मगध का उदय व इसके साम्राज्यवाद के विभिन्न चरण ~ Ancient India

मगध का उदय व इसके साम्राज्यवाद के विभिन्न चरण

देवदत्त रामकृष्ण भंडारकर के मतानुसार बुद्ध के जीवनकाल की सबसे महत्त्वपूर्ण राजनीतिक घटना भारत में चार राज्यों का उदय था।ये राज्य थे-कोशाम्बी(वत्स),अवन्ती,कौशल और मगध।इनके राज्यों ने प्रसार की नीति के अनुसार पड़ोसियों की भूमि पर अधिकार करना आरम्भ कर दिया था।

उसका परिणाम स्वभाविक ही पारस्परिक संघर्ष था जिसके अन्त में मगध के अकेले शक्तिमान साम्राज्य का उदय हुआ।मगध राज्य का विस्तार वर्तमान बिहार के दक्षिणी भाग में स्थित पटना और गया जिलों में था।इसके उत्तर और पश्चिम में क्रमशः गंगा और सोन नदियां थीं,दक्षिण में विंध्य पर्वत की श्रेणियां थीं तथा पूर्व में चम्पा नदी थी।इसकी सर्वप्रथम राजधानी गिरिव्रज या राजगृह थी,जिसके अन्य  नाम मगधपुर,वृद्रथपुर,वसुमती,कुशाग्रपुर और बिम्बिसारपुरी थी।वैदिक साहित्य में मगध की भूमि को उपावन कहा गया है।


इसकी राजनीतिक सत्ता और प्रभाव को वृद्रथ के राजकुल ने प्रतिष्ठित किया।इस राजकुल का छठी शताब्दी ई.पू.में अन्त हुआ।वृद्रथ का पुत्र जरासंघ जो अनेक अतिरंजित अनुस्तुतिओं का नायक था,एक शक्तिशाली राजा था।जब बुद्ध अपने धर्म का प्रचार करने लगे थे,तब मगध पर हर्यंक कुल के विम्बिसार का शासन था अर्थात तब तक यह राजकुल समाप्त हो चुका था।



प्राचीन भारतीय इतिहास में मगध का विशेष स्थान है । प्राचीन काल में भारत अनेक छोटे-बड़े राज्यों की सत्ता थी । मगध के प्रतापी राजाओं ने इन राज्यों पर विजय प्राप्त कर भारत के एक बड़े भाग पर विशाल एवं शक्तिशाली साम्राज्य की स्थापना की और इस प्रकार मगध के शासकों ने सर्वप्रथम अपनी साम्राज्यवादी प्रवृत्ति को प्रदर्शित किया । मगध में मौर्य वंश की स्थापना से पूर्व भी अनेक शासकों ने अपने बाहुबल व वीरता से मगध साम्राज्य को शक्तिशाली बनाया था ।

मगध साम्राज्य का उदय का कारण

मगध उत्तर भारत के विशाल तटवर्ती मैदानों के उपरी एवं निचले भागों के मध्य अति सुरक्षित स्थान पर था पांच पहाडियों के मध्य एक दुर्गम स्थान पर स्थित होने के कारण वहां तक शत्रुओं का पहुंचना प्राय: असम्भव था ।

गंगा नदी के कारण भी मगध में व्यापारी सुविधाये बढ़ी और आर्थिक दृष्टि से मगध के महत्व में वृद्धि हुर्इ । मगध साम्राज्य की भूमि अत्यधिक उपजाऊ थी अत: आर्थिक दृष्टि से मगध सम्पन्न राज्य था । मगध साम्राज्य उत्कर्ष में हाथियों के बाहुल्य ने भी मगध साम्राज्य के उत्कर्ष में महत्वपूर्ण योगदान था ।

मगध साम्राज्य में लोहा बहुतायत और सरलता से मिलता था । मगध की शक्ति का यह महत्वपूर्ण स्त्रोत था । इससे जंगल साफ करके खेती के लिये भूमि निकाली जा सकती थी और उपज बढ़ार्इ जा सकती थी ।

