वैष्णव सम्प्रदाय भगवान विष्णु व उनके अवतारों (श्रीकृष्ण) की उपासना करने वालों का सम्प्रदाय है । इस सम्प्रदाय को पांचरात्र अथवा भागवत धर्म आदि नामों से भी जाना जाता है । भगवान विष्णु (वासुदेव) को ज्ञान, तेज, शक्ति , बल, ऐश्वर्य व वीर्य आदि छः गुणों से भरपूर होने के कारण भगवान अथवा भगवत कहा जाता है जबकि इनके उपासकों को भागवत कहा गया है । वैष्णव सम्प्रदाय भी शैव सम्प्रदाय की तरह हिन्दू धर्म का प्रमुख सम्प्रदाय है । वैष्णव धर्म में मूल रूप से चार सम्प्रदाय हैं जो निम्नलिखित हैं-
- ब्रह्म सम्प्रदाय
- श्री सम्प्रदाय
- रुद्र सम्प्रदाय
- कुमार संप्रदाय
वैष्णव धर्म के प्रवर्तक
ब्रह्म सम्प्रदाय
ब्रह्म सम्प्रदाय के प्रथम प्रवर्तक भगवान ब्रह्मा जी थे । भगवान विष्णु के दिव्य ज्ञान का प्रकाश ब्रह्मा जी से नारद जी तथा नारद जी से यह परम्परा आगे बढ़ती रही आगे चलकर वेद व्यास जी हुए । इस सम्प्रदाय के प्रमुख प्रवर्तक आचार्य माधवाचार्य जी थे जिनके नाम पर इस सम्प्रदाय को माध्व सम्प्रदाय के नाम से जाना जाने लगा । इन्होंने छोटी उम्र में ही ‘गीता भाष्य‘ का निर्माण कर बद्रिकाश्रम में वेदव्यास जी को अर्पण किया । जिससे प्रसन्न होकर वेदव्यास जी ने इनको राम व शालिग्राम की मूर्तियां दी जिनको इन्होंने सुबह्मण्य, उडुपी और मध्यतल के तीनों स्थानों में स्थापना की । भारत में भक्ति आंदोलन के प्रमुख प्रवर्तकों में से एक आचार्य माधवाचार्य को पूर्णप्रज्ञ व आनंदतीर्थ आदि नामों से भी जाना जाता है । इन्हें वायु का अवतार भी कहा जाता है । आचार्य माधवाचार्य जी द्वैतवाद दर्शन के प्रणेता थे । द्वैतवाद वेदांत के तीन प्रमुख दर्शनों में से एक है । आचार्य माधवाचार्य के अनुसार ईश्वर व जीव अलग- अलग हैं । ब्रह्म सगुण और सविशेष है। ब्रह्म अपनी इच्छा से सृष्टि की रचना करता है ।
आचार्य माधवाचार्य जी का जन्म दक्षिण भारत (तमिलनाडु) में उडुपी के निकट वेलीग्राम नामक स्थान पर 1238 ई. में विजय दशमी को हुआ था । अद्वैत मत के अनुयायी अच्युतप्रेक्ष नामक आचार्य से इन्होंने विद्या ग्रहण की । लेकिन बाद में अद्वैतवाद से असंतुष्ट होकर उन्होंने द्वैतवाद का प्रतिपादन किया । चैतन्य महाप्रभु भी इसी सम्प्रदाय से थे जिन्होंने ब्रह्ममाध्वगौड़ेश्वर (गौड़ीय वैष्णव) संप्रदाय की नींव रखी ।
श्री सम्प्रदाय
इस सम्प्रदाय की प्रथम प्रवर्तक भगवान विष्णु की पत्नी महालक्ष्मी जी थीं । इस सम्प्रदाय के लोग लक्ष्मीनारायण (भगवान विष्णु ) की पूजा करते हैं । इस सम्प्रदाय के प्रमुख प्रवर्तक रामानुजाचार्य थे । जिनके नाम पर इस सम्प्रदाय का नाम रामानुज सम्प्रदाय पड़ा । रामानुजाचार्य वेदांत के विशिष्टाद्वैत दर्शन के प्रतिपादक थे तथा सगुन ईश्वर में विश्वास करते थे । इन्हें भगवान लक्ष्मण जी का अवतार भी कहा जाता है । इस सम्प्रदाय में आगे रामानंदाचार्य हुए जिन्होंने रामानंद संप्रदाय की स्थापना की । गोस्वामी तुलसीदास जी रामानंद सम्प्रदाय से थे ।
