भगवान श्रीकृष्ण के देहावसान के पश्चात पांडवों ने उनका दहन कर दिया । हैरानी की बात थी कि उनका पूरा शरीर जल गया लेकिन उनका दिल का भाग बार-बार प्रयत्न के बाद भी जल नहीं रहा था । उनका दिल अभी भी जीवित था और धड़क रहा था । ऐसी स्थिति में पांडवों ने ज्यों की त्यों ही अस्थियां नदी में प्रवाहित कर दीं ।
मालव देश (मालवा) के शासक इंद्रदयुम्न भगवान कृष्ण के अनन्य भक्त थे । एक रात भगवान श्रीकृष्ण ने उन्हें स्वपन में दर्शन दिए तथा उसे नीलांचल में उनका एक मंदिर बनवाने का आदेश दिया । भगवान श्रीकृष्ण ने इंद्रदयुम्न को कहा कि वह नीलांचल पर्वत पर जाए तथा वहां एक गुफा में मेरी मूर्ति है जिसे नीलमाधव कहा जाता है उसे इस मंदिर में स्थापित करे।
राजा ने अपने चार पुरोहितों को नीलांचल पर्वत में भेजकर नीलमाधव की मूर्ति ढूंढने के कार्य में लगा दिया । इन पुरोहितों में विद्यापति नामक एक पुरोहित था जिसने नीलमाधव के बारे में सुन रखा था । विद्यापति यह जानता था कि सबर जनजाति के लोग नीलमाधव देव के उपासक हैं । लेकिन विद्यापति उस गुफा के बारे में नहीं जानता था जहां नीलमाधव की मूर्ति थी । सबर जनजाति का मुखिया विश्ववसु था जो नीलमाधव का पक्का उपासक था । वह रोज रात्रि के अंतिम पहर में गुफा में जाता और नीलमाधव की उपासना करता। सुबह होते ही वह वापिस कबीले में लौट आता ।
विद्यापति यह भली भांति जानता था कि सबर जनजाति के लोग गुप्त रूप से नीलमाधव की पूजा करते थे । अतः उसके लिए गुफा के बारे में जानना व मूर्ति तक पहुंचना आसान नहीं था ।विद्यापति ने चतुराई से काम लेते हुए मुखिया की बेटी से शादी कर ली तथा वहीं कबीले में उनके साथ रहने लगा । विद्यापति यह रोज देखता था कि उसका ससुर विश्ववसु रोज रात्रि को घर से निकलता तथा सुबह वापिस लौट आता था । हालांकि वह यह जानता था कि विश्ववसु नीलमाधव की उपासना करने के लिए जाता है लेकिन वह मूर्ति तक पहुंचने के लिए सही समय के इंतजार में था ।
कुछ समय पश्चात विद्यापति ने अपनी पत्नी से इसका कारण पूछा तो उसने पहले तो परिवार के इस रहस्य को नहीं बताया लेकिन पति की जिद्द के आगे वह हार गई । उसने विद्यापति को अपने परिवार का हिस्सा मानते हुए इस मूर्ति के बारे में उसे बता दिया ।
विद्यापति ने अपनी पत्नी से इस मूर्ति को देखने की इच्छा प्रकट की । काफी समझाइस के बाद विश्वसु भी अपने दामाद विद्यापति को यह नीलमाधव की मूर्ति दिखाने के लिए मान गया । लेकिन उसकी शर्त थी कि वह विद्यापति की आंखों पर पट्टी बांध कर उस गुफा तक ले जाएगा ताकि वह गुफा तक पहुंचने का रास्ता ना देख पाए । विद्यापति की आंखों पर पट्टी बांध कर गुफा तक ले जाया गया लेकिन विद्यापति ने बड़ी ही चतुराई से रास्ते में राई व सरसों के दाने बिखेर दिये । गुफा में पहुंचते ही विद्यापति ने देखा कि गुफा में नीला प्रकाश फैला हुआ था तथा हाथों में मुरली लिए भगवान श्रीकृष्ण की नीले रंग की मूर्ति वहां स्थापित थी ।
कुछ समय जब सरसों के दाने अंकुरित हो गये तो विद्यापति को गुफा तक जाने का रास्ता भी मिल गया । विद्यापति ने गुफा में पहुंचकर मूर्ति चुरा ली तथा राजा इंद्रदयुम्न को यह मूर्ति सौंप दी ।
मूर्ति के चोरी हो जाने से विश्ववसु बहुत दुखी था । हालांकि वह यह जान गया था कि मूर्ति को विद्यापति ने ही चुराया है । चूंकि विश्ववसु भगवान श्रीकृष्ण के अनन्य भक्त थे अतः अपने भक्त को दुखी देखकर भगवान पुनः गुफा में लौट गये ।
मूर्ति के गायब हो जाने से इंद्रदयुम्न दुखी हो गया। रात्रि को भगवान श्रीकृष्ण इंद्रदयुम्न के सपने में आये तथा उससे कहा कि तुम पहले मंदिर का कार्य पूरा करवाओ तथा मूर्ति की चिंता मत करो । कुछ समय बाद जब मंदिर निर्माण का कार्य पूरा हो गया तो प्रभु ने आकाशवाणी की कि राजन नदी में बहता हुआ एक लकड़ी का लठ्ठा किनारे पर आ गया है । तुम इस लठ्ठे को लाओ तथा इसकी मूर्ति बनाकर मंदिर में स्थापित कर दो ।राजा ने ठीक वैसा ही किया सुबह अपने पुरोहितों व सैनिकों के साथ नदी के किनारे पहुंचा । लठ्ठा नदी के किनारे पानी में तैर रहा था लेकिन तमाम कोशिशों के बाद भी सैनिक उस लठ्ठे को नदी से बाहर नहीं निकाल पाये ।