मगध का उदय तथा मगध साम्राज्य के शासक


काफी समय तक इस काल का राजनीतिक इतिहास मुख्यत: उपरोक्त राज्यों में सर्वोच्चता के संघर्ष का लेखा-जोखा है । समय के साथ, मगध सर्वाधिक शक्तिशाली राज्य के रूप में उदित हुआ और एक विशाल साम्राज्य के रूप में फैला ।
 
मगध, राजा बिम्बसार (544 492-र्इ.पू.) के शासन काल में शक्तिशाली बना । वह भगवान् बुद्ध का समकालीन था और हरयंक राजकुल से संबंधित था । शुरू से ही बिम्बसार ने विस्तार की नीति अपनार्इ । अपनी स्थिति को शक्तिशाली बनाने के लिए उसके पास कुछ सुविधाएं थी । उसका साम्राज्य चारों ओर नदियों और पहाडियों के द्वारा सुरक्षित था । 
उसकी राजधानी राजगीर पहाड़ियों के साथ थी । उसके साम्राज्य की समृद्ध और उपजाऊ मिट्टी में बहुत अधिक उपज होती थी । हिरण्यवता या सोन नदी ने व्यापार को बढ़ावा दिया । इस तरह व्यापारिक और भूमि कर राज्य की आमदनी के पमुख स्त्रोत थे ।


मगध और आस-पास के क्षेत्रों की लोहे की समृद्ध खानों ने लोहे के हथियार बनाने में मदद की । अंग का अपने राज्य में शामिल करना बिम्बसार की सर्वाधिक महत्वपूर्ण उपलब्धियों में से था। अंग की राजधानी चंपा व्यापार का महत्वपूर्ण केन्द्र थी । 

बिम्बसार ने अपने पुत्र अजातशत्रु को इस राज्य का राज्यपाल बनाया । मगध का सबसे मुख्य शत्रु अवंती था । बिम्बसार का इसके शासन प्रद्योत महासेन के साथ लंबा युद्ध चला, जो हालांकि अंतत: मित्रता में तबदील हुआ । बौद्ध ग्रंथो में हमें पता चलता है कि गंभीर रोग से पीड़ित प्रद्योत महासेन के इलाज के लिए बिम्बसार ने अपने चिकित्सक जीवक को भेजा था । बिम्बसार ने कोसल, वैशाली और भद्र के महत्वपूर्ण राज्य-परिवारों के साथ वैवाहिक संबंध स्थापित किए । 

कोसल नरेश प्रसेनजित की बहन से विवाह में बिम्बसार को काफी गांव दहेज में प्राप्त हुआ । इन विवाहों ने उसकी स्थिति को मजबूत किया और सम्मान को बढ़या । इस तरह वैवाहिक संबंधों और विजयों से बिम्बसार ने मगध को अत्यधिक शक्तिशाली राज्य बना दिया । 


बिम्बसार ने कार्यकुशल प्रशासन व्यवस्थित किया । महावीर और बुद्ध दोनों इसके शासन काल के दौरान अपने सिद्धांतो के उपदेश दिए और ऐसा बताया जाता है कि उसने दोनों से ही करीबी संबंध रखे । संभवत: वह अजातशत्रु के हाथों मारा गया जिसने राजगद्दी पर कब्जा किया । 


अजातशत्रु ने स्वयं को अनेक शत्रुओं से घिरा पाया । राजा प्रसेनजित ने उसके खिलाफ युद्ध घोषित कर दिया और लिच्छवियों तथा विज्जियों के साथ भी उनके लंबे युद्ध हुए । काशी और अवंती साम्राज्य भी उसके शत्रु हो गए । अजातशत्रु ने इन चुनौतियों का सामना साहस और सफलता के साथ किया तथा उसने मगध को और बड़ा राज्य बना दिया । 
उसके पुत्र उदयन (460 र्इ.पू.- 444 र्इ.पू.) ने पाटलिपुत्र शहर का निर्माण किया, जो मगध की नर्इ राजधानी बनी । बिबिसार के राजवंश के बाद शिशुनागों का शासन आया और अंतत: मगध की राजगद्दी की महापद्म नंद ने हथिया लिया । 

