प्रतिहार साम्राज्य के पतन के पश्चात चंद्रदेव नामक व्यक्ति ने 1080 से 1085 के मध्य गहड़वाल राजवंश की नींव रखी । इनकी राजधानी कन्नौज थी । गहड़वाल शासकों को काशी नरेश के नाम से भी जाना जाता था । काशी / बनारस इनके राज्य का ही भाग था । हालांकि गहड़वाल वंश की उत्पत्ति के बारे में कोई निश्चित जानकारी नहीं मिलती है । ये चंद्रवंशी कहलाते थे । कुछ लेखों में इन्हें क्षत्रिय कहा गया है । गहड़वालों को राठौड़ भी कहा जाता है । सम्भवतः यह राठौड़ वंश की ही एक शाखा थी ।
गहड़वाल वंश का इतिहास
गहड़वाल वंश के आदि पुरुषों में यशोविग्रह तथा महीचन्द्र आदि नामों का उल्लेख मिलता है । इनमें से यशोविग्रह नामक व्यक्ति कलचुरि साम्रज्य में किसी महत्वपूर्ण पद पर था । 11 वीं सदी के अंत तक कलचुरियों का पतन हो चुका था । 1090 ई. में महिचन्द्र के पुत्र चंद्रदेव ने कन्नौज पर अधिकार कर गहड़वाल वंश की स्वतंत्र सत्ता की नींव रखी ।
गहड़वाल वंश के शासक
चंद्रदेव गहड़वाल (1090 ई.- 1100 ई.)
कलचुरि शासक यशकर्ण व प्रतिहार शासकों को पराजित कर चंद्रदेव ने बनारस तथा कन्नौज पर अधिकार कर लिया । चंद्रदेव महिचन्द्र का पुत्र तथा यशोविग्रह का पौत्र था । चंद्रदेव ने अपने राज्य की सीमा का विस्तार काशी, अयोध्या, कान्यकुब्ज तथा इन्द्रप्रस्थ (दिल्ली) तक कर लिया था । हालांकि वह मगध की सीमा को नहीं छू सका था । राज्य विस्तार में आये खर्चे को वसूलने के लिए उसने 'तुरुष्कदण्ड' नामक कर लगाया । चंद्रदेव ने 1090 ई. से 1100 ई. में अपनी मृत्यु तक शासन किया ।
मदनचंद्र गहड़वाल(1100 ई. -1114 ई.)
मदनचंद्र एक कमजोर व निर्बल शासक था । मुस्लिम इतिहासकारों के अनुसार तुर्क आक्रमणकारी मसूद तृतीय ने कन्नौज पर आक्रमण कर मदनचंद्र को बंदी बना लिया था । मसूद तृतीय को एक मोटी रकम भेंट करके छुड़वाया गया था । हालांकि एक अभिलेख में भी यह विवरण मिलता है कि मदनचंद्र के समय तुर्कों ने कनौज पर आक्रमण कर दिया था जिस पर उसके पुत्र गोविंदचंद्र ने विजय प्राप्त की थी । इस प्रकार यह तो स्पष्ट है कि तुर्कों ने कन्नौज पर आक्रमण किया था लेकिन यह साफ तौर पर नहीं कहा जा सकता है कि मदनचंद्र को तुर्कों ने बंदी बनाया था ।
गोविंदचंद्र गहड़वाल (1114 ई. से 1154 ई.)