दोस्तों, ऐसी मान्यता है कि पांडवों ने जब श्रीकृष्ण का दहन किया था तब उनका हृदय जो दहन नहीं हो रहा था उसे वैसी ही अवस्था में नदी में प्रवाहित कर दिया था । नदी में बहता हुआ यह हृदय दक्षिण भारत में आ पहुंचा था । समय बीतने के साथ-साथ यह हृदय लकड़ी में परिवर्तित हो गया था । यह वही लकड़ी थी जिसकी मूर्ति बनाई जानी थी ।
राजा सारी बात समझ गया । जब लकड़ी का लठ्ठा पानी से बाहर नहीं निकला तो वह तुरंत विद्यापति को लेकर विश्ववसु के पास पहुंचा । राजा ने मूर्ति चोरी के लिए विश्ववसु से माफी मांगी तथा लठ्ठे वाली बात उसे बताई । विश्ववसु राजा के साथ नदी के किनारे पहुंचा तथा बिना किसी की मदद के अकेले ही उस लठ्ठे को निकालकर मंदिर तक पहुंचा दिया ।
लठ्ठा तो मंदिर में पहुंच गया लेकिन अब बात आई इससे मूर्ति बनाने की । आसपास के कारीगरों को उस लठ्ठे से मूर्ति बनाने के लिए बुलाया गया लेकिन हैरानी की बात थी कि ज्यों ही कोई कारीगर अपनी छेनी और हथौड़ी उस लठ्ठे पर लगाता तो वह टूट जाती ।
कुछ दिनों बाद भगवान विश्वकर्मा एक बुजुर्ग कारीगर के रूप में राजा इंद्रदयुम्न के पास पहुंचे तथा उसे इन मूर्तियों को बनाने की बात कही । लेकिन बुजुर्ग कारीगर ने राजा के समक्ष शर्त रखी कि वह यह कार्य भूखे-प्यासे एक बंद कमरे में करेंगे । उन्हें इस कार्य में 21 दिनों का समय लगेगा तब तक कोई उनके कमरे का दरवाजा खोलने का प्रयत्न भी ना करे । अन्यथा वह अपना कार्य बीच में ही छोड़ कर चले जायेंगे ।राजा ने कारीगर की शर्त मान ली । कारीगर ने अपना कार्य शुरू कर दिया तथा राजा भी रोज सुबह-शाम इस कार्य का निरीक्षण करता था । हालांकि राजा ने दरवाजा खोलने का प्रयास नहीं किया । वह बाहर से ही छेनी-हथौड़ी की आवाज से समझ जाता था कि कार्य चल रहा है ।
कार्य का अंतिम दिन था । राजा व उसकी पत्नी कार्य का निरीक्षण करने के लिए दरवाजे के पास पहुंचे । लेकिन उस दिन उन्हें कमरे में किसी भी प्रकार की हलचल या आवाज सुनाई नहीं दी । उन्हें लगा कहीं उस बुजुर्ग कारीगर को भूख व प्यास के कारण कुछ हो ना गया हो ।अतः यह देखने के लिए उन्होंने दरवाजा खोल दिया । दरवाजा खुलते ही बुजुर्ग कारीगर ने कहा अब कुछ नहीं हो सकता । जिस अवस्था में अब मूर्तियां हैं उन्हें वैसी ही स्थापित करना होगा । इतना कहकर वह बुजुर्ग कारीगर गायब हो गया ।
जिस अवस्था में भगवान विश्वकर्मा ने मूर्तियों को छोड़ा था उस अवस्था में तीनों मूर्तियों के धड़ के नीचे का हिस्सा बनाया ही नहीं गया था जबकि बहिन सुभद्रा को भगवान जगन्नाथ (श्रीकृष्ण) व बलभद्र (बलराम) के छोटे-छोटे हाथ ही बने थे । आज भी ये मूर्तियां उसी अवस्था में देखने को मिलती हैं जिस अवस्था में इन्हें छोड़ा गया था ।
निष्कर्ष
कहते हैं इन मूर्तियों को हर बारह साल के बाद बदला जाता है । इन मूर्तियों को बदलते समय सरकार द्वारा पूरे पुरी शहर की बिजली काट दी जाती है तथा मंदिर की सुरक्षा व्यवस्था के लिए बाहर सेना तैनात कर दी जाती है । मंदिर में पूरी तरह अंधेरा होता है । यहां तक कि मूर्तियां बदलने के लिए जो पुजारी मंदिर में जाता है उसकी आँखों पर भी पट्टी बांध दी जाती है । यह सब इसलिये किया जाता है ताकि मूर्तियों को बदलने वाला वह पुजारी अथवा कोई भी उस ब्रह्म पदार्थ को ना देख पाये जो उन पुरानी मूर्तियों से निकाल कर नई मूर्तियों में फिर से रखा जाता है ।
ऐसा माना जाता है कि जो भी उस ब्रह्म पदार्थ को देखने का प्रयास करता है उसकी मृत्यु हो जाती है। यह ब्रह्म पदार्थ क्या है इस बात को आज तक कोई नहीं जान पाया । मूर्ति बदलने वाले पुजारी के अनुसार जब वह अपने हाथों से उठाकर उस ब्रह्म पदार्थ को मूर्ति में रखता है तब खरगोश जैसा कुछ मुलायम सा हाथों में उछल-कूद करता महसूस होता है । दोस्तों ऐसी मान्यता है कि यह ब्रह्म पदार्थ भगवान कृष्ण का हृदय है जो नदी में बहता हुआ आया था ।
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