पुराणों के अनुसार नंद-नीची जाति के थे और क्षत्रिय नहीं थे । लेकिन उन्होंने स्वयं को सर्वाधिक शक्तिशाली शासक साबित किया और संभवत: उन्होंने कलिंग को अपने साम्राज्य में मिला लिया । सिकंदर के आक्रमण के समय (326 र्इ.पू.) नंद मगध पर शासन कर रहे थे । 

कुछ ऐतिहासिक अभिलेखों के अनुसार नंदों की शक्ति ने सिंकदर को भारत में और आगे बढ़ने से हतोत्साहित किया और उसे घर लौटने को विवश किया । यूनानी विवरणों के अनुसार धननंद के पास 20,000 घोड़ों, 2,00,000 पदाति, 2,000 रथों और कम से कम 3,000 हाथियों की विशाल सेना थी । नंद विभिन्न कारणों से अलोकप्रिय हो गए । 
विशाल सेना के रख-रखाव के लिए उन्होंने लोगों पर भारी कर लगाए और वे दमनकारी और साथ ही बहुत अहंकारी भी हो गए । परंपरा के अनुसार, नंदों के निरंकुश शासन को चन्द्रगुप्त मौर्य ने लगभग 323 र्इ.पू. में उखाड़ फेका । ऐसा भी विश्वास है कि इस उपलब्धि में चाणक्य नामक ब्राम्हण ने चन्द्रगुप्त की बहुत मदद की । महाजनपदों में से कुछ तो साम्राज्यवादी थे और कुछ लोकतंत्रात्म । 

बिम्बसार और अजातशत्रु के शासन काल में मगध अत्यधिक शक्तिशाली राज्य के रूप में उभरा । नंद राजाओं के शासनकाल के दौरान सिंकदर ने पंजाब में तो प्रवेश कर लिया, लेकिन नंद की सेना के डर से और आगे नहीं बदला । चन्द्रगुप्त मौर्य ने राजा नंद को हरा कर मगध का शासन प्राप्त किया । अपने पिता की मृत्यु के बाद 20 वर्ष की आयु में सिकंदर मकदूनिया (यूनान का एक राज्य) के सिंहासन पर आसीन हुआ 

दो वर्ष पश्चात् वह एक विशाल सेना लेकर विश्व विजय के लिये चल पड़ा । 331 र्इ.पू. में उसने विशाल मखमली साम्राज्य को नष्ट कर डाला और 327 र्इ.पू. में बल्ख या बैक्ट्रियां पर अधिकार करके उसने भारतीय द्वार पर दस्तक दी । सिकन्दर के भीतरी अभियान के दो चरण थे ।



व्यास नदी तक सिकन्दर का अभियान सिकन्दर की वापसी चौथी शताब्दी र्इ.पू. के दौरान यूनान और फारस पश्चिमी एशिया पर अधिकार के लिए लड़े । अन्तत: मकदूनिया के सिकन्दर के नेतृत्व में यूनानियों ने इखमनी साम्राज्य को नष्ट कर दिया । उसने एशिया माइनर, र्इराक और र्इरान को जीता और फिर वह भारत की ओर बढ़ा । 
यूनानी इतिहासकार हिरोदोतम् के अनुसार सिकन्दर भारत की धन-सम्पदा से बहुत आकर्षित हुआ था । सिकन्दर के आक्रमण के समय उत्तर पश्चिम भारत छोटे-छोटे राजतंत्रों में बंटा हुआ था। एकता के अभाव में यूनानियों को उन्हें एक के बाद एक जीतने में मदद की । उनमें सर्वाधिक महत्वपूर्ण राजा थे- आंभी और पोरस । यदि वे अपने मतभेद भुलाकर संयुक्त मोर्चा लेते, तो शायद यूनानियों को हराया जा सकता था । इसके विपरित, तक्षशिला नरेश आंभी ने पोरस के खिलाफ सिकन्दर की मदद की । 