मदनचंद्र के पश्चात उसके पुत्र गोविंदचंद्र ने गहड़वाल सत्ता की बागडोर संभाली । उसने 1114 ई. से 1154 ई. तक शासन किया । गोविंदचंद्र इस वंश का सबसे शक्तिशाली शासक था। उसने मगध व मालवा को भी अपने साम्राज्य में मिला लिया था । उसने अपने युवराज काल में गजनी के शासक मसूद तृतीय को पराजित किया था । गोविंदचंद्र ने पाल व सेन शासकों को पराजित किया । दक्षिण कौशल के कलचुरि राजा व पूर्वी मालवा के चंदेल शासक को पराजित कर अपने राज्य का विस्तार किया । लाहौर में यामिनी शासक के साथ उसका संघर्ष हुआ ।
पटना व मुंगेर से गोविंदचंद्र के अभिलेख प्राप्त हुए हैं जिससे यह ज्ञात होता है कि उसने इन क्षेत्रों में दान दिया था । सम्भवतः ये क्षेत्र भी उसके साम्राज्य का हिस्सा रहे होंगे । गोविंदचंद्र के अभिलेखों से ज्ञात होता है कि 12वीं सदी के प्रारम्भ के पचास वर्षों में उत्तर भारत के एक विशाल भू-भाग पर उसका अधिकार था । अभिलेखों में गोविंदचंद्र की अश्वपति, नरपति, गजपति तथा राजतरायाधिपति आदि उपाधियाँ मिलती हैं ।
गोविंदचंद्र के लगभग 40 अभिलेख प्राप्त हुए हैं । इन अभिलेखों से उसके एक शक्तिशाली, दानवीर , विद्वान व कूटनीतिज्ञ राजा होने के प्रमाण मिलते हैं । उसके अभिलेखों में उसे विविध विचार वाचस्पति कहा गया है । उसके दरबार में लक्ष्मीधर नामक विद्वान मंत्री था जिसने कृत्यकल्पतरु नामक ग्रंथ की रचना की । अन्हिलपाटन व कश्मीर के राजाओं के साथ उसके मैत्री संबंध थे ।
गोविंदचंद्र ने जेतवन में बौद्ध भिक्षुओं को 6 ग्राम दान दिए । वह बौद्ध भिक्षु शाक्य रक्षित व वागीश्वर रक्षित से बहुत अधिक प्रभावित था । गोविंदचंद्र की रानी कुमारदेवी ने सारनाथ में एक बौद्ध विहार बनवाया ।
विजयचंद्र (1155 ई.- 1170 ई.)
गोविंदचंद्र के पश्चात 1155 ई. में उसके पुत्र विजयचंद्र ने राज्यभार संभाला । विजयचंद्र के समय गहड़वाल सत्ता कमजोर पड़ गई थी । हालांकि उसने मध्यप्रदेश में तुर्कों का सफल प्रतिरोध किया लेकिन दिल्ली का क्षेत्र उसके हाथों से चला गया था । दिल्ली में चौहान वंशीय विग्रहराज बीसलदेव ने उससे दिल्ली छीन लिया । विजयचंद्र का साम्राज्यविस्तार दक्षिणी बिहार तक हो गया था । सेन शासक लक्षमणसेन ने कन्नौज राज्य पर आक्रमण कर दिया था जिसमें विजयचंद्र को पराजित होना पड़ा था । हालांकि वह राज्य के किसी भी हिस्से पर अधिकार नहीं कर सका था । विजयचंद्र ने लाहौर में अमीर खुसरो को सफलतापूर्वक खदेड़ भगाया था । चंदबरदाई की रचना पृथ्वीराज रासो में विजयचंद्र की विजयों का उल्लेख मिलता है ।
जयचंद (1170 ई.- 1194 ई.)
जयचंद विजयचंद्र का पुत्र था । वह इस वंश का अन्तिम शासक था । जयचंद ने 1170 ई. में गद्दी संभाली । जयचंद के अनेकों अभिलेख प्राप्त हुए हैं । अभिलेखों से ज्ञात होता है उसके समय में गहड़वाल साम्राज्य काफी समृद्ध व शक्तिशाली था । उसके राज्य की पूर्वी सीमाएं बंगाल तक फैली हुई थीं । उसने अनेकों युद्ध किये । देवगिरी के यादव, गुजरात के सोलंकी व तुर्कों को उसने युद्धों में पराजित किया था। बंगाल के सेन राज्य के साथ उसके कई युद्ध हुए । बंगाल के राजा लक्ष्मण सेन ने जयचंद से गया छीन लिया था ।
उधर दिल्ली और अजमेर के शासक पृथ्वीराज चौहान (पृथ्वीराज तृतीय ) से भी जयचंद की शत्रुता थी ।दोनों-तीनों राज्यों की आपसी लड़ाई का पूरा फायदा मोहम्मद गौरी (शहाबुद्दीन मुहम्मद गोरी) ने उठाया । 1192 ई.में तराईन के दूसरे युद्ध में पृथ्वीराज चौहान तुर्की आक्रमणकारी मोहम्मद गौरी के हाथों मारा गया । तराईन की इस लड़ाई में जयचंद ने पृथ्वीराज चौहान का साथ नहीं दिया जो आगे चलकर जयचंद के लिए बहुत घातक साबित हुआ ।