रामानुज का जन्म तमिलनाडु के पेराम्बदूर में हुआ था । इनकी गतिविधियों का प्रमुख केंद्र कांची और श्रीरंगम था । इन्होंने श्रीरंगम मंदिर में शिक्षण का कार्य किया । इनके गुरु यादव प्रकाश थे जिससे इन्होंने कांची में वेदांत की शिक्षा हासिल की । शैव अनुयायी चोल शासक कुलोत्तुंग प्रथम के विरोध के कारण रामानुज को श्रीरंगम छोड़ना पड़ा तथा इसके पश्चात इन्होंने तिरुपति को अपना केंद्र बनाया।
रुद्र सम्प्रदाय
इस सम्प्रदाय के प्रथम प्रवर्तक भगवान शिव शंकर थे । भगवान शंकर के नाम पर इस सम्प्रदाय को रुद्र सम्प्रदाय अथवा शंकर सम्प्रदाय के नाम से जाना गया । इस सम्प्रदाय में आचार्य विष्णु स्वामी जी हुए जिन्होंने विष्णु स्वामी सम्प्रदाय की स्थापना की । इस सम्प्रदाय के प्रमुख प्रवर्तकों में एक वल्लभाचार्य थे जिनके नाम पर इस सम्प्रदाय को वल्लभ सम्प्रदाय के नाम से भी जाना गया । वल्लभाचार्य का जन्म वाराणसी में 1479 ई. में हुआ । इनकी शिक्षा भी वाराणसी में ही हुई । वल्लभाचार्य जी विष्णु स्वामी जी के शिष्य थे । वल्लभाचार्य द्वारा शुद्धाद्वैतवाद दर्शन का प्रतिपादन किया गया । वे मोक्ष प्राप्ति के लिए भक्ति मार्ग व पुष्टि मार्ग में विश्वास रखते थे । वल्लभाचार्य ने आत्मा व संसार का ब्रह्म के साथ पूर्ण सादृश्य माना है तथा आत्मा व ब्रह्म में किसी विभेद को स्वीकृति नहीं दी । इस सम्प्रदाय के लोग भगवान कृष्ण के बाल रूप श्रीनाथजी की पूजा करते हैं । इस सम्प्रदाय की मुख्य पीठ श्रीनाथजी, नाथद्वारा (राजसमंद, राजस्थान) में है । सूरदास, कुम्भन दास जी व परमानन्द दास जैसे महान संत भी इसी सम्प्रदाय से थे । ये तिनों वल्लभाचार्य के शिष्य थे ।
कुमार सम्प्रदाय
कुमार सम्प्रदाय को चतुर्षकुमार सम्प्रदाय व सनक सम्प्रदाय के नाम से भी जाना जाता है । इस सम्प्रदाय के प्रथम प्रवर्तक सनकादि ऋषि अथवा सनकादि कुमार थे जिन्हें भगवान विष्णु के 20वें अवतार भगवान हंस से दिव्य ज्ञान की प्राप्ति हुई । ब्रह्मा जी के चार मानस पुत्रों सनक, सनंदन, सनातन तथा सनत्कुमार को ही सनकादि ऋषि अथवा सनकादि कुमार के नाम से जाना जाता है ।
इस सम्प्रदाय के प्रमुख प्रवर्तक निम्बार्काचार्य जी थे । इनके नाम पर ही निम्बार्क सम्प्रदाय का जन्म हुआ । इन्होंने वैष्णव संप्रदाय में द्वैताद्वैत/ भेदाभेद दर्शन को प्रचलित किया । इस दर्शन के अनुसार ईश्वर, आत्मा व जगत तीनों में समानता होते हुए भी परस्पर भिन्नता है । निम्बार्काचार्य को सूर्य तथा सुदर्शन चक्र का अवतार कहा जाता है । निम्बार्काचार्य का जन्म में 1250 ई. में दक्षिण भारत के एक तेलुगू ब्राह्मण परिवार में हुआ था । राजस्थान में निम्बार्क सम्प्रदाय की मुख्य पीठ अजमेर जिले के सलेमाबाद में है ।
हालाँकि दोस्तों जैसा मेने पहले बताया, भगवान विष्णु द्वारा चलाई गई इस परम्परा में कई शाखाओं ने जन्म लिया, कई शाखाओं ने अपने मूल सिद्धांतों में कुछ बदलाव भी किये हैं लेकिन इनका मूल वही है और ये सभी संप्रदाय उन मूल संप्रदायों के अंतर्गत ही आते हैं ।
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