आंभी ने बिना कोर्इ विरोध किए सिकन्दर के सम्मुख समर्पण कर दिया। लेकिन बहादुर पोरस, जिसका राज्य झेलम के किनारे था, ने कड़ा विरोध प्रदर्शित किया । हालांकि वह हार गया, लेकिन सिकन्दर उसकी बहादुरी से प्रभावित हुआ और उसके साथ सम्मान जनक व्यवहार किया व उसका राज्य भी लौटा दिया । इसके बाद सिकन्दर व्यास नदी की ओर बढ़ा और उसने पंजाब के काफी राज्यों को हरा दिया । वह पूर्व दिशा में आगे बढ़ना चाहता था, लेकिन उसके सैनिकों ने मगध के नंदा की विशाल सेना और शक्ति के बारे में सुना और हतोत्साहित होकर, उन्होंने आगे बढ़ने से इंकार कर दिया। 

यूनानी इतिहासकारों के अनुसार दस वर्षो के लंबे अभियान के बाद उन्हें घर की याद भी सताने लगी थी । सिकन्दर के बार-बार अनुरोध करने के बावजूद सैनिकों ने पूर्व दिशा की ओर बढ़ने से इंकार कर दिया और सिकन्दर को लौटना पड़ा । इस तरह पूर्व में साम्राज्य स्थापित करने का उसका सपना पूरी तरह साकार नहीं हुआ । वापसी यात्रा में सिकन्दर ने अनेक छोटे-मोटे गणतंत्रों जैसे सिबि और शुद्रक को हराया । सिकन्दर भारत में 19 महीनों (326 र्इ.पू.-325 र्इ.पू.) तक रहा । इन महीनों में उसने युद्ध ही युद्ध किए । 323 र्इ.पू. में 32 वर्ष की अल्पायु में उसकी बेबीलोन (बगदाद के निकट) में मृत्यु हो गर्इ । सिकन्दर को अपनी विजयों को व्यवस्थित करने का समय नहीं मिला । 

ज्यादा राज्यों को उसके शासकों को, जिन्होंने उसकी सत्ता स्वीकार कर ली, लौटा दिया गया । उसने अपने अधिकृत क्षेत्र, जिनमें पूर्वी यूरोप के कुछ भाग और पश्चिमी एशिया का कुछ बड़ा भाग शामिल था, को तीन भागों में बांटा । उसके लिए सिकन्दर ने तीन राज्यपाल नियुक्त किए । उसके साम्राज्य का पूर्वी हिस्सा सेल्यूक्स निकेटर को मिला, जिसने अपने स्वामी सिकन्दर की मृत्यु के बाद, स्वयं को राजा घोषित कर दिया । सिकन्दर के आक्रमण ने भारत में राजनीतिक एकता का मार्ग प्रशस्त किया । सिकन्दर ने सभी छोटे और झगडालू राज्यों को जीत लिया था, और इस क्षेत्र में मोर्यो का विस्तार आसान हो गया । सिकन्दर 326 र्इ.पू. में भारत पर आक्रमण किया । 

उसने पंजाब को झेलम नदी तक जीत लिया था । लेकिन वह अपना साम्राज्य को व्यवस्थित नहीं कर पाया । सिकन्दर के आक्रमण ने राजनीतिक एकता की प्रक्रिया में मदद की । छठी शताब्दी र्इ.पू. में भगवान बुद्ध के समय में सोलह महाजनपद या विस्तृत प्रादेशिक राज्य थे । उनमें से कुछ साम्राज्यवादी थे और कुछ लोकतंत्रात्मक । इन सोलह राज्यों में से मगध अन्तत: सर्वोच्च शक्ति बन गया ।

ध के उत्थान में कुछ कारक उत्तरदायी थे । वहां प्राप्त लोहे की खानों से लोगों को मजबूत हथियार बनाने में मदद मिली । उपाजा़ऊ भूमि, अतिरिक्त अन्न और समुद्री मार्ग बनाने वाली नदियों ने व्यापार और वाणिज्य के विकास में मदद की । फलत: मगध सर्वाधिक उन्नतिशील और शक्तिशाली राज्य बन गया । बिम्बसार ऐसा पहला राजा था, जिसने मगध को बड़ा बनाया । उसने यह विजयों और वैवाहिक संबंधों के द्वारा किया । अजाजशत्रु के शासनकाल मगध में विशाल साम्राज्य बन गया । 

