Vakataka Dynasty ~ वाकाटक वंश का इतिहास ~ Ancient India

Vakataka Dynasty ~ वाकाटक वंश का इतिहास

सातवाहनों के पतन के पश्चात अनेक स्वतंत्र राज्य स्थापित हुए। विदर्भ में वाकाटकों ने, दक्षिण-पूर्वी क्षेत्रों में पल्लवों ने, आंध्र प्रदेश में इक्ष्वाकुओं ने अपनी स्वतंत्र सत्ता स्थापित कर ली थी । इसके आलावा महाराष्ट्र में आभीर, मैसूर के कुछ भागों में कुन्तल और चुटु तथा उसके पश्चात कदम्ब शक्तिशाली हो गए ।

वाकाटक वंश (Vakataka Dynasty) के शासकों ने तीसरी शताब्दी से छठी शताब्दी तक शासन किया । इनका शासन क्षेत्र दक्कन में उत्तरी महाराष्ट्र से बरार/विदर्भ क्षेत्र तक फैला हुआ था । वाकाटक वंश के लोग विष्णुवृद्धि गोत्र के ब्राह्मण थे। अजंता गुहालेख से इस वंश की राजनैतिक उपलब्धियों का वर्णन मिलता है । वायुपुराण तथा अजंता गुहालेखों में विंध्यशक्ति नामक पहले वाकाटक शासक का उल्लेख मिलता है ।

विंध्यशक्ति (255 ई.-275 ई.)

वाकाटक वंश की स्थापना 255 ई. के आसपास विंध्यशक्ति नामक व्यक्ति ने की थी । सातवाहनों के पतन के पश्चात उसने स्वतन्त्र सत्ता स्थापित कर ली इससे पहले वे सातवाहनों के अधीनस्थ शासक था। शुरुआत में उसका पूर्वी मालवा के क्षेत्रों पर अधिकार था । इसके पश्चात उसने विंध्याचल पर्वतीय क्षेत्रों को जीतकर 'विंध्यशक्ति' नामक उपाधि धारण की थी । उसका वास्तविक नाम विरुध बताया जाता है । अजंता अभिलेख में उसे 'वंश केतु' कहा गया है ।

अजंता अभिलेख में उसकी प्रशंसा करते हुए उसे इन्द्र के समान प्रभाव वाला तथा अपने बाहुबल से समस्त लोकों को जीतने वाला बताया गया है । विंध्यशक्ति का शासनकाल 255 ई. से 275 ई. तक था ।

प्रवरसेन प्रथम (275 ई.-335 ई.)

प्रवरसेन प्रथम 275 ई. में बरार का शासक बना । वह विंध्यशक्ति का पुत्र था । वाकाटक वंश का वह एकमात्र शासक था जिसने सम्राट की उपाधि धारण की । प्रवरसेन प्रथम को वाकाटक वंश का वास्तविक शासक माना जाता है । उसने वाकाटकों की शक्ति का विस्तार किया । उसने उत्तरी दक्षिण भारत से बुंदेलखंड तक अपने राज्य का विस्तार किया । हालांकि साक्ष्यों के अभाव में यह अस्पष्ट है कि उसका यहां पर सीधा शासन था सामंतो के हाथ में था । प्रवरसेन ने चार अश्वमेध तथा एक राजसूय यज्ञ कराया जो उसके सफल सैनिक अभियान के परिचायक हैं । उसने अपने पुत्र गौतमी पुत्र का विवाह भारशिव नागवंश के प्रसिद्ध राजा भवनाग की पुत्री से कराया ।


प्रवरसेन ने अपने चार पुत्रों में अपने राज्य को समान रूप से बांट दिया था । उसने अपने बड़े पुत्र गौतमीपुत्र को प्रधान शाखा नंदिवर्धन (नागपुर) तथा दूसरे पुत्र सर्वसेन को वत्सगुल्म (बरार) / वाशिम शाखा का हिस्सा दिया बाकी दो पुत्रों के बारे में जानकारी नहीं मिलती है । प्रवरसेन प्रथम ने स्वंय 275 ई. से 335 ई. तक शासन किया ।

रुद्रसेन प्रथम (335 ई.-360 ई.)

