण प्रथम तथा कीर्तिवर्मन द्वितीय की सेना के मध्य भीमा नदी के तट पर भयंकर युद्ध हुआ । इस युद्ध में चालुक्यों को भारी क्षति उठानी पड़ी । कीर्तिवर्मन द्वितीय तथा उसका बेटा दोनों राष्ट्रकूटों के साथ युद्ध में लड़ते हुए मारे गए । इस प्रकार कीर्तिवर्मन द्वितीय तथा उसके बेटे की मृत्यु के साथ ही चालुक्यों की वातापी (बादामी) शाखा का साम्राज्य पूरी तरह समाप्त हो गया ।
10वीं शताब्दी में अंत में एक बार फिर से वातापी चालुक्यों के अवशेषों पर चालुक्यों का उदय होता है । लेकिन अब इनकी राजधानी वातापी नहीं बल्कि कल्याणी थी । इसीलिए अब ये चालुक्य वातापी के चालुक्य नहीं बल्कि कल्याणी के चालुक्य कहलाए । मजे की बात तो यह है दोस्तों वातापी के चालुक्यों को नष्ट करके राष्ट्रकूटों ने अपना साम्राज्य खड़ा किया था, सैंकड़ों वर्षों बाद इन्हीं राष्ट्रकूटों को नष्ट करके चालुक्यों ने अपना साम्राज्य पुनः खड़ा किया । हालांकि दोस्तों, इनकी दूसरी शाखा वेंगी के चालुक्य तब भी चल रही थी ।
दोस्तों आपको वेंगी के चालुक्य (पूर्वी चालुक्य वंश) तथा कल्याणी के चालुक्य वंश की जानकारी भविष्य में जरूर देंगे ये हमारा आपसे वादा है । फिलहाल हमने आपको जानकारी दी गई है वातापी के चालुक्य वंश की । जानकारी कैसी लगी हमें कमेंट बॉक्स में जरूर बताइएगा । यदि आप इतिहास में रुचि रखते हैं तो निश्चित रूप से यह पोस्ट आपके लिए फायदेमंद साबित होगी ।
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चालुक्य वंश का इतिहास, History of Chalukya Dynasty in Hindi, chalukya vansh ka itihas
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