नदं काल में यह शिखर पर पहुंच गया । धीरे-धीरे मगध ने अनेक सीमावतीर् राज्यों को अपने साथ मिला लिया । सिकन्दर ने जब उत्तर पश्चिमी भारत पर आक्रमण किया, तो नंद शासक थे । भारत में बहुत आगे बढ़ने के बजाय यूनानी नेता शीघ्र ही वापिस चला गया । संभवत: यूनानियों ने सोचा कि मजबूत मगध साम्राज्य के साथ मुकाबला बुद्धिमत्ता नहीं है ।


साइरस महान और टेरियस के नेतृत्व में फारसी या इखमनी साम्राज्य विश्व के सबसे बड़े साम्राज्यों में से एक हो गया । बाद के साम्राज्यों ने इसे अनेक मामलों में आदर्श बनाया । साइरस द्वारा अपनार्इ गर्इ नीति के अनुसार सम्राट की शक्ति लागू करने में है। उसने विजित लोगों को अपने  रिवाज और धर्म के पालने  की अनुमति दी । बदले में उसने  उनसे कर और आज्ञाकारिता चाही ।  

यह साम्राज्य क्षत्रपी नामक रजवाड़ों में बंटा था, जिसका प्रमुख राज्यपाल होता था जो क्षत्रप कहलाता था । एक फारसी गैरियन (एक छोटी सैनिक टुकड़ी) और राजसी निरीक्षक (जो राजा की आंखें और कान कहे जाते थे) क्षत्रपों के काम का मुआयना करती थी । क्षत्रपों के साथ अलग सचिवालय पत्र व्यवहार करता था । साम्राज्य की एकता बनाए रखने के लिए अनेक उपाय किए जाते थे । एक समान मुद्रा प्रणाली आरम्भ की गर्इ । रजवाड़ों से प्राप्त राशि का एक बड़ा हिस्सा सड़क बनवाने पर व्यय होता था । नियमित अन्तराल पर विश्राम गृहों का निर्माण किया गया ।


फारसी साम्राज्य की महानता उनकी वास्तुकला में प्रतिबिंबित होती है । पर्सीपोलिस के सुन्दर, शानदार खंडहर फेरियस और बाघ के राजाओं द्वारा ऊॅंचे चबुतरों पर निर्मित राज महलों का समूह दिखाते हैं । सीढ़ियों के साथ बनी पट्टियों पर सैनिकों, देशों और राजा के लिए भेंट लाते क्षेत्र के प्रतिनिधि दिखाए गए है । इस साम्राज्य के वैविध पूर्ण चरित्र का पता चलता है । 
फारसी जीवन का मानवतावाद शायद उनके धर्म जोरोस्त्रेन से आया  है जो अच्छे विचारों कार्यों, और शब्दों की प्रेरणा देता है । हालांकि फारस से जोरोस्त्रेन का सफाया हो गया है, लेकिन भारत के फारसियों मे वह अभी भी है । इस तरह फारसी साम्राज्य एक वास्तविक महान् साम्राज्य बना, जिसका प्रभाव आगे आने वाले कालों में भी देखा गया ।





फारसी आक्रमणोंं का प्रभाव



उत्तर पश्चिमी भारत में फारसी शासन लगभग दो शताब्दियों तक रहा । इस दौरान इन दो देशों में नियमित संपर्क रहा होगा । सम्भवत: स्काइलैक्स के समुद्री अभियान ने फारस (र्इरान) और भारत के बीच व्यापार और वाणिज्य को बढ़ाया । पंजाब में सोने और चांदी के कुछ प्राीचन सिक्के मिले हैं । हालांकी उत्तर पश्चिमी सीमा के पर्वतीय दरें बहुत पहले से इस्तेमाल किये जाते थे लेकिन ऐसा लगता है कि महान इखमनी शासक टेरियस के नेतृत्व में एक नियमित सेना पहली बार इन दरों से भारत में दाखिल हुर्इ । 

बाद में सिकंदर की सेना ने जब पंजाब पर आक्रमण किया तो वह इसी रास्ते से आर्इ । इस साम्राज्य की प्रशासनिक संरचना फारस के इखमनी साम्राज्य से बहुत मिलती जुलती थी । फारसी पद सतयप (राज्यपाल) का प्रयोग भारतीय राजाओं के राज्यपाल के लिए क्षत्रप के रूप में काफी लम्बे समय तक होता रहा ।