प्रवरसेन प्रथम का पुत्र गौतमीपुत्र उसके शासनकाल के दौरान ही मर गया था । अतः प्रवरसेन प्रथम ने अपने पौत्र रुद्रसेन प्रथम को वहां का शासक बनाया । रुद्रसेन प्रथम गौतमीपुत्र तथा भारशिव राजकुमारी का पुत्र था । उसने 335 ई. में गद्दी संभाली । रुद्रसेन प्रथम गुप्त शासक समुद्रगुप्त का समकालीन था । ऐसा माना जाता कि समुद्रगुप्त के दक्षिणापथ अभियान के दौरान रुद्रसेन प्रथम तथा समुद्रगुप्त की मित्रता हो गई थी जससे समुद्रगुप्त ने वाकाटक राज्य को छोड़ दिया था । प्रयाग प्रशस्ति में समुद्रगुप्त द्वारा पराजित दक्षिण के जिन 12 राजाओं की सूची है उनमें रुद्रसेन प्रथम अथवा किसी भी वाकाटक शासक का नाम नहीं है । अतः यह सम्भव है कि मित्रतावश समुद्रगुप्त ने रूद्रसेन प्रथम के राज्य को छोड़ दिया हो । रुद्रसेन प्रथम ने 360 ई. तक शासन किया ।

पृथ्वीसेन प्रथम (360 ई.-385 ई.)

पृथ्वीसेन प्रथम का काल शांति और समृद्धि का काल था । वाकाटक अभिलेखों में उसका आचरण महाभारत के युधिष्ठर के सामान माना गया है । पृथ्वीसेन प्रथम 360 ई. में वाकाटक वंश का शासक बना । पृथ्वीसेन प्रथम के समय वाकाटकों की वाशिम शाखा का शासक विंध्यशक्ति द्वितीय था । उसने पृथ्वीसेन प्रथम के सहयोग से कुन्तल पर आक्रमण कर वहां के कदम वंश के शासक कंगवर्मन को पराजित किया तथा कुन्तल के कुछ क्षेत्रों पर अधिकार कर लिया । पृथ्वीसेन प्रथम का समकालीन गुप्त शासक चंद्रगुप्त द्वितीय था । रुद्रसेन प्रथम के समय से ही गुप्त शासकों के साथ इनके मैत्री सम्बन्ध रहे थे ।

इसी मैत्री को मजबूत करते हुए चंद्रगुप्त द्वितीय ने अपनी पुत्री प्रभावतिगुप्त का विवाह पृथ्वीसेन प्रथम के पुत्र रुद्रसेन द्वितीय से कर दिया । प्रभावतिगुप्त एक नाग वंशीय राजकुमारी कुबेरनाग की पुत्री थी जो चन्द्रगुप्त द्वितीय की पत्नी थी । इसके साथ ही चन्द्रगुप्त द्वितीय गुजरात तथा काठियावाड़ के शकों पर अपना अभियान शुरू करना चाहता था जो वाकाटकों के सहयोग के बिना संभव नहीं था । इसीलिए यह वैवाहिक संबंध चन्द्रगुप्त द्वितीय के लिए काफी लाभदायक रहा ।  इस वैवाहिक संबंध के लगभग 5 वर्ष बाद पृथ्वीसेन प्रथम की मृत्यु हो गई ।

रुद्रसेन द्वितीय (385 ई.-390 ई.)

अपने पिता पृथ्वीसेन प्रथम की मृत्यु के पश्चात 385 ई. में रूद्रसेन द्वितीय वाकाटक वंश की गद्दी पर बैठा । गुप्त साम्राज्य से वैवाहिक संबंध स्थापित करने से वाकाटकों की स्थिति पहले से ओर अधिक मजबूत हो गई । उसने चंद्रगुप्त द्वितीय के प्रभाव में आकर वैष्णव धर्म अपना लिया । दुर्भाग्यवश शासक बनने के 5 वर्ष बाद ही रुद्रसेन द्वितीय की अकाल मृत्यु हो गई । उस समय उसके दोनों पुत्र अल्पवयस्क थे अतः राज्य का सारा भार रुद्रसेन द्वितीय की रानी प्रभावतिगुप्त पर आ गया ।

