भगवान जगन्नाथ जी का मंदिर उड़ीसा के तटवर्ती शहर पुरी में स्थित है । भगवान विष्णु के आठवें अवतार श्री कृष्ण को समर्पित यह मंदिर हिंदुओं के चार धामों में से एक है । मुख्य मंदिर में भगवान जगन्नाथ (श्री कृष्ण), उनके बड़े भाई बलभद्र (बलराम) तथा उनकी बहिन सुभद्रा की काष्ठ की मूर्तियां स्थापित हैं । यह मंदिर हिंदुओं के सबसे प्राचीनतम मंदिरों में से एक है । इस मंदिर की प्राचीनता के प्रमाण हमें पुराणों में मिलते हैं । इस मंदिर को धरती का बैकुंठ भी कहा जाता है । पुरी स्थित भगवान जगन्नाथ के इस मंदिर में मुस्लिम व किसी विदेशी के प्रवेश पर प्रतिबंध है । यहां सिर्फ हिन्दू, सिख, बौद्ध व जैन धर्म के लोगों को ही प्रवेश की इजाजत है ।
भगवान जगन्नाथ का यह मंदिर भारत के सबसे बड़े स्मारक स्थलों में से एक है । यह मंदिर 214 फिट ऊंचे चबूतरे पर बना है । कलिंग शैली के इस मंदिर में स्थापत्य कला व शिल्क का अद्भुत प्रयोग किया गया है । इस मंदिर का वृहत क्षेत्रफल 4 लाख वर्गफुट है तथा चारों तरफ से दीवारों से घिरा हुआ है । मंदिर के शीर्ष पर अष्टधातु से बना सुदर्शन चक्र है जिसे नीलचक्र भी कहा जाता है । यह सुदर्शन चक्र अत्यंत ही पावन व पवित्र माना जाता है । पुरी के अलावा इस क्षेत्र को जगन्नाथपुरी, नीलगिरी, नीलांचल, श्रीक्षेत्र, श्रीपुरषोत्तम क्षेत्र के नाम से भी जाना जाता था ।
जगन्नाथ मंदिर का इतिहास
प्राचीन काल में उड़ीसा को उत्कल प्रदेश के नाम से जाना जाता था । मालवा (मालव देश) के राजा इंद्रदयुम्न ने जगन्नाथ मंदिर का निर्माण करवाया था । इस मंदिर को वर्तमान स्वरूप देने के लिए कलिंग के गंग वंशीय शासक अनंतवर्मन चोडगंग देव 11 वीं शताब्दी में कार्य प्रारंभ करवाया जिसे बाद में उड़ीसा के शासक अनंग भीम ने 1197 ई. में पूरा करवाया । भगवान जगन्नाथ मंदिर को विदेशी आक्रांताओं ने कई बार लूटा व नष्ट किया। लेकिन वह भगवान जगन्नाथ, बलभद्र व सुभद्रा की काष्ठ की मूर्तियों को तोड़ने में असफल रहे क्योंकि आक्रमण के समय हर बार मंदिर के सेवक इन मूर्तियों को मंदिर से बाहर अन्यत्र छुपा देते थे । मुस्लिम आक्रांताओं द्वारा मंदिर पर बार-बार आक्रमण से मंदिर की वास्तुकला को काफी नुकसान पहुंचा ।
भगवान जगन्नाथ की रथ यात्रा
पुरी में भगवान जगन्नाथ की रथयात्रा आषाढ़ शुक्ल पक्ष की दि्तीया को प्रारंभ होती है । भगवान जगन्नाथ की रथयात्रा का हिन्दू धर्म में विशेष महत्व है । यह रथ महोत्सव 10 दिनों तक चलता है । इस रथ यात्रा के लिए रथों को नीम की लकड़ी (दारू) से बनाया जाता है । इस रथयात्रा में बलभद्र(बलराम), श्री जगन्नाथ(श्री कृष्ण) तथा देवी सुभद्रा के लिए तीन अलग-अलग रथ निर्मित किये जाते हैं । इस रथयात्रा में सबसे आगे बलभद्र और सबसे पीछे श्री कृष्ण तथा बीच में देवी सुभद्रा का रथ होता है ।
बलभद्र का रथ लाल व हरे रंग का होता है जिसे 'तालध्वज' कहा जाता है । देवी सुभद्रा का रथ काले,नील व लाल रंग का होता है जिसे 'दर्पदलन' अथवा ‘पद्म रथ’ कहा जाता है जबकि भगवान जगन्नाथ का रथ लाल व पिले रंग का होता है जिसे ' नंदीघोष' अथवा 'गरुड़ध्वज' कहते हैं । यह रथयात्रा जगन्नाथ मंदिर से निकलकर मौसी के घर गुंडिचा मंदिर पहुंचती है ।
भगवान जगन्नाथ रथयात्रा का इतिहास
रथयात्रा की यह परंपरा वर्षों से निरंतर चली आ रही है। अंतिम बार 1733 ई.-1735 ई. में तकी खान के आक्रमण के कारण तीन साल के लिए इस रथयात्रा को रोका गया था । हालांकि इससे भी पहले मुगलों के निरंतर आक्रमण के कारण इस यात्रा को कई बार रोक गया था । 1735 ई. के पश्चात इस यात्रा को किसी भी परिस्थिति में रोका नहीं गया । यहां तक कि 1876 ई. में मद्रास में भीषण अकाल के दौरान भी नहीं ।
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