फारसियों के संपर्क से आए सांस्कृतिक संपर्क भी काफी महत्वपूर्ण हैं । फारसी लेखक भारत में एक नर्इ लेखन शैली लेकर आये । अरमी लिपि से प्राप्त इस शैली को खरोष्ठी कहा जाता है और इसे दाएं से बाए लिखा जाता है । उत्तर पश्चिमी भारत में मिले अशोक के अनेक अभिलेख खरोष्ठों में ही लिखे गए है । यह लिपि उत्तर पश्चिमी भारत में तीसरी शताब्दी र्इ. तक प्रयुक्त होती रही । 

अशोक के विज्ञप्पतियों की प्रस्तावना में भी फारसी प्रभाव देखा जा सकता है । मौर्य कला और वास्तुकला भी फारसी कला से बहुत प्रभावित हुर्इ । अशोक की लाटों के अखंडित खंभे, जिनके शीर्ष इखमनी घंटियों के आकार के हैं, पर्सीपोलिस में प्राप्त सम्राटों के विजय स्तम्भ के जैसे ही है ।




मजबूत केंद्रिक सरकार के अन्र्तगत मगध एक बड़े राज्य के रूप में विकसित हुआ, यह बिम्बसार, अजातशत्रु और महापद्म नंद जैसे अनेक महत्वाकांक्षी राजाओं की जीतोड़ मेहनत का नतीजा था, जिन्होंने साम्राज्यवादी नीति के तहत अपनी शक्ति को बढ़या । धार्मिक दृष्टि से भी मगध बहुत महत्वपूर्ण बन गया । जैन धर्म और बौद्ध धर्म दोनों इसी क्षेत्र में विकसित हुए, जिन्होंने लोगों के सामाजिक जीवन को बहुत प्रभावित किया । कृषि और व्यापार के विकास से वैश्य समुदाय समृद्ध हो गया, लेकिन ब्राम्हणवाद समाज से उसे कोर्इ मान्यता नहीं मिली । 

इसलिए उन्होंने जैन धर्म और बौद्ध धर्म को स्वीकार करना अधिक अच्छा समझा, जो रूढ़ जाति पद्धति को मान्यता नहीं देते थे और साथ ही पशु बलि पर भी प्रतिबंध लगाते थे, जो कृषि अर्थ व्यवस्था में अत्यन्त महत्वपूर्ण थे । जैसा कि पहले बताया जा चुका है, मगधवासियों ने इस क्षेत्र में उपलब्ध समृद्ध लोहे की खनों का इस्तेमाल मजबूत हथियार और कृषि औजार बनाने के लिए किया । इसने उन्हें राजनीतिक और आर्थिक दृष्टि से लाभ की स्थिति प्राप्त करने में मदद की । 

मगध को कुछ और सुविधाएं भी थी । मगध की दोनों राजधानियां पहले राजगीर और बाद में पाटलीपुत्र, सामाजिक दृष्टि से महत्वपूर्ण स्थिति में थी । राजगीर का दुर्ग पांच पहाड़ियों से घिरा हुआ था । इसलिए इसे गिरिवज्र भी कहा जाता था । आक्रमणकारियों के लिए राजधानी से घुसना अत्यन्त कठिन था ।


पांचवी शताब्दी र्इ.पू. मगध की राजधानी पाटलिपुत्र में स्थानांतरित हो गर्इ, जिसे अजातशत्रु के पुत्र उदयिन ने बनाया था । पाटलिपुत्र तीन नदियों, गंगा, गंडक और सोन के संगम पर स्थित था । चौथी नदी सरयू भी पाटलीपुत्र के निकट गंगा में मिलती थी । चारों ओर से इसे नदियों ने घेरा हुआ था, जिसने इसे वस्तुत: ‘‘जलदुर्ग’’ बना दिया था जहां शत्रुओं की पहुंच प्राय: असंभव थी। इन नदियों को राज मार्ग, की तरह इस्तेमाल करके मगध के राजा अपने सैनिकों को किसी भी दिशा में भेज सकते थे । 