प्रभावतिगुप्त का सरंक्षण काल

390 ई. में रुद्रसेन द्वितीय की मृत्यु के पश्चात वाकाटक राज्य का सारा भार रानी प्रभावतिगुप्त पर आ गया । क्योंकि उस समय तक उसके दोनों पुत्र दिवाकरसेन व दामोदरसेन अल्पवयस्क थे । चन्द्रगुप्त द्वितीय ने अपनी पुत्री को शासन में सहायता के लिए अपने विश्वासपात्र व अनुभवी मंत्री भेजे । शकों के उन्मूलन में चन्द्रगुप्त द्वितीय को प्रभावतिगुप्त ने सैनिक सहायता प्रदान की । प्रभावतिगुप्त के संरक्षण में ज्येष्ठ व अल्पवयस्क पुत्र दिवाकरसेन को राजा बनाया गया लेकिन 403 ई.में उसकी भी अकाल मृत्यु हो गई । इसके पश्चात 410 ई. के आसपास छोटे पुत्र दामोदारसेन को राजा बनाया गया जो उस समय तक वयस्क हो चुका था । 410 ई. में वह प्रवरसेन द्वितीय के नाम से वाकाटक राज्य की गद्दी पर आसीन हुआ ।

दामोदारसेन/प्रवरसेन द्वितीय (410 ई.-440 ई.)

प्रवरसेन द्वितीय ने 410 ई. में प्रभुसत्ता हासिल की । इससे पहले वह अपनी माता प्रभावतिगुप्त के संरक्षण में शासक था । प्रवरसेन द्वितीय वाकाटक वंश का अंतिम महान राजा था । उसके अनेकों ताम्र पत्र अभिलेख प्राप्त हुए हैं जो उसकी शांतिप्रियता को दर्शाते हैं । इन अभिलेखों में उसके द्वारा ब्राह्मणों को अनेकों खेत व गांव दान दिए जाने का उल्लेख है।

प्रवरसेन द्वितीय ने अपने साम्राज्य के विस्तार की ओर ज्यादा ध्यान नहीं दिया । उसके अभिलेखों में भी उसके द्वारा किसी सैन्य अभियान की जानकारी नहीं मिलती है । उसने कला व साहित्य को संरक्षण प्रदान किया । महाकवि कालिदास भी कुछ समय के लिए प्रवरसेन द्वितीय के दरबार में रहे थे । प्रवरसेन द्वितीय स्वंय एक बहुत बड़ा कवि था । उसने 'सेतुबंध' नामक महाकाव्य की रचना की । अभिलेखों के अनुसार उसने प्रवरपुर नामक गाँव की स्थापना की तथा अपनी राजधानी को नंदिवर्धन से प्रवरपुर स्थानांतरित किया । उसने अपने पुत्र नरेन्द्रसेन का विवाह कुंतल देश के कदमवंश की राजकुमारी अजितभट्टारिका से कराया । इस वैवाहिक संबंध से वाकाटकों की प्रतिष्ठा और अधिक बढ़ गई ।

उस समय इनकी दूसरी शाखा ( वाशिम शाखा) में उत्तराधिकारी की कमी की वजह से गद्दी खाली हो गई थी । ऐसा माना जाता है कि इस समय वाशिम शाखा के इस राजा का नाम भी प्रवरसेन द्वितीय था । 415 ई. में उसकी मृत्यु के समय उसका पुत्र  । अतः प्रधान शाखा के प्रवरसेन द्वितीय ने संयुक्त रूप से दोनों शाखाओं का शासन चलाया । ऐसा संभव है कि उसने इस शाखा का संरक्षक बनने के बाद अपना नाम भी दामोदारसेन से प्रवरसेन द्वितीय कर लिया हो । लिहाजा जब वह अल्पवयस्क पुत्र वयस्क हो गया तो उसे प्रवरसेन द्वितीय ने उसका राज्य वापिस सौंप दिया । उसने 440 ई. तक शासन किया ।

नरेन्द्रसेन (440 ई.-460 ई.)