पृथ्वीराज चौहान और जयचंद दोनों की माताएं सगी बहिनें थीं । दोनों दिल्ली के तोमरवंशी राजा अनंगपाल की पुत्रियां थीं । पुत्रविहीन होने के कारण अनंगपाल ने अपने नाती पृथ्वीराज चौहान को अपना उत्तराधिकारी बना दिया था । पृथ्वीराज चौहान व जयचंद गहड़वाल दोनों राज्यों के मध्य शत्रुता का सबसे मुख्य कारण था जयचंद की पुत्री संयोगिता । संयोगिता बेहद ही खूबसूरत थी । उसकी खूबसूरती के चर्चे दूर-दूर तक फैले हुए थे । पृथ्वीराज चौहान उसकी खूबसूरती पर मोहित हो गया था । इधर संयोगिता ने भी पृथ्वीराज चौहान की वीरता के चर्चे सुन रखे थे । संयोगिता भी पृथ्वीराज चौहान को पसंद करती थी । पृथ्वीराज चौहान स्वयंवर के दिन संयोगिता को उठाकर अजमेर ले आया था । यहां इन दोनों ने विवाह कर लिया । तब से दोनों राज्यों के मध्य शत्रुता ओर अधिक बढ़ गई थी । हालांकि कुछ विद्वान संयोगिता की इस कहानी को एक काल्पनिक रचना मानते हैं ।
मोहम्मद गोरी के विरुद्ध पृथ्वीराज चौहान को सहायता न देना खुद जयचंद के लिए बहुत भारी पड़ा । 1194 ई. में मोहम्मद गोरी ने कन्नौज पर आक्रमण कर दिया । दोनों सेनाओं के मध्य एटा(इटावा) के पास चंदावर नामक स्थान पर भयंकर युद्ध हुआ। इतिहास में इस युद्ध को चंदावर का युद्ध कहा जाता है । इस लड़ाई के दौरान जयचंद की आँख में तीर लग गया था जिससे युद्धस्थल पर ही उनकी मृत्यु हो गई।
जयचंद की मृत्यु के साथ ही गहड़वाल सत्ता का पतन हो गया । यदि जयचंद ने पृथ्वीराज चौहान की सहायता की होती तो परिणाम कुछ और ही होते । जयचंद इस वंश का अंतिम शासक था । जयचंद की मृत्यु के बाद कन्नौज पर तुर्कों का अधिकार हो गया । जयचंद के पुत्र हरिचंद ने गोरी की अधीनता स्वीकार कर ली । तुर्कों के आगमन के साथ ही कन्नौज की शान व शोभा जाती रही । मोहम्मद गोरी ने इसे दिल्ली सल्तनत में मिला लिया ।
राजा जयचंद पर यह आरोप लगता आया है कि वह देशद्रोही था । उसने पृथ्वीराज चौहान से अपने वैमनस्य के कारण उस पर आक्रमण करने के लिए तुर्की आक्रांता मोहम्मद गोरी को भारत आमंत्रित किया था । हालांकि राजा जयचंद 1192 ई. के तराईन के युद्ध में पृथ्वीराज चौहान के प्रति तटस्थ रहा लेकिन इस बात के कोई पुख्ता साक्ष्य नहीं मिले हैं कि उसने गोरी को भारत आमंत्रित किया था । पृथ्वीराज चौहान के प्रति राजा जयचंद का क्रोध इतना प्रचंड था कि उसने युद्ध में पृथ्वीराज को सैन्य सहायता देना आवश्यक नहीं समझ । यही कारण रहा है कि तब से जयचंद पर गद्दारी के आरोप लगते आये हैं । हालांकि पृथ्वीराज चौहान को सैन्य सहायता न देना जयचंद की अदूरदर्शिता थी, लेकिन अपने शत्रु की सहायता न करना देश के साथ गद्दारी का पर्याय नहीं हो सकता ।
इतिहासकार आनंद शर्मा के अनुसार राजा जयचंद की संयोगिता नामक कोई पुत्री थी ही नहीं । अगर उनकी इस बात को मान लिया जाए तो पृथ्वीराज चौहान व जयचंद के बीच मनमोटाव का कोई ओर कारण रहा होगा । संयोगिता वाली यह पूरी कहानी पृथ्वीराज चौहान के दरबारी कवि चंदबरदाई की रचना पृथ्वीराज रासो में दर्ज है । केवल इस रचना के आधार पर राजा जयचंद को गद्दार बताना उचित नहीं है ।
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