गंगा और उसकी सहायक नदियों द्वारा लार्इ गर्इ उपजाऊ कछारी मिट्टी ने मगध क्षेत्र को बहुत अधिक समृद्ध बना दिया । लोहे के औजारों और उपकरणों से जंगलों को साफ करके अधिकाधिक भूमि पर खेती की जाने लगी । उष्ण वातावरण और भारी वर्षा से किसान बिना किसी खास कठिनार्इ के भारी फसल उगा पाते थे । बौद्ध ग्रंथों में आया है कि मगध के किसान चावलों की अनेक किस्में उगाते थे । अतिरिक्त उपज का इस्तेमाल राजा अपने सैनिकों और अधिकारियों को वेतन देने के लिए कर सकते थे । 

अतिरिक्त अन्न के कारण व्यापार भी फला फूला । मगध के जल मार्गो ने पूर्व भारत के व्यापार और वाणिज्य को नियंत्रित किया । इन नदियों के किनारे अनेक महत्वपूर्ण नगर, महत्वपूर्ण व्यापार केन्द्रों के रूप में विकसित हुए, जिस ने मगध के राजाओं को वस्तुओं की बिक्री पर मार्ग कर लगाने की अभिप्रेरणा दी । इससे उन्हें अपार संपदा एकत्रित करने और विशाल सेना रखने में मदद हुर्इ । 


युद्ध हाथी मगध की सेना का विशेष अंग थे । मगध पहला राज्य था, जिसने युद्ध में हाथियों का इस्तेमान बड़े पैमाने पर किया । बाकी अन्य राज्य प्राय: रथों और, घोड़रों पर निर्भर थे । दुर्गो को गिराने और दलदल में चलने में हाथी उपयोगी थे । युनानी स्त्रोतां से हमें पता चलता है कि मगध की सेना में 6,000 हाथी थे, जिन्होंने सिकन्दर के नेतृत्व में पंजाब पर कब्जा कर चुके सैनिकों के मन में दहशत पैदा कर दी थी । 

संभवत: यह उन कारणों में से एक था, जिनकी वजह से मगध साम्राज्य पर आक्रमण करने के स्थान पर वह यूनान वापस लौट गए । मगध के समाज के गैर रूढिवादी चरित्र ने भी अप्रत्यक्ष रूप से इसके विकास में मदद की। कुछ प्रमुख इतिहासकारों का मत है कि शक्तिशाली राज्य के रूप में मगध के उदय का प्रमुख कारण इस क्षेत्र के लोगों का जातीय मिश्रण था । अनेक समुदायों का मिला-जुला रूप मगध में था, जिससे एक मिश्रित संस्कृति का विकास हुआ, जो प्रकृति में रूढिवादी वैदिक समाज से बहुत भिन्न थी । 


मगध की भौगोलिक स्थिति ने इसके इतिहास को बहुत प्रभावित किया । इसने इसे विदेशी आक्रमणों से बचाया और वहां के निवासियों के हित में व्यापार और खेती को बढ़ाया । इसकी लोहे की समृद्ध खानों ने मगध के लोगों को लोहे के हथियार व औजार बनाने में मदद की । मगध के लोगों के जातीय मिश्रण ने उन्हें गैर रूढ़िवादी बनाया ।






यूनानी आक्रमण का प्रभाव 

मकदूनियां और प्राचीन भारतीयों से संपर्क बहुत कम समय तक रहा, लेकिन उसका प्रभाव बहुत बडे स्तरों पर हुआ । स्मिथ ने लिखा है कि तूफान के सामने भारतीयों ने अपना सिर झुका लिया और उसे गुजर जाने दिया और वे फिर विचारमग्न हो गयें । यह सत्य है कि सिकन्दर भारत में सिर्फ 19 महीने रहा और उसका विशाल साम्राज्य ताश के पत्तो की भॉति शीघ्र ही बिखर गया। परन्तु यह नहीं कहा जा सकता कि सिकन्दर का आक्रमण नितान्त महत्व शून्य था । 