नरेंद्रसेन, प्रवरसेन द्वितीय का पुत्र तथा उत्तराधिकारी था । वह वाकाटक वंश का एक कुशल व योग्य सेनानायक था । उसने 440 ई. से 460 ई. तक शासन किया । उसने कदम वंश की राजकुमारी से शादी कर उनसे मैत्रीपूर्ण संबंध बना लिए थे । उसके शासनकाल में बस्तर के नलवंश के राजा भवदत्तवर्मन ने वाकाटकों पर आक्रमण कर नंदिवर्धन पर अधिकार कर लिया । इस हार से वाकाटकों की प्रतिष्ठा को बहुत बड़ा धक्का लगा । भवदत्तवर्मन की मृत्यु के पश्चात नरेंद्रसेन ने नलों पर आक्रमण कर दिया और न केवल नंदिवर्धन को पुनः प्राप्त किया बल्कि बस्तर के कुछ क्षेत्रों पर भी अधिकार कर लिया ।वाकाटक अभिलेखों में नरेंद्रसेन को मालवा,कौशल तथा मेकल का अधिपति बताया गया है । पहले ये सभी क्षेत्र गुप्त शासकों के अधीन थे ।

उस समय नरेंद्रसेन का समकालीन गुप्त शासक स्कन्दगुप्त था। ऐसा प्रतीत होता है कि नरेंद्रसेन ने स्कन्दगुप्त की कमजोर स्थिति का लाभ उठाकर इन क्षेत्रों को अपने प्रभाव क्षेत्र में ले लिया था । हालांकि कुछ समय बाद ही स्कन्दगुप्त ने नरेंद्रसेन को पराजित कर मालवा पर पुनः अधिकार कर लिया था । नरेंद्रसेन वाकाटक वंश का अंतिम महान शासक था उसने न केवल नल शासकों को पराजित कर नंदिवर्धन पर पुनः अधिकार किया बल्कि बस्तर तक अपनी सीमाओं का विस्तार कर लिया था । नरेंद्रसेन के बाद वाकाटक वंश का पतन आरम्भ हो जाता है ।

पृथ्वीसेन द्वितीय (460 ई.-480 ई.)

नरेंद्रसेन के पश्चात 460 ई. में उसका पुत्र पृथ्वीसेन द्वितीय वाकाटकों की प्रधान शाखा का शासक बना । बालाघाट अभिलेख में उसे 'परमभागवत' की उपाधि दी गई है जिससे उसके वैष्णव धर्म का अनुयायी होने का प्रमाण मिलता है । इसी अभिलेख में यह भी कहा गया है कि पृथ्वीसेन द्वितीय ने दो बार वाकाटकों की विलुप्त लक्ष्मी का पुनरोद्धार किया । नलवंश तथा दक्षिणी गुजरात के त्रैकुटक शासकों द्वारा बार-बार आक्रमण से वाकाटकों की स्थिति बहुत खराब हो गई थी तथा धीरे-धीरे यह साम्राज्य पतन की कगार पर पहुंच गया था।

इस अभिलेख के आधार पर ऐसा कहा जा सकता है कि पृथ्वीसेन द्वितीय ने इनसे दो बार अपने राज्य को पुनः प्राप्त करने में सफलता प्राप्त की थी, परंतु अन्ततः उसे अपने राज्य से हाथ धोना पड़ा । पृथ्वीसेन द्वितीय का शासनकाल 460 ई. से 480 ई. तक माना जाता है ।

वाकाटकों की वाशिम शाखा का इतिहास

जिस समय वाकाटकों की प्रधान शाखा नंदिवर्धन तथा प्रवरपुर में अपना शासन कर रही थी उसी समय वाकाटकों की दूसरी शाखा (वाशिम शाखा) वत्सगुल्म / विदर्भ से अपने शासन का संचालन कर रही थी । इन दोनों शाखाओं के एक-दूसरे के साथ अच्छे संबंध थे तथा समय-समय पर दोनों एक-दूसरे को सैनिक सहायता भी प्रदान करते थे ।

वाकाटकों की वाशिम शाखा की शुरुआत 330 ई. में हुई थी जब प्रवरसेन प्रथम ने अपना साम्राज्य अपने चार बेटों में समान रूप से बांट दिया था । इन चारों बेटों में सबसे बड़ा गौतमीपुत्र था जो प्रधान शाखा का राजा बना तथा सबसे छोटा पुत्र सर्वसेन था जिसे वत्सगुल्म(बरार) का राज्य दिया गया तथा बाकी के दो पुत्रों के बारे में कोई साक्ष्य या जानकारी उपलब्ध नहीं है । इस प्रकार वाशिम शाखा का प्रथम शासक सर्वसेन था । दोस्तों, वाशिम वर्तमान में महाराष्ट्र के विदर्भ संभाग का एक जिला है । इससे पहले वाशिम को वत्सगुल्म में नाम से जाना जाता था ।

सर्वसेन के पश्चात उसका पुत्र विंध्यशक्ति द्वितीय वाशिम शाखा का शासक बना । उसने 350 ई.- 400 ई.तक शासन किया । अभिलेखों के अनुसार उसने वाकाटकों की प्रधान शाखा के शासक पृथ्वीसेन प्रथम के सहयोग से कुन्तल पर आक्रमण किया तथा वहां के कदम वंश के शासक कंगवर्मन को पराजित कर कुन्तल के कुछ भू भाग पर अपना अधिकार कर लिया ।

विंध्यशक्ति द्वितीय के पश्चात प्रवरसेन द्वितीय राजा बना । उसने वाशिम शाखा पर 400 ई. से 415 ई. तक शासन किया । हालांकि इस शासक के बारे में कोई विशेष जानकारी नहीं मिलती है । 415 ई. में प्रवरसेन द्वितीय की मृत्यु के समय इसका पुत्र मात्र 8 वर्ष का था जैसा कि हमने ऊपर उल्लेख किया है । हालांकि इस अल्पवयस्क राजकुमार के नाम का उल्लेख कहीं नहीं मिला है । इसने पृथ्वीसेन द्वितीय के सरंक्षण में शासन किया जब तक कि वह वयस्क न हो गया । वयस्क होने के पश्चात इसने सत्ता अपने हाथों में ले ली ओर यह सम्भतः 455 ई. तक शासन करता रहा ।

455 ई. में इस अज्ञात शासक का पुत्र देवसेन वाकाटक वंश की वाशिम शाखा का शासक बना । इसने कुल 20 वर्षों तक शासन किया । इसके शासनकाल की घटनाओं की ज्यादा जानकारी इतिहास में उपलब्ध नहीं है लेकिन इतना अवश्य है कि हस्तिभोज नामक उसके एक योग्य व अनुभवी मंत्री तथा वराहदेव (संभवतः हस्तिभोज का पुत्र) की जानकारी अजंता के लेखों में मिली है । देवसेन एक अयोग्य शासक था । वह हर समय भोग विलास में लिप्त रहता था । सत्ता का संचालन हस्तिभोज के हाथों में रहता था ।

हरिषेण (475 ई.-510 ई.)

हरिषेण वाकाटकों की वाशिम शाखा का सबसे महत्वकांक्षी एवं शक्तिशाली राजा था । उसने 475 ई. से 500 ई. तक शासन किया । पृथ्वीसेन द्वितीय वाकाटकों की मुख्य शाखा अंतिम शासक था । चूंकि उसके कोई संतान नहीं थी और ना ही कोई उत्तराधिकारी था अतः हरिषेण ने मुख्य शाखा को भी वाशिम शाखा में मिला लिया था । हालांकि पृथ्वीसेन द्वितीय को पराजित कर नल तथा त्रैकुटक शासकों ने उसके कुछ क्षेत्रों पर अधिकार कर लिया था लेकिन अजन्ता गुहालेख के अनुसार कुन्तल, अवन्ति, कलिंग, कोसल, त्रिकूट, लाट, आन्ध्र आदि क्षेत्र उसके प्रभाव-क्षेत्र के अन्तर्गत आते थे ।

इससे यह स्पष्ट होता है कि हरिषेण ने न केवल वाकाटकों के खोये हुए प्रदेशों को पुनः प्राप्त किया अपितु उसने आसपास व दूर दराज के कई प्रदेशों को अपने अधीन कर वाकाटकों के साम्राज्य की सीमा व प्रतिष्ठा में वृद्धि की । हरिषेण वाकाटक वंश का अंतिम ज्ञात शासक था । उसने 500 ई . तक शासन चलाया । हरिषेण की मृत्यु के पश्चात यह साम्राज्य पतन की ओर चला गया । हालांकि हरिषेण के बाद भी कई अज्ञात शासक हुए जिन्होंने 550 ई. तक वाकाटक साम्राज्य को संभाले रखा । लेकिन 550 ई. के पश्चात इस वंश का पूर्णतया पतन हो गया ।

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