1. राजनैतिक प्रभाव



सिकन्दर के आक्रमण ने उत्तर पश्चिमी भारत के झगडालू जनजातियों पर विजय प्राप्त करके इस क्षेत्र में राजनीतिक एकता का मार्ग प्रशस्त किया । ऐसा प्रतीत होता है कि इस अभियान से सिकन्दर ने चंद्रगुप्त मौर्य के इस क्षेत्र को जीतने के काम को आसान कर दिया । सिकन्दर के प्रस्थान के तुरंत बाद चंद्रगुप्त मौर्य ने उसके सेनापति सेल्युकस निकेटर को हराकर अफगानिस्तान तक उत्तर पश्चिमी भारत को अपने नियंत्रण में कर लिया ।




2. सांस्कृतिक प्रभाव



 यूनानी कला का प्रभाव भारतीय मूर्तिकला के विकास में भी देखा जा सकता है । यूनानी और भारतीय शैली के मेल ने कला के गंधार स्कूल का निर्माण किया । भारतीयों ने जैसे यूनानियों से सुगरित और सुंदर चांदी-सोने के सिक्कों के कला भी सीखी । यूनानियों ने भारतीय ज्योतिष पर भी कुछ प्रभाव छोड़ा ।


पाल मेसन ओर्सेल के अनुसार ‘‘आठ वर्षो के यूनानी आधिपत्य से कर्इ शताब्दियों के युग का आरम्भ हुआ । उन शताब्दियों में यूनानी संस्कृति सभ्यता के क्षेत्र में एक मुख्य अंग रही और भारत के पश्चिमवर्ती प्रदेश में प्रशासन पर भी इसका पर्याप्त प्रभाव पड़ा । भूमध्यसागरीय सभ्यता का पंजाब और मध्य एशिया की सभ्यता से सीधा सम्बन्ध स्थापित हुआ । पूर्व और पश्चिम के मध्य में सैमितिक बेबिलोनिया और र्इरानी साम्राज्य दीवार के रूप में खडे न रह सके । 




3. सामाजिक प्रभाव



 तत्कालीन उत्तरी और उत्तर-पश्चिमी भारत की सामाजिक और आर्थिक स्थितियों के बारे में अनेक मूल्यवान सूचनाएं हमें अरियान, नौसेनापति नियारकस और मेगस्थनीज यूनानियों के विवरणों से मिलती है । वे हमें अनेक शिल्पकार्यो के विकसित रूपों, विदेशों के सक्रिय व्यापार की स्थिति और देश की आय समृद्ध स्थिति के बारे में बताते है । इन लेखों में अनेक स्थानों पर बढ़र्इगीरि को बढ़ते-फैलते व्यापार के रूप में उल्लेखित किया गया है । ऐसा प्रतीत होता है कि सिकन्दर ने नियारकस के नेतृत्व में जो बेड़ा पश्चिमी समुद्र तट के साथ-साथ भेजा था, वह भारत में ही बना था ।


सिकन्दर के साहसिक अभियान के पश्चिम को भारतीय जीवन और विचारों के बारे में जानने में मदद की । ऐसा कहा जाता है कि भारतीय दर्शन और धर्म पर जो विचार रोम साम्राज्य में पहुंचे थे उसी मार्ग के कारण वे जिसे सिकन्दर ने खोला । यूनानी लेखकों ने सिकन्दर के अभियान के स्पष्ट तिथिवार ब्योरे छोडे है । इनसे हमें प्राचीन भारतीय इतिहास का समयवार आयोजित करने में बहुत मदद मिलती है । सिकन्दर के आक्रमण की तिथि 326 र्इ.पू. एक निश्चित संकेत बिन्दु है जो हमें इसके आसपास पहले और बाद की घटनाओं को व्यवस्थित करने की सुविधा देता है ।


सिकन्दर के आक्रमण के बाद भारत और पश्चिम काफी करीब आ गए । यूनानी और भारतीय कला के मेल से गंधार कला स्कूल का विकास हुआ । इस संपर्क से युरोप में भी भारतीय दर्शन और धर्म के बारे में कुछ सीखा और ग्रहण किया । प्राचीन भारतीय इतिहास की घटनाओं को व्यवस्थित करने में सिकन्दर के आक्रमण की तिथि बहुत मददगार साबित हुर्इ ।






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